Monday, July 28, 2025
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कमलनाथ कब तक रह पाएंगे कांग्रेस के नाथ…

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ना काहू से बैर/राघवेंद्र सिंह

अप्रैल में ज्योतिषी गणना के मुताबिक शनि, राहु – केतु समेत नौ ग्रहों ने अपनी चाल और घर बदले हैं। इन सब का असर सियासत और समाज दोनों पर पड़ने वाला है। कांग्रेस के साथ भाजपा भी इससे अछूती नही रहेगी। मध्य प्रदेश कांग्रेस पर सबसे पहले इसका प्रभाव पड़ा है। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के महाबली वयोवृद्ध नेता कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष में से फिलहाल नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ना पड़ा है। वरिष्ठ नेता डॉ गोविंद सिंह को नेताप्रतिपक्ष बनाया गया है। इसके बाद 2023 के विधानसभा चुनावों को लेकर जो चुनौतियां हैं उनके सामने कमलनाथ कितना टिक पाते हैं यह आने वाला वक्त बताएगा लेकिन अभी से कहा जाने लगा है कि कांग्रेस को 24 घंटे काम करने के लिए किसी युवा की जरूरत है ।

Raghavendra Singhमैं ज्योतिष का जानकार तो नहीं हूं लेकिन कहा जाता है कि ग्रहों की चाल का असर समाज के साथ राजनीति करने वालों पर भी पड़ता है। साथ ही ग्रहों के परिवर्तन के पहले सही संकेत मिलना शुरू हो जाते हैं । ज्योतिष और ग्रहों की चाल के अतिरिक्त राजनीतिक रूप से भी हालात को समझने की कोशिश की जाए तो कांग्रेसमें लंबे समय से कमल नाथ की तुलना में युवा और सकरी सक्रिय नेता को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंपने की बात होती रही है पूर्व राज्यपाल और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे अजीज कुरैशी तो सार्वजनिक तौर पर कमलनाथ को नेता प्रतिपक्ष और अध्यक्ष के पद से हटाने की बात कर चुके हैं। पार्टी नेतृत्व परिवर्तन की जो बात अजीज कुरैशी जैसे वरिष्ठ नेता ने की थी दरअसल वह कांग्रेस के कई नेताओं व कार्यकर्ताओं की भावनाओं को व्यक्त करती है। लेकिन नेता प्रतिपक्ष से कमलनाथ की विधायकों कांग्रेस के ही लोग पूर्ण परिवर्तन नहीं मानते उनका मानना है प्रदेश कांग्रेस को एक ऐसा अध्यक्ष चाहिए जो 24 घंटे कांग्रेस की नीति, कार्यकर्ता और जनता के लिए काम करें। प्रदेश की राजनीति में कभी छोटे भाई और बड़े भाई के रूप में काम करने वाले कमलनाथ व दिग्विजय सिंह के बीच पिछले दिनों जो मतभेद उभर कर आए थे उससे कमलनाथ काफी कमजोर हुए नतीजा यह हुआ की 2 महीने के भीतर कमलनाथ को नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ना पड़ा और अब संगठन को मजबूत करने के साथ भाजपा से मिलने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए मालवा या बिंद क्षेत्र से किसी जुझारू और संजीदा लीडर की जरूरत है जो प्रदेश कांग्रेश को संभाल सके इसी बीच कमलनाथ के कट्टर समर्थक सज्जन सिंह वर्मा ने संकेत दिया है कि कमलनाथ जी वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता हैं उनकी जरूरत पार्टी के लिए मध्य प्रदेश के अलावा दिल्ली और जिन राज्यों में चुनाव है वहां महसूस की जा रही है इसका मतलब अगर खोजा जाए तो आने वाले दिनों में संभवत वर्मा द्वारा बताई गई आवश्यकताओं के मुताबिक कमलनाथ को कांग्रेस कोई राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी भी सौंप सकती है इसका मतलब पहले नेता प्रतिपक्ष और बाद में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से भी कमलनाथ विदा हो सकते हैं असल में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव और 2024 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस हाईकमान मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य में जनता और कार्यकर्ता से जुड़े किसी मजबूत नेता को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपना चाहती हैं। पिछले चुनाव में समन्वयक के रूप में पूर्व मुख्यमंत्री नर्मदा यात्री दिग्विजय सिंह ने यह काम किया था। नतीजा सबके सामने है। पन्द्रह साल बाद प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ और उनके सलाहकार सरकार को चला नहीं पाए। प्रशासक के रूप में तो कमलनाथ सफल रहे लेकिन सीएम के रूप में वे सरकार के शिल्पी बने दिग्विजय सिंह और मंत्री- विधायकों और ज्योतिरादित्य सिंधिया को साथ नही रख पाए। नतीजा सबके सामने हैं कांग्रेस की सरकार गिर गई बात यहीं नहीं रुके इसके बाद कमलनाथ और दिग्विजय सिंह में भी मतभेद गहराने लगे। यह बात तब सबके सामने आई जब किसानों के एक प्रतिनिधि मंडल को लेकर तयशुदा वक्त पर दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से मुलाकात करने वाले थे। मगर यह मुलाकात रद्द कर दी गई। उसके पीछे वजह यह बताई गई कि दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज से किसान प्रतिनिधि मंडल को मिलने का जो समय लिया था उसकी जानकारी या अनुमति पहले कमलनाथ क्यों नही ली गई ? यह बात दिग्विजय सिंह और उनके समर्थकों को नागवार गुजरी। इसके बाद ही कांग्रेस के इन दोनो दिग्गजों में दूरियां बढ़ने लगी । कांग्रेस हाईकमान के पास सभी जानकारियां पहुंची और इसी बीच राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर मैं अपने प्रेजेंटेशन में एक व्यक्ति एक पद के साथ युवाओं को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपने की बात की तो उसे पार्टी सुप्रीमो सोनिया गांधी समेत लगभग सभी लोगों का समर्थन मिला। ऐसा लगता है आने वाले दिनों में मध्य प्रदेश कांग्रेस को लेकर जो बहुत से परिवर्तन हो गए उसमें दिग्विजय सिंह के सोच- चिंतन और उनकी टीम का अक्स जरूर नजर आएगा। साल के अंत तक बहुत संभव है प्रदेश कांग्रेस को नए अध्यक्ष भी मिल जाए। इसमें अर्जुन सिंह के पुत्र वरिष्ठ कांग्रेस नेता अजय सिंह राहुल के साथ अरुण यादव जीतू पटवारी के नाम भी चर्चाओं में है अजय सिंह राहुल को प्रदेश कांग्रेस की कमान मिलती है तो एक तरह से विंध्य क्षेत्र जहां भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव में एक तरफा प्रदर्शन किया था वहां भाजपा को रोकने में कांग्रेस को मदद मिल सकती है। महाकौशल में कमलनाथ का असर कांग्रेस के काम आ सकता है चंबल क्षेत्र में नेता प्रतिपक्ष डॉक्टर गोविंद सिंह कांग्रेस को सिंधिया के सामने मजबूत कर सकते हैं मालवा में दिग्विजय सिंह और उनके समर्थक निमाड़ और आदिवासी बहुल क्षेत्र में में सहकारिता के कद्दावर नेता रहे सुभाष यादव के पुत्र अरुण यादव प्रभावी भूमिका अदा कर सकते हैं कांग्रेस हाईकमान इन सब को एकजुट कर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अच्छे परिणामों की उम्मीद लगा सकता है ।

