मैं परिजनों को समझा रहा था यदि मैं नहीं बच सकूं तो शरीर के अंग दान कर देना
सत्यकथा/कीर्ति राणा-89897-89896
गतांक से आगे…( तृतीय भाग )
सीएचएल हॉस्पिटल में 16 नवंबर ‘21 को बायपास सर्जरी का दिन मुकर्रर था। पहला ऑपरेशन मेरा ही होने से सुबह 8 बजे के करीब मुझे स्ट्रेचर पर ओटी की तरफ ले जाया जा रहा था। शहर के जिन दोस्तों की मुझ से वर्षों पहले बायपास सर्जरी हो चुकी है, उन्हें और उनके परिजनों को ढाढस बंधाता और उनका हौंसला बढ़ाते हुए कहता था अब तो बायपास सर्जरी आम बात हो गई है, चिंता करने की जरूरत नहीं है।मुझे याद आ रहा था मित्र महेंद्र बापना (अग्निबाण) जिसे हार्ट संबंधी परेशानी होने पर बॉंबे हास्पिटल में स्टेंट डाला गया था। मित्र नवनीत शुक्ला (दैनिक दोपहर) को भी राजश्री अपोलो में स्टेंट डला था, तब मैं उज्जैन में पदस्थ था।मित्र निरुक्त भार्गव (फ्री प्रेस के उज्जैन ब्यूरो) के साथ नवनीत का हाल जानने आया था और मनु भाभी को दिलासा दे रहा था ज्यादा चिंता की बात नहीं है भाभी, अभी कुछ दिनों बाद सामान्य जीवन जीने लगेंगे। मेदांता अस्पताल में हार्ट सर्जरी के बाद इंफेक्शन का शिकार हुए पत्रकार-मित्र संजय जोशी की पत्नी को दिलासा देने गया था भाभी चिंता मत करो, इंफेक्शन वाली परेशानी जल्दी दूर हो जाएगी।और जब मुझे ऑपरेशन के लिए प्रायवेट रूम से ओटी की तरफ ले जा रहे थे, तब मुझे ये सारे दृश्य तो याद आ ही रहे थे और कहावत समझ आ रही थी 'जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई' अर्थात् जब तक खुद को दर्द ना हो तब तक दूसरे के दर्द की तीव्रता का एहसास नहीं हो पाता है।
अंतिम इच्छा सुना दी परिजनों को
स्ट्रेचर को दोनों तरफ से घेरे परिजन उदास चेहरे और डबडबाई आंखों के साथ चल रहे थे।जमाने भर को दिलासा देने और दुख आया है तो सुख भी आएगा जैसी सलाह देने वाला मैं खुद बायपास सर्जरी के लिए ले जाते वक्त मन ही मन घबराया हुआ था। गमगीन परिजनों को ढाढस बंधाने के साथ ही मेरे मन में डर समाया हुआ था कि अब शायद ही बच पाऊं।
यही भय था कि जब सर्जरी के लिए ले जाया जा रहा था तब मैंने स्ट्रेचर के चारों तरफ नजरें घुमाई और वार्ड बाय को रुकने का इशारा करते हुए पत्नी, भाभी, बहन, बेटा,बेटी-दामाद भतीजियों आदि को और समीप बुलाकर समझाया कोई भी डॉक्टर मरीज को मारने के लिए ऑपरेशन नहीं करता।यदि मेरे साथ ऑपरेशन के दौरान कुछ अकल्पनीय हो जाए, जान चली जाए तो डॉक्टरों पर गुस्सा मत निकालना।
