रमेश शर्मा
समान नागरिक आचार संहिता का प्रावधान न केवल भारतीय संविधान के पंथ निरपेक्ष सिद्धांत को सार्थक करने के लिये आवश्यक है अपितु समाज की समृद्धि का आधार महिलाओं के आत्मविश्वास जागरण के लिये भी आवश्यक है । इसके विरोध में अधिकांश वही लोग सामने आते हैं जो अपने समाज और पंथ में महिलाओं के अधिकार सीमित रखना चाहते हैं।
समान नागरिक आचार संहिता को लेकर देश में पुनः बड़ी बहस चल पड़ी है । इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की उस अपील के बाद तेज हुई जिसमें उन्होंने देश की प्रगति और सामाज की समृद्धि केलिये समान नागरिक आचार संहिता को आवश्यक बताया था । देश और समाज विशेषकर महिलाओं के हित के लिये समान नागरिक आचार संहिता की आवश्यकता प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार नहीं बताई अपितु स्वतंत्रता के बाद से यह चर्चा सदैव उठी है । कभी संविधान सभा में तो कभी सभा संगोष्ठियों में और कभी संसद में । किन्तु यह विषय कभी भी निर्णायक विन्दु तक नहीं पहुँच सका । समान नागरिक आचार संहिता के विरोध कर्ता सदैव इस प्रावधान को धार्मिक और सामाजिक स्वतंत्रता से जोड़कर कुछ ऐसा भ्रामक प्रचार करते कि समाज अनिश्चय का वातावरण बन जाता और निर्णायक पक्ष अपने कदम रोक लेता । जबकि वास्तविकता यह है कि समान नागरिक आचार संहिता के प्रावधानों का किसी समाज या पंथ के निजीत्व में कोई हस्तक्षेप नहीं करते अपितु यह समाज के प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति को प्रगति के समान अवसर देते हैं। इन प्रावधानों के बाद उन पंथ, समाज और वर्गों की महिलाओं को आत्मविश्वास पूर्वक आगे बढ़ने के अवसर मिलेगें जिनमें पुरुष अधिकारों की प्रधानता है ।
भारत में दंड संहिता, पुलिस एक्ट, एविडेंस एक्ट और सिविल प्रोसीजर कोड सहित अनेक कानून बिना किसी भेद के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं। केवल विवाह, तलाक, परिवार में विधवा महिला के अधिकार और उत्तराधिकार जैसे कुछ प्रावधानों में अंतर है । भारत के एक प्राँत गोवा में समान नागरिक आचार संहिता प्रभावशील है । वहाँ सभी नागरिकों के समान अधिकार हैं। इसका कारण यह है कि “बाँटो और राज करो” नीति के अंतर्गत अंग्रेजों ने अलगाव के कुछ कानून 1937 के आसपास लागू किये थे जबकि गोवा में पुर्तगाल का शासन था । वहाँ समान नागरिक आचार संहिता लागू थी । जो गोवा के भारत में विलय के बाद यथावत रही ।
भारत के जिस प्राँत गोवा में समान आचार संहिता लागू है वहाँ समाज के सर्वांगीण विकास की गति को सहज समझा जा सकता है जबकि अन्य प्रांतों में सामाजिक और आर्थिक प्रगति की दर की दर से तुलना करके इन प्रावधानों के महत्व को सहज समझा जा सकता है । वस्तुतः परिवार और समाज की प्रगति की धुरी महिलाएँ होतीं हैं। महिला का आत्मविश्वास और सकारात्मकता प्रगति को गति प्रदान करता है । जिस समाज में महिलाओं का आत्मविश्वास विश्वास सीमित होता है अथवा तलाक के बाद अपने भविष्य की असुरक्षा का वोध होता है । उस परिवार की महिलाएँ पूरे आत्मविश्वास के साथ जीवन नहीं जीतीं। इसे हम कुछ अल्पसंख्यक और कुछ जनजातीय समाज की परंपराओं में स्पष्ट देख सकते हैं। इसलिये समान नागरिक आचार संहिता का विरोध करने वाले अल्पसंख्यकों के धार्मिक प्रावधानों और जनजातीय वर्ग में सामाजिक परंपराओं का हवाला देकर विरोध कर रहे हैं । किंतु इसका विरोध करने वाले ये प्रावधान किसी की धार्मिक या सामाजिक पहचान की जीवन शैली में कोई हस्तक्षेप नहीं करती ।