शिव के गणों विष्णु के पदाधिकारियों में बदलाव के संकेत…
मध्य प्रदेश भाजपा को लेकर पिछले दिनों दिल्ली में जो बैठक हुई वह अपने आप में ऐतिहासिक है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि भाजपा की बैठक में संघ की भी हिस्सेदारी रही हो। इसकी वजह यह बताई जाती है की पार्टी हाईकमान को उस फीडबैक मिला है वह बहुत चिंता में डालने वाला है। कांग्रेस को वेंटिलेटर पर बताने वाली भाजपा के पास ग्राउंड जीरो की जो रिपोर्ट है उसमें विधायक मंत्रियों के साथ संगठन भी कार्यकर्ता और जनता से कम कनेक्ट हो पा रहा है। इसमें सिंधिया समर्थक मंत्री भी निशाने पर है। सबको लगता है मोदी का मैजिक विधानसभा चुनाव में भी उनकी नैया पार करा देगा लेकिन संगठन के वरिष्ठ नेता शिव प्रकाश और मुरलीधर राव के साथ संघ ने जो जानकारी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को दिए वह निश्चित ही बहुत चौंकाने वाली है यही वजह है कि भाजपा की महत्वपूर्ण बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा प्रदेश प्रभारी शिव प्रकाश मुरलीधर राव के साथ संघ के वरिष्ठ नेता भी उसमें शामिल हुए बैठक के बाद संकेत मिले हैं की मंत्री जो काम नहीं कर रहे हैं उनकी विदाई हो सकती है कुछ के विभाग बदले जा सकते हैं और संगठन में भी जो नेता चुनाव लड़ना चाहते हैं उनको भी समझाइश दी जा रही है कि वे संगठन के दायित्व पर ध्यान दें या अपने चुनाव क्षेत्र पर। दोनो में से किसी एक काम को चुनने के लिए कहा जा सकता है। इसका मतलब आने वाले कुछ महीने भाजपा नेताओं की धुक धुकी बढ़ाने वाले होंगे।

अनुराधा शंकर सिंह और आधी आबादी
मध्य प्रदेश की अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अनुराधा शंकर सिंह ने नौकरी पेशा महिलाओं की उपेक्षा और उनके लिए बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने पर जो बात कही वह इन दिनों चर्चा में है। पिछले दिनों पुलिस मुख्यालय में शताधिक महिला पुलिस अफसर और महिला पुलिस सिपाहियों के बीच शोषण और बुनियादी सुविधाओं से जुड़े कुछ प्रश्न उठाए। इसमें मंत्रालय में वीआईपी फ्लोर पर महिलाओं के लिए वाशरूम का नही होना चिंता की बात है। महिलाओं की उपेक्षा की यह बात तब सुर्खियों में आई जब सीएम शिवराज सिंह चौहान 2 हजार 52 एम्बुलेंस का लोकार्पण कर रहे थे। इसमें इसमें महिलाओं के लिए जननी सुरक्षा योजना को महत्ता दी गई है। सीएम के पसंदीदा अफसरों में रही अनुराधा शंकर सिंह ने महिलाओं खास तौर पर महिला पुलिस को लेकर जो चिंता जताई है उस पर जरूर सरकार सकारत्मक निर्णय करेगी। वैसे भी सीएम बहनों और भांजियों के मुद्दे पर बेहद सतर्क और संवेदनशील रहते हैं।

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नक्सल और माओवाद में बुनियादी फर्क समझिए!

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जयराम शुक्ल

बस्तर फिर अशांत है। चरमपंथियों ने बंद का आह्वान किया है। मीडिया और अन्य वर्ग के लोग इसे नक्सलियों का एक्शन बता रहे हैं। जबकि वस्तुतः ये कानू सान्याल, चारू मजूमदार की नक्सलबाड़ी के क्रांतिदूत नहीं, अपितु ये वहसी राक्षस हैं, ये नक्सली नहीं, माओवाद की नकाब ओढ़े फिरौती और चौथ वसूलने वाले राष्ट्रद्रोही, खूनी दरिन्दे, डकैत और लुटेरे हैं।
नक्सल, यहां से आया

नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे जमीदारों के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। पं.बंगाल की तत्कालीन सरकार सामंतों की पोषक थी और वे खेतिहर मजदूरों का क्रूरता के साथ शोषण करते थे।
सरकार जब मजदूरों, छोटे किसानों की बजाय जमीदारों के पाले में खड़ी दिखी तो यह धारणा बलवती होती गई कि मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरुप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है।

Jay Ram Shukla 1 इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में “नक्सलवादियों” ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी।
1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया।
कानू सान्याल ने से अपने आन्दोलन की यह दशा देखकर 23 मार्च 2010 को नक्सलबाड़ी गांव में ही खुद को फांसी पर लटकाकर जान दे दी थी। मरने से एक वर्ष पहले बीबीसी से बातचीत में सान्याल ने कहा था कि वो हिंसा की राजनीति का विरोध करते हैं.
उन्होंने कहा था, ‘‘ हमारे हिंसक आंदोलन का कोई फल नहीं मिला. इसका कोई औचित्य नहीं है. ’’
नक्सलबाड़ी की क्रांति पं.बंगाल के जमीदारों के खिलाफ थी..चूकि तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जो कि खुद बड़े जमीदार थे के नेतृत्व वाली पं.बंगाल सरकार जमीदारों की पक्षधर थी इसलिए इस लड़ाई को सरकार के खिलाफ घोषित कर दिया गया था।
बहरहाल अपनी मौत से पहले कानू सान्याल ने हिंसक क्रांति को व्यर्थ व अनुपयोगी मान लिया था। नक्सलबाड़ी की क्रांति किसान-मजदूरों की चेतना का उद्घोष थी।
नक्सलबाड़ी की क्रांति में खेतिहर महिलाएं भी शामिल थीं..जिन्होंने हंसिया,खुरपी,दरांती से सामंती गुन्डों का मुकाबला किया..। अपने आरंभकाल में यह क्रांति अग्नि की भांति पवित्र व सोद्देश्य थी..इसके विचलन को स्वीकारते हुए ही कानू सान्याल ने आत्मघात किया।
सन् 2006 में एक पत्रिका की कवर स्टोरी के संदर्भ में मैने कानूदा से बातचीत की थी।
क्या ये नहीं मालूम कि कानू सान्याल और चारू मजूमदार का नक्सलवाद 77 की ज्योतिबसु सरकार के साथ ही मर गया था।
जिस भूमिसुधार को लेकर और बंटाई जमीदारी के खिलाफ नक्सलबाड़ी के खेतिहर मजदूरों ने हंसिया और दंराती उठाई थी उसके मर्म को समझकर पं.बंगाल में व्यापक सुधार हुए , साम्यवादी सरकार के इतने दिनों तक टिके रहने के पीछे यही था।
उस समय के नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रायः सभी नेता मुख्यधारा की राजनीति में आ गए थे। चुनावों में हिस्सा भी लिया। मेरी दृष्टि में इन आदमखोर माओवादियों को नक्सली कहा जाना या उनकी श्रेणी में रखना उचित नहीं।
वैसे बता दें कि आधिकारिक तौर पर भी ये नक्सली नहीं माओवादी हैं और सरकार भी मानती है कि ये राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं। जबकि नक्सलियों का कदम विशुद्ध रूप से सामंती शोषण के खिलाफ था।
दरअसल पड़ोस के किसी भी देश को अस्थिर और आंतरिक विद्रोह की स्थिति उत्पन्न करना चीन की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है। विचारों के साथ अस्त्र-शस्त्र और हिंसक क्रांति का नारा समता मूलक समाज के लिए एक छलावा है। नागरिक अधिकारों को पाँव तले रौंदना वाला चीन(वहां की सत्ता) स्वयं दुनिया भर में गरीबों के शोषण के लिए बदनाम है लेकिन वह तमाम उन देशों में ऐसे अपराधिक गिरोहों को फंड उपलब्ध कराता है ताकि सरहद पर लड़ने की बजाय वह उन्हें घर के भीतर ही अस्थिर कर सके। दुर्भाग्य यह कि देश का बड़ा तबका नकस्ली व माओवादी में इस बुनियादी भेद से अब तक अनजान है।

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वरिष्ठ नेताओं के दम पर ही – अगले महाभारत के लिए कांग्रेस तैयार

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सुधीर पाण्डे

भोपाल: आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर बढ़ती हुई सरगर्मी अब राजनैतिक दलों में संगठात्मक परिवर्तन की और जा रही है। कांग्रेस ने यह तय कर लिया है कि पुरानी पीढ़ी के भरोसे ही मध्यप्रदेश में एक बार सत्ता की स्थापना की जायेगी। सबसे रोमांचक पहलू यही है कि मध्यप्रदेश के वरिष्ठ किन्तु विवादास्पद रहे नेता ही अब अग्रिम पंग्ति में आकर संगठन की एकता और सक्रियता को पुनः मजबूत करेंगे। इस प्रयोग से यह संकेत मिलता है कि अखिल भरतीय स्तर पर कांग्रेस का हाई कमान अभी सुधरा नहीं है, बल्कि परम्परागत शैली की राजनीति को ही अपनी आर्थिक मजबूरियों के कारण आश्रय दे रहा है।

