ना काहू से बैर/राघवेंद्र सिंह
मध्यप्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए पंचायत और नगर सरकारों के चुनाव के नतीजे पर कहां से शुरू करें और कहां खत्म करें बड़ा मुश्किल काम है। नतीजों को देखकर इतना तो तय है भाजपा कार्यकर्ता ने आंखों देखी मक्खी नहीं खाई। हमने पहले ही लिखा था कि इन चुनावों में कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष के पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए पूरा आकाश है। प्रदेश की सभी 16 में से सात हारने वाली नगर निगम पर लंबे समय से भाजपा का राज था। धनबल-बाहुबल और अहंकार से लेकर हर लिहाज से कांग्रेस जमीन पर तो भाजपा आसमान पर थी। प्रत्याशी चयन में पुराने, पार्टी के वफादार और जिताऊ के बजाए युवाओं के नाम पर मनमानी, गुटबाजी की हमें जो रिपोर्ट मिल रही थीं उसके हिसाब से आधा दर्जन नगर निगम पर कांग्रेस जीत सकती है। लेकिन 9 अंक पर सिमट गई।
कहा- सुना जा रहा है कि भाजपा समीक्षा करेगी और जिम्मेदारी भी तय होगी भी करेगी। हार के सदमे को भाजपा जश्ने शिकस्त के अंदाज में मना रही थी कि तभी केंद्रीय नेतृत्व में अजय जामवाल को क्षेत्रीय संगठन महामंत्री की नियुक्ति कर सबको बता दिया है कि यहां जो कुछ गड़बड़झाला चल रहा है उस पर पहले से नजर थी। हर चीज की रिपोर्टिंग हो रही थी। इसलिए कठोर कार्यवाही के लिए तैयार रहें। इस तरह के संदेशों के बाद खुद को खुदा समझने वाले लीडर थोड़ा सा डिफेंसिव है और ‘हार के लिए गले’ खोजने में लग गए हैं।
बगावत को प्रबंधन और कमजोर डैमेज कंट्रोल का हाल यह था कि ग्वालियर मुरैना से लेकर कटनी और जबलपुर रीवा, सिंगरौली, छिंदवाड़ा में भाजपा हार गई। इनमें सबसे खास बात यह है कि जबलपुर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की ससुराल है इसके साथ ही प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राकेश सिंह यहां के सांसद हैं। इसके बाद भी जबलपुर में भाजपा हार गई इस तरह की हार का असर विधानसभा चुनावों में तो देखेगा ही लेकिन लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को उठाना पड़ सकता है। इसी तरह प्रदेश अध्यक्ष शर्मा का गृह क्षेत्र मुरैना और उनके संसदीय क्षेत्र कटनी से भी भाजपा के महापौर प्रत्याशी चुनाव हार गए। हांडी में चावल की तरह देखने पर कटनी में तो गलत प्रत्याशी चयन का सबसे बड़ा उदाहरण है। भाजपा की बागी कार्यकर्ता प्रीति सूरी निर्दलीय खड़ी हुई और वह चुनाव जीत गई। हैरत की बात है कि कोई धुरंदर नेता उन्हें मना नही पाया। अब भाजपा उन्हें पार्टी में लाने की कोशिश कर रही है। जिला भाजपा की बात करें तो भोपाल में गुटबाजी का आलम है की जिलाध्यक्ष सुमित पचौरी का गुट बन गया है। उनके समर्थक प्रत्याशी सबसे ज्यादा जीते हैं इसलिए भोपाल नगर निगम में पचौरी गुट ज्यादा ताकतवर है। सब जगह की यही कहानी है। संगठन स्तर पर ऑडियो ब्रिज, यूथ कनेक्ट, त्रिदेव, पन्ना प्रभारी, पन्ना प्रमुख,मेरा बूथ सबसे मजबूत जैसे नारों की असलियत सबके सामने आ गई। तैयारियां कागजी साबित हुई। संगठन कार्यकर्ताओं को जोड़ने और सक्रिय करने में कमजोर साबित हुआ। प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव