Friday, March 24, 2023
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उत्तरप्रदेश चुनाव: अखिलेश के सियासी चक्रव्यूह में उलझी भाजपा

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनावी रण शुरू हो चुका है। भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस समेत अन्य छोटे-छोटे सियासी दल चुनावी रण में ताल ठोक रहे हैं और अपने-अपने जीत के दावे कर रहे हैं, लेकिन चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा जिस पार्टी की है, वह है समाजवादी पार्टी। जिस खामोशी से सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने चुनावी बिसात बिछाई है, उससे निपटने का विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा को उपाय नहीं सूझ रहा है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जिस जाट वोट बैंक को भाजपा अपना मानकर चल रही है, किसान आंदोलन की वजह से जाट भाजपा से छिटकते नजर आ रहे हैं। रही-सही कसर चौधरी चरण सिंह के पोते और अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने पूरी कर दी है। जयंत राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख हैं और इस वक्त पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसानों और जाटों में उनका खासा प्रभाव है। अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की पार्टियां गठबंधन कर चुनाव लड़ रही हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल में जाट नेताओं के साथ बैठक कर जाट वोट बैंक में सेंध लगाने की रणनीति तैयार की और जयंत चौधरी को भाजपा में आने का न्योता दिया, लेकिन जयंत चौधरी ने इसे पूरी तरह से ठुकरा दिया। अखिलेश यादव ने जहां पश्चिमी उप्र में भाजपा के गढ़ को भेदने के लिए जयंत चौधरी के साथ गठबंधन किया, वहीं वे हर सभा में तीनों कृषि कानूनों, आंदोलन में शहीद 700 से ज्यादा किसानों और गन्ना के भुगतान में देरी का जिक्र कर रहे हैं। साथ ही सभाओं में मंच से किसानों के कल्याण के लिए अन्न संकल्प ले रहे हैं, जिससे किसानों के बीच सपा और रालोद के प्रति सकारात्मक माहौल बन रहा है। पश्चिमी उप्र में विधानसभा की 136 सीटें हैं।

वहीं पूर्वी उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव ने ऐसा जातिगत चक्रव्यूह रचा है कि भाजपा को उसका तोड़ नहीं मिल रहा है। ओपी राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़े जनाधार वाले नेताओं को भाजपा से तोड़कर सपा में शामिल कर अखिेलश यादव पिछड़ा वर्ग के बड़े वोट बैंक को एकजुट कर सपा के पाले में लाने में काफी हद तक सफल नजर आ रहे हैं। अखिलेश यादव योगी राज में पिछड़ों, दलितों पर अत्याचार, बेरोजगारी, किसानों की परेशानी, कोरोना काल में हुई मौतों आदि के मुद्दे उठाकर भाजपा को घेर रहे हैं। दरअसल, भाजपा ने अब से साल भर पहले तक सपा की निष्क्रियता को देखकर मान लिया था कि उसके सामने 2022 में कोई चुनौती नहीं है। उसे राम मंदिर, काशी विश्वनाथ और मथुरा मंदिर के मुद्दे पर चुनाव में ध्रुवीकरण होने की पूरी उम्मीद थी। साथ ही पश्चिमी उप्र में उसे जाटों से आस थी, लेकिन जिस तरह से अखिलेश यादव ने पिछले छह महीने में जिस चतुराई से प्रदेश में चुनावी बिसात बिछाई है, उससे भाजपा सकते में है। अमित शाह से लेकर तमाम भाजपा नेता अब चुनाव को हिंदू-मुस्लिम करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब तक भाजपा को इसमें सफलता नहीं मिली है।

हालांकि यह कहना मुश्किल है कि चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा, लेकिन अखिलेश यादव की चुनावी चालों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक भाजपा के तमाम आला नेताओं की नींद उड़ा रखी है। यह वही भाजपा है, जिसके पास लोकसभा में 300 से ज्यादा सीटें, उप्र विधानसभा में 300 से ज्यादा सीटें, करीब 20 राज्यों में सरकार है, जिसके हाथ में ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स विभाग है, जिसके पास आरएसएस जैसे निष्ठावान कार्यकर्ता हैं, वह भाजपा उस सपा से परेशान है, जिसकी उप्र विधानसभा में 47 सीटें हैं, लोकसभा में 5 सीटें है, किसी राज्य में सरकार नहीं है और जिसके पास एकमात्र अखिलेश यादव नेता हैं। कुल मिलाकर उप्र की चुनावी महाभारत में अखिलेश यादव अभिमन्यु की भूमिका हैं और भाजपा कौरवों की भूमिका में। उप्र का चुनाव परिणाम क्या होगा, यह 10 मार्च को सामने आएगा, लेकिन अखिलेश की सियासी चाल ने चुनाव में रोचक बना दिया है।

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