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कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में अपनी गतिविधियों को कागज़ी तौर पर विस्तार देने की अपनी कोशिशे प्रारंभ कर दी है। सबसे बड़ा परिवर्तन यह है कि कांग्रेस के संगठात्मक ढ़ांचे को बनाने, संचालित करने और सुधारने की जिम्मेवारी प्रदेश अध्यक्ष कामनाथ के निर्देश पर अब लगभग दिग्गिविजय सिंह के हाथों सौप दी गई है। गुना और ग्वालियर जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र जहां ज्योतिरादित्य सिंधिया का व्यापक प्रभाव है और भाजपा की दृष्टि से ये क्षेत्र भाजपा के लिए अधिक मजबूत है में मुकाबला राजा और महाराजा के बीच तय कर दिया गय है। सिंधिया को अपनी साख बचाने के लिए इस क्षेत्र में दिग्गिविजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस का सामना करना पडेगा। राजनीति के जानकार यह मानते है कि गुना क्षेत्र को छोड़ दे तो शेष ग्वालियर क्षेत्र में सिंधिया दिग्गिविजय सिंह से अधिक प्रभावी है। स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के युग से है कांग्रेस की प्रत्येक विजय का सेहरा सिंधिया राज परिवार के सर पर ही बंधता रहा है। इस क्षेत्र में कांग्रेस बिखरी हुई है जातिगत आधार पर बटी हुई है और कार्यकर्ताओं का मनोबल ग्वालियर किले के प्रति उनके पूर्वजों द्वारा व्यक्त की गई निष्ठा के कारण आज भी संगदिग्ध है।

दिग्गिविजय सिंह प्राप्त जानकारी के अनुसार पांच सालों के बाद पुनः कांग्रेस हाई कमान की टीम के सदस्य बना लिये गये है। अब उन्हें वे समस्त जिम्मेवारियां और जानकारियां सीधे प्राप्त करने के आधिकार है जो पिछले गोवा चुनाव के दौरान उनकी संगदिग्ध गतिविधियों के कारण बाधित कर दी गई थी। वास्तव में ये दिग्गिविजय सिंह की जीत है जो गोवा जैसी बडी राजनैतिक घटना के बाद भी उनकी वापसी कमजोर हाई कमान के समाने एक मजबूरी बन गई। कांग्रेस में पुनः कमलनाथ और दिग्गिविजय सिंह की रणनीति पर चलने का निर्णय किया है। इस राजनीति के दो भाग है, पहला कमरा बंद बैठकों और योजनाओं पर प्रबंध की राजनीति को कमलनाथ संचालित करेंगे और खुली हवाओं में कार्यकर्ताओं के मध्य कांग्रेस को सक्रिय बनाने का कार्य दिग्गिविजय सिंह करेंगे। शेष सारा नेतृत्व इन दोनों के आधीन ही निर्देशों पर कार्य करेगा। कांग्रेस हाई कमान राज्य की राजनीति के लिए इन दोनों शीर्ष पुरुषों पर ही विश्वास करेगा।
राजनीति के जानकार मानते है कि पूरे प्रदेश में बिखरी हुई कांग्रेस को एकत्र कर पाना संभव नहीं है। जहां कांग्रेस के छोटे कार्यकर्ता और स्थानीय नेतृत्व भाजपा के प्रभावी नेताओं के साथ सहभागिता से व्यवसाय संचालित कर रहा है, वहां इस तरह की गतिविधि का स्वतंत्र रूप से पार्टी के पक्ष में संचालित हो पाना असंभव है।

वैसे भी दिग्गिविजय सिंह के दिशा निर्देशों पर कांग्रेस का सामान्य कार्यकर्ता ही निर्देश जारी करने के विरुद्ध कई प्रश्न खड़े कर सकता है। दूसरी और यह राजनीति पार्टी के लिए नहीं हो रही है बल्कि अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए और भविष्य के युवा नेताओं को बरगलाने के लिए हो रही है यह बात भी आम कार्यकर्ता को पूरी तरह स्प्ष्ट है। ऐसी स्थिति में एक गंभीर राजनीतिक संरचना का हो पाना अंसभव कार्य है। पीढ़ियों के बदलावों में वैसे भी निष्ठा और वचन बद्धता की राजनीति को समाप्त कर दिया है। जाती हुई पीढ़ी अपने परिवार के स्वार्थ के लिए राजनीति कर रही है तो आने वाले पीढ़ी सीधे युद्ध करके अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए तटीबद्ध है। इन स्थितियों में भी कांग्रेस हाई कमान को परम्परागत राजनीति ही बेहतर नजर आती है इसे कम से कम कांग्रेस को तो सौभाग्य तो नहीं कह सकते।

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शाह ने की तारीफ और निष्कंटक हुआ शिव-राज…

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ना काहू से बैर/ राघवेंद्र सिंह

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 22 अप्रैल 2022 से काफी राहत महसूस कर रहे होंगे। उनके विरोधी खेमे में सियासी तौर पर सत्ता को लेकर चिंता का सूरज तप रहा होगा। चौहान अपने चौथे कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद भोपाल यात्रा पर आए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की प्रशंसा पाने में भी कामयाब हो गए । पिछले 6 महीने में गृहमंत्री शाह की मध्यप्रदेश में यह दूसरी यात्रा थी। जिसमें वह शिवराज के मैनेजमेंट को देखते हुए सरकार की तारीफ किए बिना नहीं रहे।
गृह मंत्री अमित शाह ने भोपाल के जंबूरी मैदान में कहा कि प्रदेश की जबलपुर यात्रा में आदिवासी वनवासी कल्याण लिए 17 सूत्री एलान किया था। तब मैंने शिवराज जी से कहा था जनता हिसाब मांगेगी। आज जब मैंने हेलीकॉप्टर में शिवराज जी से जब 17 सूत्री घोषणाओं के बारे में रिपोर्ट ली तो मुझे खुशी है कि सब पर काम शुरू हो गया है। इसके लिए शिवराज जी और उनकी पूरी टीम के लिए बधाई । शिवराज जी ने अपने काम से प्रदेश पर बीमारू होने का जो टप्पा लगा था राज्य को उससे बाहर निकाल कर विकसित राज्य बना दिया है। यहां आदिवासी कल्याण के जो काम हुए हैं वह दूसरे राज्यों के लिए भी अनुकरणीय है।
बस यहीं से लगता है चौथी पारी के मुख्यमंत्री शिवराज निष्कंटक हो गए। इससे 2023 के विधानसभा चुनाव तक सरकार में कोई परिवर्तन होता नही दिखता है। इस तरह के संकेतों से शिवराज के मुकाबले अगले चुनाव को देखते हुए कांग्रेस को भी परिश्रम की पराकाष्ठा करने वाले नेता की दरकार होगी। जिसके पैर में चक्कर, मुंह में शक्कर,सीने में आग और माथे पर बर्फ हो। सीएम शिवराज अक्सर कार्यकर्ताओं के बीच अपने भाषणों में सफल संगठक के जिन गुणों का बखान करते रहते हैं यही बातें पब्लिक लाइफ में कामयाबी के लिए नेताओं की पूंजी भी होती है। इसी के बूते शिवराज सिंह तीन बार भाजपा को सरकार में लाने का जादू और विरोध के बावजूद चार बार सीएम बनने का हुनर हासिल किए हुए हैं।