संचालन तक पार्टी एक तरफ से विधायकों के पास गिरवी रखी गई थी। जो जीत कर आए हैं उनमें नई क्वालिटी यह है कि वे पार्टी के प्रति कम टिकट दिलाने वालों के प्रति वफादार ज्यादा हैं पहले संगठन मंत्री जिला अध्यक्ष और प्रदेश पदाधिकारी प्रत्याशी चयन करने में मदद करते थे तो उन्हें जिताने के लिए भी मैदान में मेहनत करते नजर आते थे इस बार तो सबको पता है मतदाता पर्चियां तक वितरित नहीं हो पाई। प्रधानमंत्री मोदी का नाम उदयपुर में टेलर मास्टर कन्हैया लाल साहू की हत्या की वजह से भाजपा को अलबत्ता फायदा हुआ वरना हार का यह ग्राफ और नीचे जा सकता था। चुनाव नतीजे को लेकर मशहूर शायर मुनव्वर राणा का एक शेर याद आ रहा है-
बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है,
बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है…
सभी 16 नगर निगमों पर काबिज भाजपा इस बार सिमट कर 9 अंक पर आ गई है लेकिन जानकारी है कहते हैं उज्जैन और बुरहानपुर में आखिरी मौके पर मेहनत ना होती तो शायद भाजपा का यह आंकड़ा सिमट कर सात पर आ जाता। कड़वा है लेकिन सच के पास तो यही है। राजनीतिक विशेषज्ञ भी मानते हैं यदि भाजपा इतनी विसंगति और बदहाली के बाद भी नगर निगम चुनाव में नहीं हारती तो शायद विधानसभा और लोकसभा के चुनाव ज्यादा खतरे में पड़ जाते हैं।
जामवाल की संगठन क्षमता दांव पर.…
क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जामवाल की संगठन क्षमता को पार्टी ने खूब जांचा परखा है। पूर्वोत्तर में उनके कामकाज इसके प्रमाण भी हैं। इसके बाद ही इन्हें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का काम सौंपा गया है। जामवाल का ट्रेक रिकॉर्ड अच्छा लेकिन मध्य प्रदेश संगठन की जो दुरावस्था पिछले लगभग 10 साल में हुई है उसे देखते हुए मंडल स्तर तक समन्वय संवाद , सक्रियता और हाशिए पर धकेले गए पार्टी वफादारों को भरोसे में लेने की जरूरत है। जामवाल की तैनाती उम्मीद की एक किरण के रूप में देखी जा रही है। वर्षांतक आने वाले 5-6 माह काफी महत्वपूर्ण रहने वाले हैं। अगले साल होने वाले विधानसभा और फिर लोकसभा के चुनाव में केंद्रीय नेतृत्व कोई कमजोरी स्वीकार नही कर सकता। सुधार नहीं हुआ तो माना और समझा जाएगा कि आंखों देखी मक्खी खाई जा रही है।
कांग्रेस को तो मनचाही मुराद मिल गई…
नगरी निकाय के चुनाव और पंचायत में मिली बढ़त कांग्रेस के लिए मनचाही मुराद के रूप में देखी जा रही है। कहा तो यही जा रहा था कि बुजुर्ग पीसीसी चीफ कमलनाथ शायद कमजोर साबित होंगे। लेकिन दिग्विजय सिंह की संगठन क्षमता ने कांग्रेस को एक बार फिर मैदान में लगभग बराबरी पर ला खड़ा किया है। उम्मीद की जा रही आने वाले दिनों में प्रदेश कांग्रेस दिग्विजय सिंह के हिसाब से विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति पर काम शुरू कर देगी। कांग्रेस के बड़े मिंया और छोटे की जुगलबंदी भाजपा खेमे में चिंता का सबब बन गई है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी इसी जोड़ी ने भाजपा का भरम दूर करते हुए पटखनी दी थी। सिंधिया शिविर बागी न होता तो नाथ का ही कमल खिल रहा होता…
Raghavendra Singh Ke Facebook Wall Se