
मर्यादाओं के जामें से बाहर हो रहा है-संसदीय लोकतंत्र

बाघ दिवस पर; कुछ कहा, कुछ अनकहा
राजाओं ने तो बाघों का वंशनाश ही कर दिया था, वो इंदिरा जी थीं जिन्होंने बचा लिया..
◆ सरगुजा राजा के खाते 1600 बाघों के शिकार का रिकॉर्ड
◆ रीवा के चार राजाओं के खाते में 2700 बाघों का शिकार जिसमें 7 सफेद थे..।
मध्यप्रदेश के सीधी जिले के संजय टाईगर रिजर्व में बस्तुआ गेट के अंदर कोई 7 किमी दूर है बरगड़ी, उसके घने जंगल में बहती है कोरमार नदी, उसके तट पर जिस चट्टान पर मैं बैठा हूँ, उसके नीचे बाघ और भालुओं की मांदों की पूरी श्रृंखला है..। यहीं ठीक मेरे पीठ के पीछे दिखने वाली मांद से विश्व का प्रथम संरक्षित सफेद बाघ मोहन कैद किया गया। मेरी ये तस्वीर सितंबर 2014 की है। यहां मैं ‘ सफेद बाघ की कहानी’ लिखने की गरज से पहुँचा हूँ।
दुनिया को सफेद बाघ का उपहार देने वाला संजय टाइगर रिजर्व एक बार फिर बाघों से आबाद हो रहा है। यह टाइगर रिजर्व बाघों के लिए अभी भी श्रेष्ठ पर्यावास है। कभी यहां बाघों की आबादी विश्वभर में सबसे ज्यादा रही होगी, क्योंकि इसी जंगल के छत्तीसगढ़ वाले हिस्से में 20 सालों के भीतर लगभग 1600 बाघों का वध करके सरगुजा राजा रामानुज शरण देव ने विश्व रेकार्ड बनाया था।
रीवा राज्य के हिस्से में आने वाले जंगल में महाराजा रघुराज सिंह(1850) से लेकर आखिरी महाराजा मार्तण्ड सिंह तक चार महाराजाओं और इनके मेहमानों (शिकार हेतु आमंत्रित अँग्रेज व अन्य मित्र राजे- रजवाड़े- सामंतों) ने मिलकर 2700 बाघ मारे..। ये सारे आँकड़े बांबे जूलाजिकल सोशायटी के रिकार्ड बुक में आज भी है।
तब के राजे महाराजे बाघों के शिकार को अपने पराक्रम के साथ डिग्रियों की भाँति जोड़ते थे व पदवी के साथ इसका उल्लेख करते थे। अँग्रेजों के शासनकाल में गुलाम राजाओं-महाराजाओं का एक ही काम था..अच्छी खासी रकम लेकर विदेशों की टूर एवं ट्रेवल्स एजेंसियों को गेम सेंचुरी तक लाना ताकि लाटसाहब लोग शिकार का आनंद ले सकें, दूसरे बाघों की खाल और उनके सिर की माउंटेड टाफी बेंचना..।
रीवा राज्य के अँग्रेज प्रशासक उल्ड्रिच ने भी सामंतों की तरह बाघों के शिकार का सैकड़ा पार किया। उल्ड्रिच ने परसली के समीप झिरिया के जंगल में एक जवान सफेद बाघ का शिकार किया था। इतिहासकार बेकर साहब ने ‘द टाइगर लेयर-बघेलखण्ड’ में विंध्यक्षेत्र में बाघों व जानवरों के शिकार का दिलचस्प ब्योरा दिया है तथा यहां के राजाओं/सामंतों का मुख्यपेशा ही यही बताया।
पंडित नेहरू को रीवा के महाराज ने एक जवान बाघ के सिर की रक्त रंजित ट्राफी और खाल भेंट की..तो उसे देखकर इंदिरा जी का दिल दहल गया..आँखों में आँसू आ गए.. काश यह आज जंगल में दहाड़ रहा होता..। राजीव गाँधी को लिखे अपने एक पत्र में इंदिरा जी ने यह मार्मिक ब्योरा दिया है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा जी ने वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट समेत वन से जुड़े सभी कड़े कानून संसद से पास करवाए। राष्ट्रीय उद्यान, टाइगर रिजर्व, व अभयारण्य एक के बाद एक अधिसूचित करवाए। आज वन व वन्यजीव जो कुछ भी बचे हैं वह इंदिरा जी के महान संकल्प का परिणाम है।
…..इंदिरा जी का वो मार्मिक पत्र
‘‘हमें तोहफे में एक बड़े बाघ की खाल मिली है. रीवा के महाराजा ने केवल दो महीने पहले इस बाघ का शिकार किया था. खाल, बॉलरूम में पड़ी है. जितनी बार मैं वहां से गुजरती हूं, मुझे गहरी उदासी महसूस होती है. मुझे लगता है कि यहां पड़े होने की जगह यह जंगल में घूम और दहाड़ रहा होता. हमारे बाघ बहुत सुंदर प्राणी हैं….
इंदिरा गांधी
(राजीव गांधी को 7 सितंबर 1956 को लिखे पत्र के अंश)
Jairam Shukla Ke Facebook Wall Se
और इधर खिसकती जमीन पर तने रहने की अदा!