मोदी – शाह की सुपर-डुपर जोड़ी…
दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की जोड़ी टीम भाजपा में कप्तान, कोच और मैनेजर की संयुक्त भूमिका में हैं। कौन प्लेयर टीम में आएगा- कौन बाहर बैठेगा से लेकर किसको कब और कैसे खिलाना है यह भी मोदी शाह की जोड़ी तय करती है। कह सकते हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी का रसूख सातवें आसमान पर है। ये दोनो भाजपा में नेताओं की सुपर -डुपर हिट लीडरशिप में शुमार हैं। पहले कभी यह रुतबा अटल-आडवाणी की जोड़ी को हासिल था। भाजपा से लेकर सरकार तक में मोदी-शाह, निर्माता-निर्देशक और पटकथा लेखक सब कुछ हैं। यह दोनों दिग्गज, आम भाषा में कहें तो ऑल इन वन हैं। यह सब पार्टी लाइन को मजबूती से पकड़े रहने के कारण भी हुआ।

सूबे में हैं चौहान और तोमर…
मध्यप्रदेश के नेताओं में ऐसी जोड़ी 2005 के बाद से शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर की बनी हुई है। चौहान जनता के बीच तो तोमर बतौर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष कार्यकर्ताओं के बीच सक्रिय रहते आए हैं। श्री तोमर के केंद्र में मंत्री बनने के बाद सूबे की सियासत में थोड़े समीकरण बदले हैं लेकिन संगठन और निर्णय करने वाले चौहान- तोमर की जोड़ी की राय को तव्वजो देते आए हैं। प्रयोगों को छोड़ जब भी कभी गम्भीर विकल्प की बात आती है तो तोमर का नाम जरूर सुनाई पड़ता है। कहा जाता है पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश भाजपा संगठन की कमान तोमर के हाथ होती तो सरकार भाजपा की ही बनती।
पीएम मोदी की मुख्यमंत्री चौहान पर तीसरे कार्यकाल तक सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी वक्र दृष्टि रहा करती थी। उनकी तिरछी नजर और गम्भीर मुख मुद्रा या यूं कहिए पीएम की बॉडी लैंग्वेज यह संदेश देती थी कि सब कुछ ठीक नही है। एमपी में मोदी के गम्भीर रहने पर कहा जाता था ” मुस्कुराइए आप मध्यप्रदेश में हैं “… लेकिन मानना होगा कि मामा शिवराज ने पीएम मोदी को भी मना लिया और गृह मंत्री शाह को भी अपने काम से खुश कर लिया।

सोनिया की किचिन केबिनेट दिग्विजय सिंह…
लगभग पांच साल बाद महात्मा गांधी की प्रबल अनुयायी वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह एक बार फिर सोनिया गांधी किचन कैबिनेट में किए गए हैं। वे अल्पसंख्यकों के पक्ष और भाजपा के साथ संघ परिवार के खिलाफ टीका टिप्पणी करने के कारण अक्सर सुर्खियों में बने रहते हैं। दिनरात कार्यकर्ताओं से जीवंत संपर्क के कारण वे फील्ड मार्शल भी कहे जाते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने के पीछे उन्हें बड़ी वजह माना जाता है।
कांग्रेस की दिग्विजय सिंह की केंद्रीय राजनीति में वापसी एक बड़ा निर्णय है। प्रशांत किशोर के कांग्रेसमें राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय होने के बाद हुआ है इसका मतलब यह भी है कि आने वाले दिनों में मध्य प्रदेश कांग्रेस में भले ही कोई बदलाव ना हो लेकिन विधानसभा में कांग्रेस को पीसीसी चीफ कमलनाथ की जगह कोई नया नेता प्रतिपक्ष मिल जाए हालांकि ऐसा कमलनाथ की इच्छा के बगैर संभव नहीं है क्योंकि नाथ का गांधी परिवार से वर्षों पुराना पारिवारिक और आत्मीय रिश्ता है हालांकि पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह से भी गांधी परिवार खासतौर से स्वर्गीय राजीव गांधी और सोनिया जी के बहुत गहरे रिश्ते थे लेकिन विधानसभा चुनाव के पहले कैप्टन अमरिंदर मुख्यमंत्री पद से विदा कर दिए गए थे। नतीजतन बाद में कैप्टन ने कांग्रेस छोड़ दी थी। इसलिए देखना होगा कि बदली हुई परिस्थितियों में यह पुराने रिश्ते पार्टी हित में कितनी अहमियत रखेंगे।

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या अली….मदद करो बजरंगबली!

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जयराम शुक्ल

नवसंवत्सर से हनुमान जयंती तक के बीच में देश में कोई सात दंगे हुए। रामनवमी के दिन मध्यप्रदेश का खरगोन आग से झुलस उठा। रामदरबार की झाँकी के साथ निकल रही शोभायात्रा पर पत्थरों, पेट्रोल बमों की बारिश हुई। कुछ सिरफिरे युवाओं ने भीड़ में तलवार बाजी की। उसके कवर कर रहे शैतानों ने गोलियां दागीं।
गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पुलिस अधीक्षक को गोली लगी वे अस्पताल में है। एक मासूम अस्पताल में जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहा है। हमले मंदिरों पर भी हुए। उन्हें तोड़ा और मूर्तियां नष्ट की गईं। बताने की जरूरत नहीं कि यह क्यों और किन लोगों ने किया। यह भी बहस का अलग विषय है कि खुफिया तंत्र और प्रशासन फेल रहा। विमर्श का विषय यह कि नफरत की आग यकायक इतनी तेज कैसे होने लगी?

