Saturday, July 27, 2024
Homeधर्मविचारों की तरंगें

विचारों की तरंगें

राजा की सवारी निकल रही थी। सर्वत्र जय-जयकार हो रही थी। सवारी बाजार के मध्य से गुजर रही थी। राजा की दृष्टि एक व्यापारी पर पड़ी। वह चन्दन का व्यापार करता था। राजा ने व्यापारी को देखा। मन में घृणा और ग्लानि उभर आई। उसने मन ही मन सोचा, 'यह व्यापारी बुरा है। इसे मृत्युदंड दे देना चाहिए।'  
नगर-परिभ्रमण कर राजा महल में पहुंचा। मंत्री को बुलाकर कहा, 'मंत्रीवर! न जाने क्यों उस व्यापारी को देखकर मेरा मन उद्विग्न हो गया और मन में आया कि उसको मार डाला जाए।' मंत्री ने कहा, 'राजन्! मैं सारी व्यवस्था करता हूं।' मंत्री व्यापारी के पास गया। औपचारिक बातें हुई। व्यापारी ने कहा, 'मंत्रीजी! चन्दन का भाव प्रतिदिन कम होता जा रहा है। मेरे पास चन्दन का बहुत संग्रह है। लाखों रूपयों का घाटा हो रहा है। मन चिन्ता से भरा है। राजा के सिवाय चन्दन को कौन खरीदे? राजा भी क्यों खरीदेगा? यह तो मरणवेला में प्रचुर मात्रा में काम आती है। मैं घाटे से दबा जा रहा हूं।  
सच कहूं, आज जब राजा की सवारी निकल रही थी, तब राजा को देखकर मेरे मन में आया कि यदि आज राजा की मृत्यु हो जाए तो मेरा सारा चन्दन बिक जाए, अच्छे मूल्य में बिक जाए।'  
मंत्री ने सुना। राजा के उदास होने और व्यापारी को मृत्युदंड देने की भावना के जागने का रहस्य समझ में आ गया। विचार संप्रमणशील होते हैं। वे बिना कहे दूसरे तक पहुंच जाते हैं। विचारों की रश्मियां होती हैं और तरंगें पूरे आकाशमण्डल में फैल जाती हैं और सम्बन्घित व्यक्ति के मस्तिष्क से टकराकर उसे प्रभावित करती हैं।  

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments