चित्तौड़गढ़ जिले के प्रख्यात सांवलिया सेठ मंदिर में भंडार से करीब 58 किलोग्राम अफीम मिली है। किसी भक्त ने अपनी मन्नत पूरी होने पर चढ़ावे के तौर पर इसे मंदिर में चढ़ाया था। साल 1993 के बाद यह भंडार अब जाकर जिला प्रशासन के अधिकारियों की मौजूदगी में खोला गया, जिसमें निकली अफीम को मंदिर प्रशासन ने राज्य सरकार को सुपुर्द कर दिया है।
दरअसल, स्थानीय मान्यता के अनुसार व्यापारी अपने व्यापार में सांवलियाजी को हिस्सेदार बनाते हैं। इसी के चहले नगद राशि या अपनी फसल का हिस्सा उन्हें समर्पित करते हैं। चूंकि चित्तौड़गढ़ और आसपास के इलाके में अफीम की खेती होती है, इसलिए श्रद्धालु इस फसल को भी चढ़ावे के तौर पर चढ़ाते हैं। उप जिला कलेक्टर प्रभा गौतम ने बताया कि स्ट्रांग रूम से 57 किलो 770 ग्राम अफीम निकली। इस अफीम को नारकोटिक्स विभाग को सुपुर्द कर दिया गया है। इसे जीवन रक्षक दवाएं बनाने में काम लिया जाएगा।
हर महीने निकलते है 20 करोड़
मंदिर में फसल हिस्सेदारी के अलावा नकद हिस्सेदारी भी भंडार में चढ़ावे के तौर पर आती हैं। इसमें हर महीने करीब 20 करोड़ रुपए का चढ़ावा आता है। मंदिर प्रशासन ने हाल ही 28 जनवरी को जब नकद भंडार खोला तो 22 करोड़ रुपए का चढ़ावा मिला था।
क्या है मंदिर का इतिहास?
सांवलिया सेठ मंदिर को लेकर यह मान्यता है कि वे भगवान श्री कृष्ण का स्वरूप हैं। सांवलिया सेठ के रूप में भक्त मीरा बाई इनकी पूजा करती थी। तत्कालीन समय में संत-महात्माओं की जमात में मीरा बाई इन मूर्तियों के साथ भ्रमणशील रहती थी। ऐसा कहा जाता है कि जब औरंगजेब की सेना मंदिरों में तोड़-फोड़ कर रही थी, तब मेवाड़ पहुंचने पर मुगल सैनिकों को इन मूर्तियों के बारे में पता लगा। लेकिन, मुगलों के हाथ लगने से पहले ही संत दयाराम ने प्रभु-प्रेरणा से इन मूर्तियों को बागुंड-भादसौड़ा की छापर में एक वट-वृक्ष के नीचे गड्ढा खोदकर पधरा दिया। इसके बाद कालान्तर में साल 1840 मे मंडफिया ग्राम निवासी भोलाराम गुर्जर नामक ग्वाले को सपना आया की भादसोड़ा-बागूंड गांव की सीमा के छापर में भगवान की तीन मूर्तिया जमीन में दबी हुई हैं। उस जगह पर खुदाई की गई तो वहां से एक जैसी तीन मूर्तिया प्रकट हुईं।