Jay Ram Shukla हम जितनी तरक्की करते जा रहे हैं। पढ़ने-अध्ययन करने में जितने प्रवीण होते जा रहे हैं उसकी दूनी रफ्तार से दकियानूस और खुदगर्ज भी। दरअसल यह खेल उन लोगों का है जो देश के भीतर और बाहर यह बात तेजी से फैला रहे हैं कि भारत में मुसलमान असुरक्षित हैं।
ये वही लोग हैं जिन्होंने ऐसी ही असुरक्षा की भावना फैलाकर छह दशकों तक मुसलमान वोटरों को दुहा और मंचों से गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई दी। मुसलमानों को एक कौम के रूप में पाले और बनाए रखा। कौम का मतलब राष्ट्र होता है तो क्या राष्ट्र भीतर या समानांतर कोई दूसरा राष्ट्र(कौम) भी है। हम अक्सर तकरीरें सुनते हैं कि ‘हम अपने कौम के लोगों से यह इल्तिजा करते हैं’। क्या मतलब हुआ इसका? क्या हम और आप कौम(राष्ट्र) में शामिल नहीं हैं..?
जिस किसी ने गंगा-जमुनी संस्कृति की थ्योरी दी और जिन्होंने इसे स्थापित किया वे ही आज नफरत की इस लहलहाती फसल के लिए जिम्मेदार हैं। एक राष्ट्र में दो समानांतर संस्कृति नहीं बह सकती। उनमें क्षेत्र और समय के हिसाब से वैविध्य अवश्य हो सकता है पर प्रतिद्वंदिता नहीं। यहाँ दशकों से गंगा के समानांतर जमुना की बात की जाती है।
जमुना का अस्तित्व तो प्रयाग में आकर खत्म हो जाता है। न जाने कितने नद-नदियां और नाले गंगा में आकर गंगामय हो जाते हैं। उनका अस्तित्व विलीन हो जाता है।
उसी तरह देश की विभिन्न सभ्यताओं, परंपराओं और संस्कृतियाँ मिलकर राष्ट्रीय संस्कृति गढ़ती हैं।
हिन्दू कभी असहिष्णु नहीं रहे। आज भी वे न जाने कितने पीर और औलिया को मानते हैं। मजारों में जाकर मन्नतें माँगते व मत्था टेकते हैं। अजमेर शरीफ और निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में जाइए आपको मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू ही मिलेंगे। लेकिन हिन्दू तीर्थ स्थलों व उनके देवी-देवताओं को लेकर जो भाव महमूद गजनवी और बाबर में था कमोबेश वही आज भी है। जबकि उनमें से बड़ी संख्या (90प्रतिशत के करीब) के मुसलमानों की पितृभूमि व उनके पुरखों की पुण्यभूमि यही भारत है।
पता नहीं इस यथार्थ को क्यों नहीं समझाया जाता। जब यही समझाइश राही मासूम रजा और आरिफ मोहम्मद खान जैसे विशुद्ध मुस्लिम स्कालर देते हैं तो उन्हें काफिर घोषित कर दिया जाता है। उनके दकियानूसी विचारों और परदे के पीछे के पापों को जब तस्लीमा नसरीन और सैटनिक वर्सेस के लेखक सलमान रश्दी देने लगते हैं तो उनके सिर को कलम करने का हुक्म सुना दिया जाता है।
मध्ययुग में रसखान, रहीम, जायसी, नजीर और न जाने कितने मुस्लिम स्कालर हुए जिन्होंने अपने धर्म को नहीं बदला लेकिन भारतीय संस्कृति और उनके महापुरुषों पर इतना सुंदर लिखा जिसे हम भजन-कीर्तन की तरह याद रखते हैं। क्या यह धारा फिर नहीं बह सकती। यदि हमने निजामुद्दीन औलिया और अजमेर शरीफ समेत अनगिनत पीर-औलिया-और बाबाओं को सिरमाथे पर रखते हैं उनके दर पर जाकर आस्था व्यक्त करते हैं तो दूसरों के धर्म के प्रति सद्भाव की यह धारा देवबंद और बरेली से क्यों नहीं फूटनी चाहए।
जो धर्म जड़ होता है आज नहीं तो कल उसका मरना तय है। उदात्तता ही उसे सतत् बनाए रखती है इसीलिए हमारा धर्म धर्म है रिलीजन नहीं, वह सनातन धर्म है। कभी-कभी प्रश्न उठता है कि ईसाइयत को आए 22 सौ वर्ष हुए और इस्लाम के मुश्किल से 17 सौ वर्ष।
जब ये धर्म नहीं थे तब आज के इनके अनुयायियों के पुरखे किस धर्म के अनुयायी रहे होंगे। इससे पहले के धर्मों में अग्निपूजकों का धर्म था, उनके पहले भी कोई धर्म रहा होगा। और वह धर्म सनातन ही ही है जिससे विश्वभर में अलग-अलग नए पंथ तैयार होते गए। यानी कि सभी के मूल में सनातन धर्म ऐसे ही है जैसे की ईश्वर, अल्लाह, जीसस एक हैं। उन तक पहुँचने के पंथ, पद्धति और मार्ग में विभेद हो सकता है। विवेकानंद ने अपने संभाषणों में यही कहा। रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में भी लगभग ऐसी ही व्याख्याएं दीं।
कभी-कभी लगता है कि गाँव के अनपढ़ और आधुनिक शिक्षा से दूर कहे जाने वाले लोग धर्माचार्यों और मौलवियों की अपेक्षा धर्म के मर्म को न सिर्फ ज्यादा जानते हैं अपितु उसे जीते भी हैं।
मुझे अपने गाँव का वो अली और बजरंगबली वाला दृष्टान्त याद आ रहा है जब इन दोनों देवों में बँटवारा नहीं हुआ था…। “बात 67-68 की है। मेरे गाँव में बिजली की लाइन खिंच रही थी। तब दस-दस मजदूर एक खंभे को लादकर चलते थे। मेंड़, खाईं, खोह में गढ्ढे खोदकर खड़ा करते। जब ताकत की जरूरत पड़ती तब एक बोलता.. या अलीईईईई.. जवाब में बाँकी मजूर जोर से एक साथ जवाब देते…मदद करें बजरंगबली..और खंभा खड़ा हो जाता।
सभी मजूर एक कैंप में रहते, साझे चूल्हें में एक ही बर्तन पर खाना बनाते। थालियां कम थी तो एक ही थाली में खाते भी थे। जहाँतक याद आता है..एक का मजहर नाम था और एक का मंगल।
वो हमलोग इसलिए जानते थे कि दोनों में जय-बीरू जैसे जुगुलबंदी थी। जब काम पर निकलते तो एक बोलता – चल भई मजहर..दूसरा कहता हाँ भाई मंगल।
अपनी उमर कोई पाँच-छ: साल की रही होगी, बिजली तब गाँव के लिए तिलस्म थी जो साकार होने जा रही थी। यही कौतूहल हम बच्चों को वहां तक खींच ले जाता था। वो लोग अच्छे थे एल्मुनियम के तार के बचे हुए टुकड़े देकर हम लोगों को खुश रखते थे।
उनदिनों हम लोग भी खेलकूद में.. याअली..मदद करें बजरंगबली का नारा लगाते थे और मजाक में एक दूसरे को मजहर-मंगल कहकर बुलाते थे।
उनकी एक ही जाति थी..मजूर और एक ही पूजा पद्धति मजूरी करना। तालाब की मेंड़ के नीचे लगभग महीना भर उनका कैंप था न किसी को हनुमान चालीसा पढ़ते देखा न ही नमाज।
सब एक जैसी चिथड़ी हुई बनियान पहनते थे, पसीना भी एक सा तलतलाके बहता था। खंभे में हाथ दब जाए तो कराह की आवाज़ भी एक सी ही थी। और हां मजहर के लोहू का रंग भी पीला नहीं लाल ही था।
तुलसी बाबा कह गए-
रामसीय मैं सब जगजानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
बाद में गालिब ने इसकी पुष्टि करते हुए ..मौलवियों से पूछा…या वो जगह बाता दे जहाँ खुदा न हो..!
यह अजीब हवा-ए-तरक्की है .सबकुछ बँट गया हाँसिल आया लब्धे शून्य..! इस शून्य की पीठपर सिंहासन धरके किस पर राज करोगे भाई।

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धरती माता को बुखार अरे है कोई सुनने वाला….

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जयराम शुक्ल
धरतीमाता का ताप साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। पिछले साल के मुकाबले इस साल तापमान कुछ और डिग्री ज्यादा रहेगा, मौसम वैज्ञानिकों ने ऐसा अनुमान व्यक्त किया है। अब तो हरीतिमा से ढँके भोपाल का पारा 45 सेल्सियस तक पहुंच जाता है। आज से बीस-पच्चीस साल पहले अमरकंटक और पचमढ़ी में एसी की मशीनें नहीं थीं। इन देसी हिल स्टेशनों में अब बिना एसी गुजारा नहीं। आज वहां जाएं तो झुलस जाएंगे। अमरकंटक की “माई की बगिया” की गुलबकावली वैसे ही झुलसी-झुलसी सी रहती है जैसे गोरे गाल में कोई गरम तवा छुआ दे।

Jay Ram Shukla नौतपा नौदिन का नहीं पूरे अब पूरे अप्रैल मई रहता है। अगले वर्षों से कहीं इसका नाम न बदलना पड़े। इस पूरी गरमी सूरज आग का गोला बना सिर पर ही सवार है। नीचे की जमीन वैसे ही गरम जैसे डोसा सेंकने वाली लोहे की प्लेट। लू-लपट के आगे हीटर ड्रायर फेल। कुलमिलाकर हालत ऐसे जैसे कि भँटा ओवन में सिझता है। गरमी में ऐसे ही कई सिझकर मौत के निवला बन जाते है, इसे हीट स्ट्रोक का नाम दिया गया है अनुपम मिश्रजी कहा करते थे कि धरती माता का बुखार लगातार बढ़ता जा रहा है, साल दर साल। क्या हम तभी सम्हलेंगे जब वह कोमा में पहुँच जाएगी। वे ग्लोबल वार्मिंग को इसी तरह समझाते थे। मनुष्य को जब बुखार आता है तो उसका तापमान बढ़ता है। हमें बुखार क्यों आता है? जब शरीर की प्रतिरोधक क्षमता विषाणुओं के आगे पस्त हो जाती है और हमारे अंग संक्रमित होने लगते हैं। यह संक्रमण मिट्टी- हवा- पानी- भोजन के माध्यम से शरीर तक पहुँचता है।
हम मनुष्य प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए बड़े अस्पतालों में जाते हैं, सर्जरी कराते हैं, दवाइयाँ खाते हैं। हमारी धरती माता इलाज के लिए कहाँ किस अस्पताल में जाए। उसकी कराह कौन सुने? बस हम खुदगर्ज लोग खुदी को बुलंद करने में जिंदगी भर लगे रहते हैं।

धरती माता ने हमें पाला और हम उसे अनाथ असहाय छोड़कर आगे निकल लिए। उसके लिए ईश्वर ने किसी अनाथालय का भी तो इंतजाम नहीं किया।