स्थानीय निकाय चुनाव में विन्ध्य महाकोशल और चंबल-ग्वालियर में भारतीय जनता पार्टी की खिसकती हुई जमीन को हमसब देख रहे हैं, बावजूद इसके चुनाव परिणाम के सांख्यिकी आंकड़ों के साथ प्रदेश अध्यक्ष बीडी शर्मा अड़े हैं कि जनता ने उन्हें ऐतिहासिक समर्थन दिया है। इस ‘ऐतिहासिक’ समर्थन से मुदित नेताओं ने बैंडबाजे के साथ एक-दूसरे को को मिठाइयां खिलाईं और पीठ थपथपाई। लेकिन इस चुनाव परिणाम से यदि किसी की पेशानी में चिन्ता की लकीरें हैं तो वे हैं ‘धरतीपकड़’ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। उन्हें जन्नत की हकीकत अच्छे से मालुम है। वे आने-जाने के लिए हवा में उड़ते जरूर हैं लेकिन अभी भी मूलतः हैं पाँव-पाँव वाले भैय्या। सच्चाई स्वीकार न करना समूचे संगठन और उसके विशाल समर्थक वर्ग को दिवास्वप्न या झाँसे में रखने जैसा है और रणनीतिक तौरपर पर खतरनाक भी।
◆आधे मध्यप्रदेश का मूड कुछ यूँ समझिए..
कोई लाख कहे कि स्थानीय निकाय के चुनाव और विधानसभा के चुनाव में मतदाताओं का मूड अलग होता है, लेकिन मैं इससे कभी सहमत नहीं रहा। नेता दोहरे चरित्र के हो सकते हैं मतदाता नहीं। उसका गुस्सा रंग-नस्लभेद से ऊपर रहता है। सो यदि लगभग आधे मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व करने वाले आठ नगरनिगमों में भाजपा को यदि एक में जीत मिलती है तो इसे आगे की सत्ता पर बने रहने के खिलाफ खतरे का अलार्म जो न सुने वह राजनीति का खिलाड़ी नहीं, अनाड़ी है।
केन्द्र व प्रदेश की सत्ता में सबसे ज्यादा रसूख रखने वाले ग्वालियर-चंबल में मतदाताओं का बागी मूड उभरकर आया। अब तक अपराजेय रही ग्वालियर सीट अच्छे खासे अंतर से भाजपा हारी। दिग्गज नेताओं के राजसी रोडशो के रथ को मुरैना के मतदाताओं ने पंचर कर दिया। नगरपालिका और नगरपरिषद के चुनावों में भी कांग्रेस आधेआध से कम नहीं। महाकौशल की जबलपुर, छिन्दवाड़ा, कटनी और विन्ध्य की रीवा, सिंगरौली भाजपा के खिलाफ गई। सतना में बसपा की बदौलत भाजपा की लाज बच गई। महत्वपूर्ण घटनाक्रम प्रदेश की राजनीति में सिंगरौली के जरिए ‘आम आदमी पार्टी’ का प्रवेश है।
अब विधानसभा सीटों की गणित समझ लें। ग्वालियर चंबल में 34, महाकोशल में 45, विन्ध्य (बघेलखण्ड) में 30 सीटों को जोड़ दे तो 109 सीटें बैठती हैं, प्रदेश की 230 सीटों की एक तिहाई से ज्यादा आधे के बराबर है। ये आठ नगरनिगम मतदाताओं के मूड का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकी ये सभी नगर अपने-अपने इलाके के ‘मिनी-कैपिटल’ हैं। राजनीति के रंग-तरंग और लहरें यहीं से पैदा होती हैं।
◆ग्वालियर-चंबल के राजनीतिक दलदल में कमल..
राजमाता-श्रीमंत और महल की राजनीति की पहचान वाला यह इलाका इतना स्वाभिमानी रहा कि दो बार प्रदेश की सत्ता को बदल दिया। पहली बार 1967 में पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र के व्यंगबाणों से आहत विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस की सरकार पलटकर संयुक्त विधायक दल की सरकार बनाई। उनके पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 2020 में उसी घटनाक्रम को दोहराया। फर्क इतना समझें कि राजमाता ‘पावर-हंगर’ नहीं थीं जबकि श्रीमंत ज्योतिरादित्य में सत्ता का हिस्सा बनने की आतुरता थी। वे लोकसभा का चुनाव हार चुके थे और कांग्रेस उन्हें राज्यसभा लायक नहीं मान रही थी। सत्ता में साझेदारी की ललक के चलते समूचा इलाका राजनीतिक दलदल में बदल गया। कांग्रेस के जो नेता भाजपा में गए वे आज भी कांग्रेसी चरित्र जी रहे हैं। भाजपा में ऐसी स्पष्ट गुटबाजी कभी सतह तक नहीं आई। भाजपा का संस्कारी कार्यकर्ता आहत और उपेक्षित है।
ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली मानते हैं कि विधानसभा चुनाव तक स्थितियां और बिगड़ने वाली ही हैं। कांग्रेस से आए विधायकों ने किसी न किसी भाजपा नेता को ही चुनाव में हराया था। टिकट को लेकर घमासान मचेगा। आप देखेंगे कि चुनाव आते तक कई कांग्रेसी सत्ता का मजा भोगने के बाद मूल पार्टी में लौट जाएंगे। जो बचेंगे भी पुराने भाजपाई उनको टिकट मिलना और जीतना दोनों हराम कर देंगे। चंबल-ग्वालियर के मतादाताओं को साधे रखने की कूव्वत अब ज्योतिरादित्य में नहीं बची और भाजपा के पुराने नेता इस स्थिति को ‘पार्टी की नियति’ मानकर में किनारा कर लेंगे।