‘समान नागरिक आचार संहिता’ के प्रभावशील हो जाने से प्रत्येक नागरिक पर जो समान प्रावधान लागू होंगे उनमें ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम लागू होगा । इससे जिन वर्गों में निजी सामाजिक प्रावधान का हवाला देकर पुरुष को एक पत्नि रहते हुये और उसकी बिना सहमति के दूसरा विवाह करने की प्रथा समाप्त होगी । इससे ऐसे परिवारों में हीनता की भावना समाप्त होगी । इसके अतिरिक्त महिलाओ में बांझपन या पुरुष की नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ भी सभी को समान रूप से मिलेगा। इसी प्रकार तलाक के नियम भी सबके लिए समान होंगे । ऐसा नहीं होगा कि वातावरण बनाकर केवल मौखिक तरीके से और बिना भरण पोषण की चिंता किये महिला पर तलाक लाद दिया जाय । इसी प्रकार पैतृक संपत्ति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा। विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार होंगे । इसी प्रकार उत्तराधिकार, बंटवारे तथा गोद लेने के नियम भी सब पर एक समान रूप से प्रभावी होंगे। और इन प्रावधानों में जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग प्रावधान हैं। इससे विभेद की मानसिकता को बल मिलता है । इस प्रकार के मामले जब अदालतों में आते हैं तब निर्णय के लिये अलग-अलग विशेषज्ञ की राय लेना होती है। समान नागरिक आचार संहिता लागू होने से न्यायालय को भी सुविधा होगी और समय बचेगा। इससे वे तत्व भी हतोत्साहित होंगे जो घरों में अथवा अपने समाज में महिलाओं का तो मानसिक रूप से दमन करते ही हैं साथ में रूढ़िवाद, कट्टरवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद फैलाकर राष्ट्र की प्रगति को वाधित करते हैं। इस समय जो विरोध के सामने आ रहे हैं इसमें इस प्रकार की मानसिकता वाले तत्वों को सहज देखे जा सकते हैं। चूँकि विरोध के लिये ये तत्व पहली बार सामने नहीं आये इससे पहले भी नकारत्मक और विभाजन कारी तत्वों के समर्थन में देखे गये हैं।
राष्ट्र की प्रगति सदैव सबको समान अधिकार, सम्मान और अवसर से होती है । इस बात की बहुत स्पष्ट व्याख्या डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में की थी । यह विषय संविधान सभा की 23 नवम्बर 1948 को संपन्न बैठक में आया था जिसमें कुल छै सदस्यों ने एक नागरिक आचार संहिता का खुलकर विरोध किया था जबकि बाबा साहब अंबेडकर ने विरोध के तर्कों को तथ्यहीन और प्रगति में वाधक बताया था । उन्होंने विशेषकर महिलाओं को स्वच्छ मानसिक वातावरण के लिये नागरिक संहिता के समान अधिकार की बात कही थी । संविधान सभा का बहुमत यद्यपि समान नागरिक आचार संहिता के पक्ष में था किन्तु विरोध कर्ताओं की भावना का आदर करते हुये इस विषय पर समान वातावरण बनाकर निर्णय लेने का निश्चय करके बात आगे बढ़ गई थी ।
अब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक आचार संहिता का वातावरण बनाने केलिये ही समाज से जागरुक होकर विचार करने का आव्हान किया है ।