धरती माता हर युग में संत्रस्त होती आई है। त्रेता में भी ..भूमि विचारी गो तनु धारी गई विरंचि के पासा..। मानस में ये स्तुति आती है..जय जय सुरनायक जनसुख दायक। ब्रह्मा उसकी अर्जी विष्णु के पास रखते हैं। विष्णु जी इसे स्वीकार करते हैं ..तब भै प्रकट कृपाला दीनदयाला बनकर आते हैं।

हमारे पौराणिक आख्यानों के संकेतों को समझिए। बहुत कुछ है उसमें। रामायण को पर्यावरणीय दृष्टि से पढ़िए, समझिए। चित्रकूट के सरभंग आश्रम में जब राम राक्षसों के कुकृत्यों को अपनी आँखों से देखते हैं तभी प्रण करते हैं- निशिचर हीन करहु महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह। धरतीमाता को निशचरों से मुक्ति का संकल्प लेते हैं। और अगस्त्य के आमंत्रण पर इस चुनौती को स्वीकार करते हुए दंडकारण्य की ओर चल पड़ते हैं।

हर चुनौती खतरों से भरी होती है। राम चाहते तो मजे से 14 वर्ष सुरक्षित चित्रकूट में बिता सकते थे। पर उन्हें खरदूषण और त्रिसरा से निपटना था। ये खरदूषण और त्रिसरा कौन..? साम्राज्यवादी रावण के एजेंट धरती माता आज भी ऐसे ही एजेंटों से संत्रस्त है। पौराणिक नामों में भी छिपे हुए गूढार्थों को जानिए। खरदूषण और प्रदूषण। खरदूषण प्रदूषण का प्रतीक जो अपने आका रावण के आदेश पर दंडकारण्य के पर्यावरण का नाश करने में जुटा था। राम पहला काम इन्हीं का संहार करके शुरू करते हैं।
सूपनखा भी ऐसी ही एक प्रतिनिधि है। सीता धरतीमाता की पुत्री सूपनखा अपने विशाल नाखूनों से भूमिजा को नोच लेना चाहती है। लक्ष्मण उसे विरूप बना देते हैं। आज खनन कंपनियां सूपनखाओं की भूमिका में हैं। भूमि व भूमिजा दोनों को अपने विशाल मशीनी पंजों से नोंच रही हैं।

पूँजी हमेशा से प्रकृति की दुश्मन रही है। जहाँ पूँजी का बोलबाला हुआ वहां प्रकृति का नाश समझिए। कोई नगर सोने का कैसे हो सकता है। पर सोने की लंका थी। सोने की लंका वस्तुतः पूँजीवाद की प्रतीक है। राम इस व्यवस्था का नाश करते हैं। वे चाहते तो अयोद्धा से भरत की चतुरंगिणी और जनक की पलटन को बुला सकते थे..। लेकिन नहीं.. उन्होंने प्रकृति के आराधकों की ही सेना जोड़ी। केवट, भील, कोल, किरात उनके सेवादार बने। बंदर, भालु, गिद्ध, गिलहरी ये सब उनकी सेना में।
राम ने शोषितों का सशक्तिकरण किया। उनका, जो वास्तव में पीड़ित थे। रावण की सेना से वैसी ही सेना भिड़ा सकते थे लेकिन नहीं, वे चाहते थे कि पूँजी के खिलाफ प्रकृति की विजय हो। सोने की लंका खाक में मिल गई। पूँजी पर प्रकृति की यह महाविजय थी जिसका नेतृत्व राम ने किया।

रामादल प्रकृति का आराधक था, धरती पुत्र था। धरती माता की वेदना को समझता था इसलिए एक साम्राज्यवादी पूँजीपति से हाँथ मिलाने और उसकी आधीनता को स्वीकार करने की बजाय उससे दो-दो हाथ करना ही यथेष्ठ समझा। धरती माता की इज्जत बच गई। लंका के उस माफिया के कब्जे से भूमिजा सीता को छुड़ा लाए।

कभी हम अपने पौराणिक आख्यानों को इस दृष्टिकोण से भी समझने की कोशिश करें, वहां समस्या है तो उसके समाधान के सूत्र भी हैं। हम यहां समस्या के सूत्रधारों के पाले में खड़े होकर समाधान की गुहार लगा रहे हैं। अब कोई राम नहीं आनेवाले जो वानर भालुओं को जोड़कर प्रकृति की अस्मिता बचाने की जंग छेंड़े। पहले हमें ही तय करना होगा कि हम किस पाले में खड़े हैं। अबकी समस्या ज्यादा विकट है.। धरती माता गाय बनकर अब किस अवतार के लिए गुहार लगाए..यहां तो बस कसाइयों की जमात है जिसने गाय की भाँति धरतीमाता को भी दुहकर असहाय छोड़ना जानती है।

प्रकृति को हम जब तक पश्चिम के नजरिए से देखेंगे कोई हल नहीं निकलने वाला। प्रकृति उनके लिए पर्यावरणीय घटकों का समुच्चय हो सकती है, अपने लिए नहीं। प्रकृति के साथ दैवीय भाव तब से रहा है जब से इस सृष्टि की रचना हुई और जीव में चेतन हुआ। प्रकृति के हर घटक हमारे देवता हैं जिंन्हें हम पंच तत्व कहते हैं। यही पश्चिम के लाए पर्यावरण है।

पूरब और पश्चिम के बीच का द्वंद्व ग्यान और विग्यान के बीच का द्वंद्व है। ग्यान सास्वत है, निरपेक्ष और सार्वभौमिक है। पश्चिम ने अपनी सुविधा के हिसाब से ग्यान को विग्यान में बदल दिया। विग्यान सार्वभौमिक, समावेशी नहीं बल्कि स्वार्थी है।
ग्यान प्रकृति के निकट है उसका वास्तविक पुत्र है और विग्यान प्रकृति का दुश्मन। इसे देवता और दैत्य के कथानक से समझ सकते हैं। दोनों कश्यप की संतानें हैं। उनकी एक पत्नी दिति के पुत्र दैत्य और अदिति के देव। इस तरह दैत्य और देव हैं तो सगे भाई पर स्वभाव एक दूसरे के विपरीत। उसी तरह ग्यान और विग्यान के बीच का रिश्ता।

ग्यान कहता है प्रकृति माँ है वह अन्न देती है, हवा पानी आश्रय देती है, इसके कुशल-क्षेम में ही हमारा भला है। विग्यान कहता है यह वस्तु है, इसकी कोख की संपदा हमारी है, इसका तिल-तिल भोगनीय है। कल की कल देखेंगे आज हमारा है हम आज को भोगें। ग्यान भूत से सबक लेता है, वर्तमान को धन्य मानता है, भविष्य की चिंता करता है। पर आज विग्यान लंकाधिपतियों के पास है और ग्यान अनाथालय में।
प्रकृति के मर्म को ग्यानचक्षु से देखेंगे तो सब समझ में आएगा….लेकिन ग्यानचक्षु में तो भौतिकता का मोतियाबिंद हो गया है। विग्यानचक्षु को धरतीमाता की बुखार और उसकी तड़प वैसे ही महसूस नहीं होगी जैसे रावण को लंका और समूचे कुल के महानाश के संकेत।

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आगामी विधानसभा चुनाव के लिए – शक्ति परिक्षण जारी

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भोपाल: वर्ष 2023 के लिए मध्यप्रदेश में चुनावी सरगर्मी बढ़नी शुरू हो गई है। नये परिसीमन के आदेश के बाद जहां नई पंचायतों का गठन हो रहा है वहीं पंचायत और ग्रामीण स्तर तक राजनैतिक सक्रियता क्रमशः बढ़ती जा रही है। महसूस होता है कि भाजपा इन चुनावों में नये चेहरों का प्रयोग करेगी। संभावना तो यही है कि भाजपा की और से राज्य के नेतृत्व के लिए अनु. जाति, जनजाति का चेहरा भविष्य के लिए प्राथमिकता के आधार पर होगा। दूसरी और कांग्रेस में पुराने चेहरों पर ही चुनाव का दम आधारित कर दिया है। कमलनाथ और दिग्गिविजय सिंह की जोड़ी क्रमशः इस चुनाव में भी कांग्रेस के भाग्य का निर्धारण करेगी। तीसरी उम्मीद आम आदमी पार्टी से है, जो आने वाले चुनाव में प्रदेश भर के सभी राजनैतिक समीकरणों को परिवर्तित करने की कोशिश कर सकती है।