और हाँ प्रदेश के मंत्रिमण्डल में नाना प्रकार के मंत्रियों में सबसे ज्यादा ग्वालियर-चंबल से ही हैं इनमें से ज्यादातर मंत्री अपने ‘बाबा प्रकार’ के क्रियाकलापों से अक्सर सुर्खियाँ बटोरते रहते हैं।
◆महाकोशल को माटी के मोल मानने की भूल…
एक बार जबलपुर के पत्रकारों ने प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा से पूछा कि प्रदेश सरकार में महाकौशल की उपेक्षा क्यों? किसी को प्रतिनिधित्व लायक नहीं समझा गया? जवाब में शर्मा जी ने कहा- मैं हूँ न, क्या मैं महाकौशल का प्रतिनिधित्व नहीं करता। शर्मा खजुराहो से लोकसभा सदस्य हैं, कटनी के कुछ विधानसभा क्षेत्र इसमें शामिल हैं। कटनी को महाकोशल का हिस्सा मान लिया जाता है..शायद इस नाते शर्मा जी स्वयं को यहाँ का प्रतिनिधि मानते होंगे। बहरहाल यह जवाब उस जबलपुर को मुँह चिढ़ाने वाला ही कहा जा सकता है जो जबलपुर प्रदेश की राजधानी बनने के साँप-सीढी के खेल में जरा सा चूक गया। जो जबलपुर स्वतंत्रता संग्राम का उद्घोष स्थल रहा। जिस जबलपुर को आज भी देश की संस्कारधानी कहा जाता है।
सतत् उपेक्षा के चलते 2018 के चुनाव में महाकोशल ने कांग्रेस का साथ दिया। कमलनाथ मुख्यमंत्री बने और अपनी कैबिनेट में जबलपुर के दो विधायकों को रखकर इसका मान दिया। यही नहीं एक बार यहीं कैबिनेट बैठक करके जबलपुर को राजधानी के बराबर होंने का अहसास दिया। 2020 में जब सत्ता पलटी तो भाजपा सबसे ज्यादा मजाक इसी महाकौशल के साथ किया। जबलपुर को भाजपामय करने के लिए सड़कों पर संघर्ष करने वाले अजय विश्नोई अपनी ही पार्टी में ‘जोकर’ बना दिए गए। उनके ट्वीट पर उन्हीं के पार्टीसाथी मजा लेते हैं। बालाघाट के कद्दावर गौरीशंकर बिसेन को उम्र का हवाला देकर कैबिनेट से बाहर रखा गया।
संस्कारधानी के वरिष्ठ पत्रकार चैतन्य भट्ट कहते हैं कि..भाजपा ने महाकोशल को माटी के मोल समझने की भूल की है, स्थानीय निकाय के चुनाव परिणामों से जो सिलसिला चल निकला है वह विधानसभा चुनाव तक जारी रहने वाला है। डैमेज कंट्रोल के लिए काफी देर हो गई है।
महाकोशल में आदिवासी भी एक फैक्टर हैं गोडवाना गणतंत्र के बाद जयस का भी असर दिखने लगा है। मंडला-डिंडोरी और उससे लगे विन्ध्य के अनूपपुर की विधानसभा सीटों में भाजपा को जो हार मिली उसके पीछे जयस का प्रभाव है..प्रदेश नेतृत्व माने न माने पर ओमप्रकाश धुर्वे ऐसा ही मानते हैं। प्रायः हर कैबिनेट के सदस्य रह चुके धुर्वे को इस बार करारी हार झेलने को मिली थी। जयश्री बनर्जी, दादा परांजपे ने जिस महाकोशल और जबलपुर को भाजपा के मजबूत किले में गढ़कर नई पीढ़ी को सौंपा था उस किले में के कंगूरे पर बैठकर चार बार के सांसद राकेश सिंह के पास अब उसकी दरारें गिनने के अलावा कोई काम नहीं बचा है..। केन्द्र की कैबिनेट का सदस्य बनना उनके प्रारब्ध में नहीं।
◆विन्ध्य: जहाँ सबसे ज्यादा मिला उसी को इत्मिनान से छला
नगरीय चुनाव में विन्ध्य से निकले संदेश को भी यदि भाजपा का प्रदेश नेतृत्व 51परसेंट की वोट सांख्यकी में शामिल करके अपनी ‘ऐतिहासिक जीत’ का डंका पीटे तो इसे हम ‘सावन में अंधे का मजा’ ही कह सकते हैं। रीवा मुद्दतों बाद बमुश्किल कांग्रेस व सोशलिस्टों से छूटकर भाजपा के प्रभाव में आया था। जनता के सीधे वोटों से भाजपा की जीत की शुरुआत 1998 में यहीं से हुई । 2003 में विधानसभा सीट भी कब्जे में आई और अबतक है। नगरनिगम के चुनाव इस मतिभ्रम को तोड़ दिया। यही नहीं.. चुरहट, सीधी से सिंगरौली तक भाजपा एक तरह से साफ है। उधर कबीना मंत्री मीना सिंह का मानपुर और राज्यमंत्री रामखेलावन का अमरपाटन भी सफा है। जिला पंचायत में स्पीकर गिरीश गौतम के सुपुत्र करारे मतों से हारे तो विधायक पंचूलाल की पत्नी भी इसी चुनावी गति को प्राप्त हुईं। शहडोल समेत तीन नगरीनिकाय के चुनाव नहीं हुए लेकिन जहाँ हुए वहाँ से भी भाजपा की जमीन खिसकी।
