सीहोर । बैशाखी पर हुआ जलियांवाला बाग गोलीकांड तो जगजाहिर है, लेकिन उससे छह दशक पहले 14 जनवरी 1858 को सीहोर के सीवन नदी के तट पर अंग्रेजी फौज द्वारा किए गए नरसंहार से आज भी देश अनजान है। सीहोर का गजेटियर जरूर इसके प्रमाण देता है, पर न पाठ्य पुस्तकों में अब तक स्थान मिला और न ही ब्रिटिश हुकूमत से जुड़ी किताबों में इसका कोई जिक्र आया। 356 क्रांतिकारियों का बलिदान आज भी यहां मिट्टी के टीलों में दफन है। जहां स्थानीय लोग आज भी हर वर्ष 14 जनवरी को अमर बालिदानियों को याद कर श्रद्धांजलि देने पहुंचते हैं।
154 वर्ष बाद स्मारक बनाकर फिर भूले
नवाब भोपाल के शासन काल में सीहोर ब्रिटिश सेना की छावनी हुआ करता था। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चहुंओर विद्रोह की चिंगारी सुलग रही थी। जनरल ह्यूरोज ने सीहोर में विद्रोह दबाने की कमान संभाली थी। इसी दौरान उसने अपने सैनिकों से सीवन तट पर चांदमारी में 356 क्रांतिकारियों को न सिर्फ गोलियों से भुनवा दिया, बल्कि उनके शव पेड़ों पर टंगवा दिए थे। नरसंहार के 154 वर्ष बाद 2012 तक तो यहां कोई स्मारक भी नहीं था। जर्जर मिट्टी के टीलेनुमा समाधियां थीं। तात्कालीन राज्यसभा सांसद (स्व.) अनिल माधव दवे ने यहां पक्का स्मारक बनवाया, लेकिन उसके बाद इन बलिदानियों को फिर भुला दिया गया।
अंग्रेज रेजिमेंट को नवाब के खजाने से जाता था वेतन
इतिहासकार ओमदीप के अनुसार 1818 से सीहोर में अंग्रेजों की रेजिमेंट थी। रेजिमेंट के सैनिकों का वेतन भोपाल नवाब के खजाने से दिया जाता था। 1857 में मेरठ की क्रांति से पहले ही सीहोर में क्रांति की चिंगारी सुलग गई थी। तब भोपाल रियासत में अंग्रेजों की सबसे वफादार बेगम सिकंदर जहां का शासन था। मई 1857 में सैनिकों ने विद्रोह कर सीहोर को आजाद कराकर यहां स्वतंत्र सिपाही बहादुर सरकार की स्थापना की थी।
क्रांतिकारियों के शव देखकर खुश होता था ह्यूरोज
क्रांति की खबर मिलने पर जनरल ह्यूरोज बड़ी सेना लेकर सीहोर आया। यहां फिर से कब्जा कर सैनिकों को कैद कर लिया गया। इसके बाद 14 जनवरी को 356 क्रांतिकारियों को जेल से निकालकर चांदमारी मैदान लगाया गया और गोलियों से भून दिया गया। स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि क्रांतिकारियों के शव देखकर ह्यूरोज खुश होता था। दो दिनों तक शव पेड़ों पर लटके रहे फिर ग्रामीणों ने उतारकर उसी मैदान में दफनाया।
पाठ्यपुस्तकों में दर्ज हो इतिहास
शहर के साहित्यकार पंकज सुबीर का कहना है कि देश की आजादी के लिए बलिदान देने वाले बलिदानियों की गाथा को पूरे देश के लोगों को बताया जाना चाहिए। इसके पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। जिस तरह देश के दूसरे शहीदों को सम्मान पूरा देश देता है। वैसा ही सम्मान हमारे बलिदानियों को मिले।