Capture 37मध्यप्रदेश में भाजपा हर स्तर पर राज्य के अंतिम मतदाता तक पहुंचने के लिए शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व पर आतुर है। जितना श्रम सत्ता कर रही है उतना ही श्रम संगठन की और से भी नजर आ रहा है। यदि भाजपा भविष्य के चुनाव में अनु. जाति या जनजाति के किसी उम्मीदवार को सामने रखकर चुनाव लड़ती है तो उसका प्रभाव कही अधिक होगा। भाजपा के पास वरिष्ठ स्तर के नेताओं की कमी नहीं है, जो वर्षो से संगठन के प्रति आस्थावान रहे है। भाजपा इन चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को सामने रखकर भी खेल सकती है। सिंधिया का प्रभाव व्यवहारिक रूप में सिमित है और उन्हें भाजपा का परम्परागत कार्यकर्ता अभी भी पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाया है। परंतु सिंधिया का आभा मंडल और एक आधुनिक युवा होने की छवि भाजपा के विकास की परिभाषा को बल देती है।
दूसरी और कांग्रेस अपने टूटे-फूटे संगठन को सुधारने में लगी है। पिछड़ा वर्ग सम्मेलन के माध्यम से एक नई चेतना लाने की कोशिश की जा रही है। परंतु प्रभावशील नये चेहरे को स्थान देने की जगह इस बार की सक्रियता कमलनाथ की प्रबंधन की राजनीति और दिग्गिविजय सिंह की कूटनीतिक रणनीति को ही मिलना तय माना जा रहा है। कार्यकर्ता आज तक इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया है। देखना है क्या भविष्य मे इसका लाभ कांग्रेस को आम मतदाता के मध्य मिल पाता है।

तीसरी और आम आदमी पार्टी दो राज्यों में सरकार बनाने के बाद अपने कार्यक्रमों के साथ मध्यप्रदेश में पहली बार कदम रखने जा रही है। आम आदमी पार्टी चुनाव जीतेगी नहीं पर मतों के अंतर को कम-ज्यादा करने में उसकी व्यापक भूमिका होगी। दिल्ली और पंजाब के पार्टी के कार्यक्रमों में मध्यप्रदेश के युवाओ के मध्य भी कई प्रश्न खड़े कर लिए है। वस्तुतः आम आदमी पार्टी अब तक राजनीति व्याप्त जमीदारी प्रथा के विरुद्ध जाकर राजनीति का क्षेत्र अति सामान्य युवाओं के लिए खोल रही है। अपने चुनावी घोषणा पत्रों के वायदों पूरा कर रही है, और प्रतिदिन की आम आदमी की परेशानियों से साक्षात्कार कर रही है। आम आदमी पार्टी की राज्य में उपस्थिति कांग्रेस और भाजपा के अब तक चले आ रही समीकरणों को बदलनें में कितनी सफल होती है ये चुनाव परिणाम ही बताएँगे, क्योकि मध्यप्रदेश की जमीन में प्रभावशाली तीसरा राजनैतिक दल पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराने जा रहा है।

मध्यप्रदेश का आगामी चुनाव आम जनता की समस्याओं उम्मीदवारों की लोकप्रियता और युवा, किसान, महिलाओं के प्रतिदिन की परेशानियों पर केन्द्रीत होगा। इस चुनाव के बाद वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव सामने है, इसलिए वर्ष 2023 में होने वाले तीन राज्यों के चुनाव सभी राजनैतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण हो गए है।

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नींबू : कोरोना काल में की सेवा का भगवान ने अच्छा फल दिया

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छोटे से नींबू ने आवश्यकतानुसार अपने को परिवर्तित करके अपने कद को बहुत बड़ा लिया है। पिछले 3 वर्षों में नींबू की बहुत अधिक आवश्यकता थी तब नींबू सहज सुलभ था। नींबू के पेड़ फलों से लदे हुए थे मानो कहना चाह रहे हैं की जहां हमारी आवश्यकता है वहां हम तुरंत उपलब्ध हो जाएं। और जैसे ही आवश्यकता खत्म हो हम अपने आप को समेट लें। करोना काल में की सेवा का भगवान ने बहुत अच्छा फल दिया है। तुम्हारी चर्चा जनसाधारण में हो रही है मीडिया पर भी छा गए हो। नींबू तुम सभी घरों में उछल उछल कर घूम रहे हो पर किसी की हिम्मत नहीं है तुम्हें काटने की।

इन दिनों में तो तुम्हें छील छील पर वस्त्रहीन किया जाता रहा है। रगड़ रगड़ कर तुम्हारा रस निकाल लिया जाता था। आज आम जन की हाथ में लेने की हिम्मत भी नहीं है। विदेशी पेट्रोल देशी नींबू से हारता नजर आ रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि यह चाल है पेट्रोल के दाम से आमजन की नजर हटाने की। तुम्हारे मूल्य के आगे पेट्रोल अपने आप सस्ता लगने लगेगा। वैसे भी देश स्वदेशी पर ध्यान दे रहा है। विदेशी पेट्रोल को देसी नींबू टक्कर दे रहा है यह लोगों को बहुत भा रहा है।

कुछ लोग तुम्हारे पेड़ को घर में नहीं लगाते थे क्योंकि उस में कांटे होते हैं। पड़ोसी की गाली भी सुननी पड़ती थी। आज वही तुम्हें बहुत महत्व दे रहे हैं। जिस घर में नींबू का पेड़ है उस घर को लोग ललचाई नजरों से देख रहे हैं। जिस पड़ोसी के घर तक तुम्हारी डाली गई है। वह तुम्हारी बलैया लेकर तुम्हें बहुत फलने फूलने का आशीर्वाद दे रहा है।
तुम ने सिद्ध कर दिया है जिन्हें हम छोटा समझते हैं उसकी कीमत कब बढ़ जाएगी यह पता नहीं होता। सभी को अपने अपने कर्मों का और सेवा का फल अवश्य मिलता है आज नींबू हम सबको यही समझा रहा है।

नींबू को प्रणाम करते हुए…..

आमगांव महाराष्ट्र: सुनीता महेश मल्ल 

दिग्गिविजय की चाल भारी पड़ी – कांग्रेस को

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सुधीर पाण्डे

भोपाल: मध्यप्रदेश में वर्षो से निष्क्रिय पड़ी हुई कांग्रेस के हाथ अपने आप अचानक एक मुद्दा खरगोन की हिंसक वारदात और उस भाजपा सरकार द्वारा चलाए गये बुल्डोजर के रूप में हाथ में आ गया है। कांग्रेस को स्वयं उम्मीद नहीं थी कि 20 सालों से सत्ता में बैठी भाजपा कानूनी दांव-पेचों और जिनेवा प्रावधानों से इनती अपरिचित होगी, कुछ क्षण के लिए कांग्रेस स्वयं ठहर गई। विपक्षी दल होने के नाते उसे पूरे राज्य में एक आंदोलन खड़ा करना था, पर फिर एक बार कांग्रेस के विरिष्ठ नेता दिग्गिविजय सिंह ने एक फर्जी फोटो लगाकर एक ट्वीट कर दिया। जिसने समूचे मामले को कांग्रेस के पक्ष से समाप्त कर दिया। अब बारी भाजपा की थी सो उसने निष्क्रिय कांग्रेस और उसके नेताओं पर गहरे आघात करने शुरू कर दिये। चर्चा यह चल निकली की दिग्गिविजय द्वारा किया गया ट्वीट कोई गलती थी या जानबूझकर कांग्रेस को मुद्दा विहीन रखने का एक षडयंत्र।