यह उस विन्ध्य(बघेलखण्ड) की बात है जो आज भी भाजपा की प्रदेश सरकार की रीढ़ है। सत्तापलट के बाद जब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान पहली बार रीवा आए तो उन्होंने जनता के आगे खुद को बिछा दिया यह कहते हुए कि आज मैं जो कुछ हूँ यहां की बदौलत ही हूँ। विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र ने 30 में से 24 सीटें भाजपा की झोली में डालीं। और शायद यही दुर्भाग्य का सबब भी बना। चंबल-ग्वालियर-बुंदेलखंड से प्रायः हर जिलों से एक-एक विधायक जीते और वे मंत्री बने। और विन्ध्य में भाजपा ने जो चेहरा सामने किया सबसे पहले उसी को खंडित कर दिया। जिन राजेन्द्र शुक्ल की अगुवाई में पिछला चुनाव लड़ा गया। उनके गृह जिले रीवा और प्रभार के जिले शहडोल सिंगरौली में भाजपा को शत-प्रतिशत की रिकार्डतोड़ सफलता मिली उन्हें सत्ता में आते ही वेटिंगरूम में बैठा दिया गया। चतुराई के साथ शुक्ल की काट में उमरिया की मीना सिंह को कैबिनेट में रखा गया। आदिवासी चेहरे को महत्व देना अपनी जगह ठीक है लेकिन उसे पूरा इलाका सँभालने का कौशल भी चाहिए। मीना सिंह महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए लंबे अर्से बाद इस चुनाव में तब खबर में आईं जब चुनाव के समय उनकी मोटर से वोटरों को बाँटने की प्रत्याशा में रखे रुपए बरामद हुए। राज्यमंत्री रामखेलावन रामनगर से भोपाल बाया अमरपाटन के दाएं-बाएं कुछ भी नहीं सूझा अबतक। वैसे भी पिछड़ा वर्ग कल्याण जैसा महत्व
हीन विभाग है दूसरे वे अपनी जातीय छवि और सांसद गणेश सिंह की छाया से निकल ही नहीं पाए।
भाजपा की बनी-बनाई विन्ध्य की जमीन को पहले सरकार में साझेदार बनने वाले कुछ बड़े नेताओं ने ‘ ह्वाई राजेन्द्र, ह्वाई नाट यू’ फार्मूला चलाकर बिगाड़ा और जो शेष बचा था प्रदेश संगठन नेतृत्व के फैसलों ने कचरा कर दिया। नगरनिगम के चुनाव में प्रत्याशी चयन की रस्साकशी इसका ताजा उदाहरण है।
अब मूल सवाल यह कि क्या फिर विन्ध्य से भाजपा 2018 वाली उम्मीद कर सकती है..? जवाब नहीं.. तब से अबतक में नर्मदा-सोन-टमस में बहुत पानी बह चुका है। ताजा परिणाम विन्ध्य के आहत स्वाभिमान का प्रकटीकरण है और इतिहास गवाह है कि जब-जब यहाँ की जनभावना को नकारा गया तब-तब ऐसा करने वालों को जवाब मिला।
◆और अंत में
1990 के चुनाव के पहले भाजपा की प्रदेश कर्यसमिति रीवा में बैठी। प्रदेश के सभी दिग्गजों को नसीहत देते हुए ठाकरे जी ने कहा था- इस गुमान में मत रहो कि आगे बढ़े हो..कांग्रेस पीछे हटी है इसलिए भाजपा आगे दिख रही है। ठाकरे जी के इस सूत्र वाक्य फिर सँभालकर रखिएगा।
संपर्क:8225812813
Jairam Shukla Ke Facebook Wall Se
पद से हटने के बाद किस नंबर के नागरिक बन जाते हैं पूर्व राष्ट्रपति..!
राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद का कार्यकाल 24 जुलाई को खत्म हो गया है।
क्या आपको मालूम है कि जो राष्ट्रपति पद पर रहते हुए देश के पहले नागरिक होते हैं, वो रिटायर होने के बाद किस नंबर के नागरिक बन जाते हैं. प्रधानमंत्री किस नंबर के नागरिक होते हैं….और हमारे सांसद, विधायक इस कड़ी में कहां आते हैं.
वैसे आपको बता दें आम जनता को 27वें नंबर का नागरिक माना जाता है.
देश को द्रौपदी मुर्मू के रूप में नया राष्ट्रपति मिल चुका है. उन्होंने चुनावों में यशवंत सिन्हा को हराया. 25 अगस्त को वह कार्यभार ग्रहण कर लिया है . इसके बाद निवर्तमान हो रहे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दिल्ली में उन्हें सरकार से मिले बंगले में चले जाएंगे. क्या आपको मालूम है कि पद से हटने के बाद पूर्व राष्ट्रपति देश में किस नंबर के नागरिक बन जाते हैं.
प्रोटोकॉल के अनुसार देश में 26 तरह के नागरिक होते हैं. ये सभी खास पद पर आसीन लोग होते हैं. गृह मंत्रालय में इसकी सूची बनी हुई है कि देश में किन बड़े पदों पर आसीन लोग किस नंबर के नागरिक हैं. ये हम सभी को मालूम है कि देश का राष्ट्रपति राष्ट्र का पहला नागरिक होता है. लेकिन रिटायर होते ही स्थितियां बदल जाती हैं.
वैसे आपको ये भी बता दें कि देश के आम नागरिक 27वें नंबर पर हैं. उनसे ऊपर देश के उच्च पदासीन या रिटायर हुए लोग होते हैं. इसमें राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और राज्यपाल सभी शामिल होते हैं. रिटायर होने के बाद पूर्व राष्ट्रपति प्रोटोकॉल में 5वें नंबर के नागरिक होते हैं.