परिजन मुझे दिलासा दे रहे थे ऐसा कुछ नहीं होगा। महाकाल अपने साथ हैं, मुझे भभूत भी चटाते हुए कहा तुमने किसी का बुरा नहीं किया तो तुम्हारे साथ बुरा नहीं होगा। मैं उन सब की बातों को अनसुना करते हुए कह रहा था यदि नहीं बच सकूं तो मेरा दाह संस्कार करने की अपेक्षा शरीर के जो भी अंग काम आ सकते हों उन्हें (ऑर्गन डोनेशन) दान करने के साथ देह मेडिकल कॉलेज को सौंप देना। मैं याद दिला रहा था कि श्रीगंगानगर में अंधशाला के कार्यक्रम में देह दान का संकल्प लिया था।मेरी सारी आशंका निर्मूल साबित हुई। महाकाल की कृपा और सभी की दुआएं काम आई, बायपास सर्जरी कामयाब रही।
डॉ पोरवाल सहित 11 सदस्यीय टीम
करीब चार घंटे चले ऑपरेशन में कार्डियक सर्जन डॉ मनीष पोरवाल और उनकी टीम के 10 अन्य सदस्यों कार्डियक सर्जन डॉ राजेश कुकरेजा और डॉ हरेंद्र ओझा, एनेस्थिसियालॉजिस्ट डॉ विजय महाजन और डॉ माला जोस, ओटी स्टॉफ मेगी जोसेफ, नीतू जेकब और शुभमोल पीके, पर्फ्युज़निस्ट सुभाष रेड्डी, अजय श्रीवास्तव और मनोज त्रिपाठी की मेहनत सफल हुई। इन सभी के प्रति मैं और मेरे परिजन सदैव आभारी रहेंगे। 16 नवंबर को हुए ऑपरेशन के बाद आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया, 17 नवंबर की दोपहर में होश आया पर मुंह में बायपेप लगे होने से इशारों में ही बातचीत करने की स्थिति थी। 18 नवंबर की सुबह से बोलचाल की स्थिति बन गई थी, तीन दिन आईसीयू और पांच दिन प्रायवेट रूम में रहने के बाद 21 नवंबर को अस्पताल से छुट्टी हुई तो मैं कांच के सामान जैसा था।
अस्पताल से डिस्चार्ज होने पर डॉ मनीष पोरवाल और उनकी टीम के लिए धन्यवाद पत्र भी लिख कर दिया। डॉ पोरवाल के पीए डॉ भरत बागोरा और सीएचएल अस्पताल से जुड़े तथा मीडिया मित्रों के उपचार में सहयोगी रहने वाले पत्रकार-मित्र सुनील जोशी भी मददगार रहे। कुछ दिनों बाद ही डॉ पोरवाल का जन्मदिन था, हम उनके लिए बर्थ डे केक लेकर गए। बातों ही बातों में उनसे जाना कि 1992 से अब तक करीब 25 हजार मरीजों की बायपास सर्जरी कर चुके हैं। हर दिन कम से कम 4 ऑपरेशन तो करते ही हैं। उनके इस हुनर और मृदु व्यवहार ने ही उन्हें पूरे प्रदेश में खास पहचान दिला रखी है।
इस तरह होती है बायपास सर्जरी
ऑपरेशन पश्चात जब बोलने-समझने की स्थिति बन गई तो डॉक्टरों से सीने, बाएं हाथ की कलाई के समीप तथा दोनों पैरों की पिंडलियों पर लगे टांकों के संबंध में पूछताछ करने पर जानकारी मिली कि सीने के बीच से नाभी के कुछ ऊपर तक पहले चीरा लगा कर सीना खोला गया फिर हार्ट के ऊपर वज्र समान मजबूत हड्डी के खोल को काटकर हार्ट के आसपास की रक्त धमनियों में ब्लाकेज वाले हिस्से छोड़ कर दोनों पैरों की पिंडलियों से निकाली गई नसों को इन धमनियों से जोड़कर रक्त प्रवाह के लिए पृथक से रास्ता बनाया गया।
सहज भाषा में मैं यह कह सकता हूं कि जिस तरह अधिक ट्रेफिक को नियंत्रित करने के लिए बायपास बनाया जाता है, उस बायपास पर र्निबाध आवाजाही के लिए जैसे बायपास के दोनों किनारों पर सर्विस रोड बना दिए जाते हैं, हार्ट की बायपास सर्जरी में भी हार्ट को रक्त पहुंचाने वाली ब्लॉक्ड धमिनियों को काटे या साफ किए बिना, ग्राफ्ट द्वारा एक नया रास्ता बनाया जाता है। इसके लिए एक स्वस्थ ब्लड वेसल (ग्राफ्ट) को हाथ, छाती या पैर से लिया जाता है और फिर प्रभावित धमनी से जोड़ दिया जाता है ताकि ब्लॉक्ड या रोग-ग्रस्त क्षेत्र को बाईपास कर सकें।