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मध्यप्रदेश में कांग्रेस को कांग्रेस ही हरायेगी, भाजपा की कोई जरूरत है ही नहीं। कितना भी प्रयास कर लिया जाए कांग्रेस संगठन की नासमझी और मुर्खतापूर्ण हरकते मध्यप्रदेश में प्रत्येक दिन कांग्रेस को पीछे ढकेल रही है। खरगोन घटना पर एक समुदाय विशेष की दूकान और मकान तोड़े जाने के बाद यह लग रहा था कि कांग्रेस साम्प्रदायिक एकता को बनाये रखते हुए अपनी वास्तिविक नीतियों को जनता के सामने प्रभावी ढंग से रखेगी और साम्प्रदायिकता के एक नये खेल को उजागर करेगी। परंतु हुआ उसका उल्टा, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्गिविजय सिंह जिन्हें मध्यप्रदेश का चाणक्य कहा जाता है ने खरगोन घटना को लेकर एक ट्वीट किया। जिसमें तथ्य खरगोन के थे और फोटो किसी अन्य राज्य में हुए साम्प्रदायिक उत्पात की थी। इस ट्वीट का आना था और भाजपा ने इसे लपक लिया। वैसे भी दिग्गिविजय सिंह की छवि राज्य में अब जनता से जुडे़ करिश्माई नेता की नहीं है। कांग्रेस का प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि उनकी राजनीति एक निश्चित लक्ष्य को लेकर हो रही है, जिसके लिए उन्हें अभी लम्बे समय तक कांग्रेस को विपक्ष में बनाये रखना है।
क्या यह संभव था कि उड़ती चिड़िया के पर गिन लेने वाले दिग्गिविजय सिंह इतनी बड़ी राजनीति भूक कर बैठे है प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस के हाथ बमुश्किल आया हुआ एक मौका इस तरह निकल जाने देते। इसके पूर्व भी कई बार दिग्गिविजय सिंह ने राजनीतिक घटना को अचानक मोड़ दिया है। इसके लिए उन्होंने कभी आंदोलन का सहारा लिया, कभी बयानों का तो कभी कार्यकताओं के मध्य अपनी बेबाक टिप्पणी का। कमलनाथ सर के बल खड़े हो जाये तो कांग्रेस के दिग्गिविजय सिंह रूपी राजनैतिक संकट से बाहर नहीं निकल सकते। वैसे भी कांग्रेस बहुसंख्यक नेताओं और कार्यकर्ताओं का मानने है कि बिना दिग्गिविजय के कमलनाथ का एक-एक पैर बढ़ा पाना भी नामुमकिन है। इसलिए कमलनाथ को दिग्गिविजय सिंह की सार्वजनिक उपेक्षा झेलनी पडे़ तो भी उन्हें मंजूर है। कांगे्रस इस संकट को एक स्वभाविक रूप दे रही है, परंतु वास्तविकता यह है मध्यप्रदेश में भविष्य की हार की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह तैयार हो रही है कि सिमित ओवर के मैच में पहले ही ओवर में हाथ में आया हुआ कैच दिग्गिविजय सिंह ने अपने हाथों से उझाल कर सीमारेखा के पार छक्के रूप में परिवर्तित कर दिया है। टूटे हुए मनोबल के सहारे कांग्रेस कार्यकर्ता भाजपा के प्रत्येक नेताओं की समीक्षा को सुन और समझ रहा है। उसे यह ज्ञात है कि मैदान में निष्क्रिय रह कर यदि भाग्य के भरोसे पेड़ से कोई फल कांग्रेस के पक्ष में गिर भी पडे तो उसे वरिष्ठ नेता ही कुचल डालेंगे। मुद्दो के अभाव में भटक रही कांग्रेस पिछले दिनों हुए इस घटना क्रम से बूरी तरह परेशान है। कार्यकर्ता को आश्वासन देने के नाम पर और निहित स्वार्थ की इस राजनीति को छिपाने के लिए अलग-अलग विषयों पर कुछ समितियों तक के गठन की घोषणा हुई है परंतु उसका कोई व्यापक प्रभाव राज्य की राजनीति में नहीं पड़ रहा। सही बात तो यह है कि कांग्रेस के पास वर्तमान में एक सक्षम विद्वान और जागरूर प्रवक्ता तक नहीं है जो प्रचार माघ्यमों में छपने वाले या प्रसारित होने वाले तथ्यों को कांग्रेस के पक्ष मे प्रगट कर सके।

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यही होते है राज नेता……

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किसी नगर में में एक बनिया रहता था।वो एक ढाबा चलता था।वहां वह भर पेट भोजन की थाली 30 रूपये में देता था।भोजन बड़ा स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के कारण उसका ढाबा बहुत चलता था। दूर दूर से लोग उसके ढाबे में भोजन करने आते थे। धीरे धीरे चीजों और खाद्य पदार्थों के मूल्य बढ़ने से अब उसे एक थाली 30 रूपये में देना असंभव सा लगने लगा। वह सोचने लगा कि अगर थाली के दाम नही बढ़ाए तो ढाबा नुकसान में चलने लगेगा।वह एक थाली 40 रूपये में बेचना चाह रहा था।परंतु उस नगर के राजा की आज्ञा बिना कोई भी व्यापारी अपनी वस्तुओं की कीमत नही बढ़ा सकता था। इस लिए वो एक दिन समय निकाल कर राजा से इस बाबत मिलने गया।उसने राज दरबार में राजा से मिलने की अनुमति मांगी।राजा की अनुमति मिलने पर वह राजा के समक्ष उपस्थित हो कर उसने राजा को हाथ जोड़ कर और सिर झुका कर नमस्कार किया।राजा ने उसके अभिवादन का उत्तर देते हुए कहा कहिए क्या परेशानी है?

बनिया ने निवेदन किया अन्नदाता में ढाबा चलाता हूं।अन्नदाता की कृपा से अच्छा चल रहा था। परंतु वस्तुओं के महंगे हो जाने से अब एक भोजन की थाली जो में 30 रु में देता था ,वह अब संभव नहीं हो पा रहा।इस लिए भोजन की थाली में अब 40 रु0 की करना चाहता हूं। इसी लिए अन्नदाता के दरबार में उपस्थित हुआ हूं।

राजा ने बनिए से कहा की तुम एक थाली 40 रु0 की नही बल्कि 60 रु0 की करो।बनिया चकित होकर राजा की और देख कर बोला पर महाराज ये तो लोगों के साथ अन्याय होगा सब तरफ हाहाकार मच जाएगा। राजा ने कहा ये काम तुम्हारा नही हमारा है ।हम राजा है।अगर हम हाहाकार रोक नहीं पाए तो हमारा राजा होना बेकार है।तुम वही करो जो हम कह रहे है।बाकी हम पर छोड़ दो।बनिया सिर झुका कर नमन कर के वहां से वापस ढाबे पर आगया। अगले दिन से उसने एक थाली 60 रु0 की कर दी।लोग आश्चर्य में हो कर उससे पूछने लगे अरे एक दम दुगनी कीमत कैसे कर दी? बनिया बोला महंगाई बढ़ गई है अब पहले वाली कीमत में नही पोसाता।नगर में उस ढाबे की चर्चा होने लगी थोड़े ही दिनों में थाली की कीमत को ले कर हाहाकार मच गया।लोग बनिए को गालियां देने लगे।उसे मुनाफाखोर और ना जाने क्या क्या कहने लगे।बनिया राजा की आज्ञा मान सब कुछ सुनता रहा।कुछ दिनों बाद लोग राजा के पास जा कर बनिए की शिकायत करने लगे की कैसे बनिए ने एक थाली की कीमत को दुगना कर दिया।राजा ने क्रोध दिखाते हुए सैनिकों को बनिए को पकड़ कर लाने को कहा।सैनिक बनिए को पकड़ कर राजा के सामने लाए ।राजा ने क्रोध दिखाते हुए बनिए को इतनी कीमत बढ़ने पर फटकारा।और फिर आज्ञा दी की कल से थाली 60रु0की नही 45रु0 की बेचोगे। जनता खुश हो गई।उसने राजा की जय जय कार शुरू कर दी।और सब लोग खुशी खुशी अपने घर चले गए।दरबार में केवल बनिया और राजा ही रह गए।राजा ने कुटिलता पूर्वक मुस्कुराते हुए कहा 2 रूपये प्रतिथली राजकोष में जमा करा के 40 के स्थान मार 43 रु0 प्रति थाली लोगो को दो।

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