देश के पहले नागरिक – राष्ट्रपति, जो अब द्रौपदी मुर्मू होंगी..!
दूसरा नागरिक – देश के उप राष्ट्रपति
तीसरा नागरिक – प्रधानमंत्री, यहां नरेंद्र मोदी देश के तीसरे नंबर के नागरिक हैं
चौथे नागरिक – राज्यपाल (संबंधित राज्यों के)
पांचवें नागरिक– देश के पूर्व राष्ट्रपति (फिलहाल इस स्थिति में पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल हैं और रिटायर होने के बाद रामनाथ कोविंद होंगे)
पांचवें नागरिक (A) – देश के उप प्रधानमंत्री
छठे नागरिक – भारत के मुख्य न्यायधीश और लोकसभा के अध्यक्ष.
सातवें नागरिक – केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, मुख्यमंत्री ( संबंधित राज्यों के), योजना आयोग के उपाध्यक्ष (वर्तमान में नीति आयोग), पूर्व प्रधानमंत्री, राज्यसभा और लोकसभा में विपक्ष के नेता
सातवां (A) – भारत रत्न पुरस्कार विजेता
08वें नागरिक – भारत में मान्यता प्राप्त राजदूत, मुख्यमंत्री (संबंधित राज्यों से बाहर के) गवर्नर्स (अपने संबंधित राज्यों से बाहर के)
09वें नागरिक – सुप्रीम कोर्ट के जज, 9 A – यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (यूपीएससी) के चेयरपर्सन, चीफ इलेक्शन कमिश्नर, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक
10वें नागरिक – राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन, उप मुख्यमंत्री, लोकसभा के डिप्टी स्पीकर, योजना आयोग के सदस्य (वर्तमान में नीति आयोग), राज्यों के मंत्री (सुरक्षा से जुड़े मंत्रालयों के अन्य मंत्री)
11वें नागरिक – अटार्नी जनरल (एजी), कैबिनेट सचिव, उप राज्यपाल (केंद्र शासित प्रदेशों के भी शामिल)
12 वें नागरिक– पूर्ण जनरल या समकक्ष रैंक वाले कर्मचारियों के चीफ
13वें नागरिक – राजदूत
14वें नागरिक – राज्यों के चेयरमैन और राज्य विधानसभा के स्पीकर (सभी राज्य शामिल), हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस (सभी राज्यों की पीठ के जज शामिल)
15वें नागरिक – राज्यों के कैबिनेट मिनिस्टर्स (सभी राज्यों के शामिल), केंद्र शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, दिल्ली के मुख्य कार्यकारी काउंसिलर (सभी केंद्र शासित राज्य) केंद्र के उपमंत्री
16वें नागरिक – लेफ्टिनेंट जनरल या समकक्ष रैंक का पद धारण करने वाले स्टाफ के प्रमुख अधिकारी
17वें नागरिक – अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष, अनुसूचित जाति के राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष, अनुसूचित जनजाति के राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश (उनके संबंधित न्यायालय के बाहर), उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश (उनके संबंधित अधिकार क्षेत्र में)
18वें नागरिक – राज्यों (उनके संबंधित राज्यों के बाहर) में कैबिनेट मंत्री, राज्य विधान मंडलों के सभापति और अध्यक्ष (उनके संबंधित राज्यों के बाहर), एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार आयोग के अध्यक्ष, उप अध्यक्ष और राज्य विधान मंडलों के उपाध्यक्ष (उनके संबंधित राज्यों में), मंत्री राज्य सरकारों (राज्यों में उनके संबंधित राज्यों), केंद्र शासित प्रदेशों के मंत्री और कार्यकारी परिषद, दिल्ली (उनके संबंधित संघ शासित प्रदेशों के भीतर) संघ शासित प्रदेशों में विधान सभा के अध्यक्ष और दिल्ली महानगर परिषद के अध्यक्ष, उनके संबंधित केंद्र शासित प्रदेशों में।
19वें नागरिक – संघ शासित प्रदेशों के मुख्य आयुक्त, उनके संबंधित केंद्र शासित प्रदेशों में राज्यों के उपमंत्री (उनके संबंधित राज्यों में), केंद्र शासित प्रदेशों में विधान सभा के उपाध्यक्ष और मेट्रोपॉलिटन परिषद दिल्ली के उपाध्यक्ष
20वां नागरिक– राज्य विधानसभा के चेयरमैन और डिप्टी चेयरमैन (उनके संबंधित राज्यों के बाहर)
21वां नागरिक – सांसद
22वां नागरिक– राज्यों के डिप्टी मिनिस्टर्स (उनके संबंधित राज्यों के बाहर)