डॉक्टरों ने स्टेंट डालने से मना कर दिया
बॉंबे हॉस्पिटल में डॉ इदरीस खान द्वारा की गई एंजियोग्राफी की रिपोर्ट में एक से अधिक रक्त धमनियों में ब्लॉकेज थे। डॉक्टरों ने एंजियोप्लास्टी के साथ ही स्टेंट लगाने की संभावना को भी खारिज कर दिया था। यदि स्टेंट डालने वाली स्थिति रहती तो बायपास सर्जरी वाली बड़ी चुनौती को टाला जा सकता है।
यह होता है स्टेंट
चिकित्सकीय भाषा में स्टेंट एक छोटी धातु की विस्तार करने योग्य छलनी जैसी ट्यूब होती है जो धमनी को सहारा देती है और इसे खुला रखने में मदद करती है। इसे लगाने से पहले स्टेंट को एक बैलून कैथेटर पर लगाया जाता है जो कोरोनरी धमनी के रुकावट के क्षेत्र में स्टेंट को स्थापित करने का एक डिलीवरी सिस्टम होता है। स्टेंट का विस्तार करने के लिए बैलून को फैलाया जाता है।जैसे ही स्टेंट का विस्तार होता है, यह प्लाक को धमनी की दीवार के साथ सीधा कर देता है, और रक्त के प्रभाव को बढ़ाता है. एक बार जब स्टेंट ठीक से विस्तारित हो जाता है, तो बैलून से हवा निकाल दी जाती है और मरीज के शरीर से कैथेटर को हटा दिया जाता है. स्टेंट मरीज की धमनी में स्थायी रूप से रहता है ताकि रक्त के प्रवाह को बनाये रखने के लिए इसे खुला रख सके।(स्व)महेंद्र बापना को स्टेंट ही लगाया गया था। प्लाक के निर्माण के कारण कोरोनरी धमनी रोग वाले लोगों में, स्टेंट निम्नलिखित कार्य करता है • संकुचित धमनियों को खोलना • छाती में दर्द जैसे लक्षणों को कम करना • हार्ट अटैक के समय सहायता करना।
अब दवायुक्त स्टेंट (डीईएस) भी आ रहे हैं
रेस्टेनोसिस को रोकने के लिए वैज्ञानिकों ने दवायुक्त स्टेंट (डीईएस) का विकास किया है। दवायुक्त स्टेंट रेस्टेनोसिस के जोखिम को अपेक्षाकृत कम करते हैं और भविष्य में उपचार की ज़रुरत को भी कम करते हैं।यह धमनियों की दीवार को वैसे ही सहारा प्रदान करते हैं जो बिना परत चढ़े स्टेंट करते हैं, लेकिन इस स्टेंट पर एक परत चढ़ी होती है, जिसमें एक दवा शामिल होती है जो काफी समय तक धीरे धीरे रिलीज़ होती रहती है। यह दवा धमनी के स्वस्थ होने के साथ स्टेंट के अन्दर ऊतक की वृद्धि को रोकती है, और उसे पुनः संकुचित होने से बचाती है।अब ऐसे दवा युक्त स्टेंट भी उपलब्ध हैं जो एक निश्चित अवधि के बाद पूरी तरह गल जाते हैं और इस अवधि तक रक्त धमनी चौड़ी हो जाने से रक्त का प्रवाह सामानय रूप से होने लग जाता है। इंदौर में कुछ अस्पताल में यह सुविधा उपलब्ध है।
(बाकी सत्यकथा अगले अंक में पढ़िए)