23वां नागरिक– आर्मी कमांडर, वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ और इन्हीं की रैंक के बराबर के अधिकारी, राज्य सरकारों के मुख्य सचिव, (उनके संबंधित राज्यों के बाहर), भाषाई अल्पसंख्यकों के आयुक्त, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आयुक्त, अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य, अनुसूचित जातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग के सदस्य, अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग के सदस्य
24वां नागरिक – उप राज्यपाल रैंक के अधिकारी या इन्हीं के समक्ष अधिकारी
25वें नागरिक – भारत सरकार के अतिरिक्त सचिव
26वें नागरिक – भारत सरकार के संयुक्त सचिव और समकक्ष रैंक के अधिकारी, मेजर जनरल या समकक्ष रैंक के रैंक के अधिकारी
27वें नागरिक – आम लोग
पन्ना की तमन्ना का पर्याय अब हीरा नहीं.. भूख, बेबसी और विस्थापन है
साल विकास संवाद के ओरछा कॉन्क्लेव में जाते हुए पन्ना से गुजरना हुआ। रास्ते में सामने से आती हुई एक के बाद एक बसों को देखकर चौंका। चौंकने की वजह थी, किसी में गुनौर से गुड़गांव तो किसी में पवई से रोहतक लिखा था। कई और बसों से भी वास्ता पड़ा जिनमें हरियाणा और पंजाब के शहरों के नाम लिखे थे। पहले तो ख्याल आया कि संभव है ये बसें पर्यटकों को पन्ना टाइगर रिजर्व लाती ले जाती हों, लेकिन नहीं पर्यटक भला धूलधक्कड़ खाते बसों से क्यों आएंगे। सोचा चलो पन्ना के अपने मित्र यूसुफ बेग (अब स्वर्गीय) से इसकी तस्दीक किए लेते हैं।
रेलगाड़ी पर्यटक नहीं वनवासियों को ढोकर ले जाती हैं
यूसुफ का संगठन टाइगर रिजर्व से विस्थापित किए गए वनवसियों और खदानों में गिट्टी तोड़ने वाले मजदूरों के लिए काम करता है जिसे अब उनकी पत्नी संभालती हैं। यूसुफ भाई ने बताया ये कोई नई बात नहीं है। पिछले दस सालों से ऐसी कोई 13 बसें चल रही हैं जो यहां के वनवसियों को पंजाब हरियाणा ले जाती हैं। वे वहां खेतों और ईंट-भट्ठों में काम करते हैं। इधर जब से खजुराहो नई दिल्ली ट्रेन शुरू हुई है तब से बसों की संख्या कुछ कम हुई है। क्या समझते हैं आप-खजुराहो वाली रेलगाड़ी से कोई पर्यटक आते हैं? ये रेलगाड़ी अब भूखे बुंदेलखंड के वनवसियों को ढोकर दिल्ली ले जाती है। वहां से वे हरियाणा, पंजाब जाते हैं। यूसुफ भाई की बातें आंख खोलने वाली थी।
पन्ना..हीरा नहीं अब भूख, बेबसी, उपेक्षा और दमन का पर्याय
पन्ना का ग्लैमर आपके लिए हीरे से जुड़ा होगा। एक फिल्म का गाना भी है-पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाए..। पन्ना का मतलब शेष दुनिया के लिए हीरा ही है। पर्यटकों के लिए दहाड़ मारते बाघ भी। पर मेरे लिए पन्ना… भूख, बेबसी, लाचारी, उपेक्षा, दमन, सरकारी भ्रष्टाचार शोषण का पर्याय है। ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि 6-7 साल पहले जब सतना के एक अखबार का संपादन कर रहा था तब ये सबकुछ साक्षात देखा। एक बार हीरे पर स्टोरी करने गया। लौटा घास की रोटी खाकर जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रही गुजरतिया की व्यथा लेकर। देवेन्द्रनगर के राजापुर गांव की गुजरतिया की खबर बाद में अन्य अखबारों की भी सुर्खियां बनीं।
बुंदेलखंड पैकेज का प्रोटीन तो इंजीनियर, अफसरों की देह लगा
बुंदेलखंड पिछले दशक सूखे से बेहाल था। केन्द्र सरकार ने अरबों का मोटा पैकेज दिया पर इस पैकेज का प्रोटीन इंन्जीनियरों, अफसरों की देह लगा। कागज में मिट्टी के डैम बने, स्कूटर मोटरसाइकिलों से बालू सीमेंट ढोए गए और भी क्या-क्या न हुआ, मुझसे बेहतर वहां की नेता कुसुम महदेले जानती हैं क्योंकि वे ये सबकुछ खुल के बयान कर चुकी हैं। अपनी कोख में हीरे सहेजे और प्राकृतिक सुषमा से सम्पन्न पन्ना नैसर्गिक विरोधाभास की जीवंत मिसाल है। ऐसी गरीबी शायद ही कहीं देखने को मिले।
वनवासियों की गरीबी का समाजवाद
यहां लगभग 30 फीसदी वनवासी हैं। ये वनवासी सभी जाति के हैं। गरीबी का समाजवाद इन्हें एक किए हुए है। पन्ना के आसपास दूरदराज तक कहीं कोई, उद्यम रोजगार नहीं। ये वनवासी वन संपदा,आंवला-चिरौंजी, महुआ, तेंदू जैसे साधनों से जी लेते थे। पिछले एक दशक में इन पर दोहरी मार पड़ी। सूखे की वजह से खुद की खेती चौपट तो हुई ही बड़े किसानों के खेतों में काम नहीं मिला। इधर पन्ना टाइगर रिजर्व का रकबा उत्तरोत्तर बढ़ता गया। वन्यजीव और पर्यावरण का नया सिद्धांत कहता है कि मनुष्य जिए या मरे जानवर महफूज रहें। युगों से वनवासी जंगल में जानवरों के साथ सह अस्तित्व के साथ रहते आए हैं।
जानवरों का वंशनाश तो शहरियों ने किया
जानवर उनके दुश्मन नहीं सहोदर हैं। बाघ तो बघौत देवता। महुआ का पेड़ भी देवता हैं। वन्यजीवों को कभी इनसे खतरा नहीं रहा। जानवरों का वंशनाश तो शहरियों ने किया है। साहब बहादुरों, सामंतों और राजाओं ने। फिर यही लोग लोकतंत्र के खेवनहार बने। जंगल के कानून बनाए और और वनवसियों को जानवरों के लिए सबसे खतरनाक जन्तु घोषित कर दिया। सो जानवर बचाना है तो इन्हें बेदखल करना होगा। इस तरह इस पन्ना टाइगर रिजर्व से 12 वन्यग्रामों के निवासियों को सरकार ने हांका लगवाकर भगाया।
अनपढ़ वनवासी जमीन के बदले जमीन के लिए नहीं अड़े
मातृभूमि से बेदखली का मोल मुआवजे से तय नहीं हो सकता, मुआवजा तो एक दिलासा है। वन विभाग के अधिकारी तर्क देते थे कि मुआवजे की रकम की ब्याज से ये लोग जिंदगी भर बैठ के खा सकते हैं। यही लोभ काम आया और अनपढ़ वनवासी जमीन के बदले जमीन के लिए नहीं अड़े। मुआवजे की रकम लूटने ऑटोमोबाइल वाले टूट पड़े, गांव-गांव दारू की पैकारी वाले पहुंच गए। साल दो साल में सब कुछ स्वाहा। जिनके हाथ-पांव चलते हैं, वे गुनौर टू गुड़गांव बस में बैठकर ईंट-भट्ठों या खेतों में पहुंच जाते हैं और जो गुजरतिया जैसे असहाय हैं…उनके सामने बस वही..।
पन्ना में नहीं हैं तो यहां के मूल वनवासी
सो पन्ना में हीरा है, हरीतिमा है, बाघ हैं, शुद्व पर्यावरण है, भगवान प्राणनाथ हैं, भगवान जुगुल किशोर हैं, केन के तट पर उस स्विजरलैंड वाले का ट्री हाउस है। यदि पन्ना में नहीं हैं तो यहां के मूल वनवासी। क्योंकि जंगल से खदेड़ दिए गए, क्योंकि अब जमीन नहीं,क्योंकि खेतों में काम नहीं, क्योंकि कोई उद्योग धंधा नहीं। हो सके तो इस क्योंकि का हल निकालिए। यह व्यथा सिर्फ पन्ना के वनवसियों भर की नहीं है। सिंगरौली इलाके में बार-बार विस्थापित होते हुए इनकी कई प्रजातियां विलुप्त हो गई। समाज शास्त्रियों के शब्दों में कहें तो डेमोग्राफिक ट्रांसफॉरमेशन हो गया।
कागजों में रिसॉर्ट के डायरेक्टर हैं लेकिन कप प्लेट धोते हैं !
बांधवगढ़ चले जाइए वहां के वनवसियों की दिलचस्प दास्तां हैं। कई तो महंगे सितारा रिसॉर्ट के डायरेक्टर हैं लेकिन वास्तव में वे वहां कप प्लेट धोते हैं। ये कानूनन जमीन बेच नहीं सकते। सो सेठ लोग अंगूठा लगवाकर साझेदार बना लेते हैं और ये वहीं गुलामी। किनके रिसॉर्ट हैं बांधवगढ़ में, कौन लोग ये सब करवा रहे हैं बताने की ज्यादा जरूरत नहीं..। अनूपपुर, शहडोल हर जगह के वनवासियों की यही विपदा है। मुझे लगता है कि जहां भी वनवासी होंगे उनकी बहुसंख्य आबादी यही झेल रही होगी। जब हम व्यापक पैमाने पर इनकी समस्या पर विमर्श करते हैं तब यहां आकर अटक जाते हैं कि वनवसियों को लेकर सबसे बड़ी समस्या है धर्मांतरण। लेकिन यह क्यों भूलते हैं कि इन तक मिशनरियों को पहुंचने का स्पेस हमारे सिस्टम ने ही दिया है। इस सिस्टम को तोड़िए।
नीतिनियंताओं को इनके बीच बैठाकर समझिए तो..
वनवासी तो हमसे पहले के सनातनी हैं। इनका कुशलक्षेम इनकी संस्कृति, इनकी परंपरा इनकी जीवन शैली में है.. कोई भी हल निकालने से पहले इन्हें एकबार समझने की कोशिश तो करिए, नीतिनियंताओं को इनके बीच बैठाकर।
Jairam Shukla Ke Facebook Wall Se
भाजपा की पराजय- आंखों देखे मक्खी कौन खाता है…?
ना काहू से बैर/राघवेंद्र सिंह
मध्यप्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए पंचायत और नगर सरकारों के चुनाव के नतीजे पर कहां से शुरू करें और कहां खत्म करें बड़ा मुश्किल काम है। नतीजों को देखकर इतना तो तय है भाजपा कार्यकर्ता ने आंखों देखी मक्खी नहीं खाई। हमने पहले ही लिखा था कि इन चुनावों में कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष के पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए पूरा आकाश है। प्रदेश की सभी 16 में से सात हारने वाली नगर निगम पर लंबे समय से भाजपा का राज था। धनबल-बाहुबल और अहंकार से लेकर हर लिहाज से कांग्रेस जमीन पर तो भाजपा आसमान पर थी। प्रत्याशी चयन में पुराने, पार्टी के वफादार और जिताऊ के बजाए युवाओं के नाम पर मनमानी, गुटबाजी की हमें जो रिपोर्ट मिल रही थीं उसके हिसाब से आधा दर्जन नगर निगम पर कांग्रेस जीत सकती है। लेकिन 9 अंक पर सिमट गई।
कहा- सुना जा रहा है कि भाजपा समीक्षा करेगी और जिम्मेदारी भी तय होगी भी करेगी। हार के सदमे को भाजपा जश्ने शिकस्त के अंदाज में मना रही थी कि तभी केंद्रीय नेतृत्व में अजय जामवाल को क्षेत्रीय संगठन महामंत्री की नियुक्ति कर सबको बता दिया है कि यहां जो कुछ गड़बड़झाला चल रहा है उस पर पहले से नजर थी। हर चीज की रिपोर्टिंग हो रही थी। इसलिए कठोर कार्यवाही के लिए तैयार रहें। इस तरह के संदेशों के बाद खुद को खुदा समझने वाले लीडर थोड़ा सा डिफेंसिव है और ‘हार के लिए गले’ खोजने में लग गए हैं।
बगावत को प्रबंधन और कमजोर डैमेज कंट्रोल का हाल यह था कि ग्वालियर मुरैना से लेकर कटनी और जबलपुर रीवा, सिंगरौली, छिंदवाड़ा में भाजपा हार गई। इनमें सबसे खास बात यह है कि जबलपुर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की ससुराल है इसके साथ ही प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राकेश सिंह यहां के सांसद हैं। इसके बाद भी जबलपुर में भाजपा हार गई इस तरह की हार का असर विधानसभा चुनावों में तो देखेगा ही लेकिन लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को उठाना पड़ सकता है। इसी तरह प्रदेश अध्यक्ष शर्मा का गृह क्षेत्र मुरैना और उनके संसदीय क्षेत्र कटनी से भी भाजपा के महापौर प्रत्याशी चुनाव हार गए। हांडी में चावल की तरह देखने पर कटनी में तो गलत प्रत्याशी चयन का सबसे बड़ा उदाहरण है। भाजपा की बागी कार्यकर्ता प्रीति सूरी निर्दलीय खड़ी हुई और वह चुनाव जीत गई। हैरत की बात है कि कोई धुरंदर नेता उन्हें मना नही पाया। अब भाजपा उन्हें पार्टी में लाने की कोशिश कर रही है। जिला भाजपा की बात करें तो भोपाल में गुटबाजी का आलम है की जिलाध्यक्ष सुमित पचौरी का गुट बन गया है। उनके समर्थक प्रत्याशी सबसे ज्यादा जीते हैं इसलिए भोपाल नगर निगम में पचौरी गुट ज्यादा ताकतवर है। सब जगह की यही कहानी है। संगठन स्तर पर ऑडियो ब्रिज, यूथ कनेक्ट, त्रिदेव, पन्ना प्रभारी, पन्ना प्रमुख,मेरा बूथ सबसे मजबूत जैसे नारों की असलियत सबके सामने आ गई। तैयारियां कागजी साबित हुई। संगठन कार्यकर्ताओं को जोड़ने और सक्रिय करने में कमजोर साबित हुआ। प्रत्याशी चयन से लेकर चुनाव संचालन तक पार्टी एक तरफ से विधायकों के पास गिरवी रखी गई थी। जो जीत कर आए हैं उनमें नई क्वालिटी यह है कि वे पार्टी के प्रति कम टिकट दिलाने वालों के प्रति वफादार ज्यादा हैं पहले संगठन मंत्री जिला अध्यक्ष और प्रदेश पदाधिकारी प्रत्याशी चयन करने में मदद करते थे तो उन्हें जिताने के लिए भी मैदान में मेहनत करते नजर आते थे इस बार तो सबको पता है मतदाता पर्चियां तक वितरित नहीं हो पाई। प्रधानमंत्री मोदी का नाम उदयपुर में टेलर मास्टर कन्हैया लाल साहू की हत्या की वजह से भाजपा को अलबत्ता फायदा हुआ वरना हार का यह ग्राफ और नीचे जा सकता था। चुनाव नतीजे को लेकर मशहूर शायर मुनव्वर राणा का एक शेर याद आ रहा है-
बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है,
बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है…
सभी 16 नगर निगमों पर काबिज भाजपा इस बार सिमट कर 9 अंक पर आ गई है लेकिन जानकारी है कहते हैं उज्जैन और बुरहानपुर में आखिरी मौके पर मेहनत ना होती तो शायद भाजपा का यह आंकड़ा सिमट कर सात पर आ जाता। कड़वा है लेकिन सच के पास तो यही है। राजनीतिक विशेषज्ञ भी मानते हैं यदि भाजपा इतनी विसंगति और बदहाली के बाद भी नगर निगम चुनाव में नहीं हारती तो शायद विधानसभा और लोकसभा के चुनाव ज्यादा खतरे में पड़ जाते हैं।
जामवाल की संगठन क्षमता दांव पर.…
क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जामवाल की संगठन क्षमता को पार्टी ने खूब जांचा परखा है। पूर्वोत्तर में उनके कामकाज इसके प्रमाण भी हैं। इसके बाद ही इन्हें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का काम सौंपा गया है। जामवाल का ट्रेक रिकॉर्ड अच्छा लेकिन मध्य प्रदेश संगठन की जो दुरावस्था पिछले लगभग 10 साल में हुई है उसे देखते हुए मंडल स्तर तक समन्वय संवाद , सक्रियता और हाशिए पर धकेले गए पार्टी वफादारों को भरोसे में लेने की जरूरत है। जामवाल की तैनाती उम्मीद की एक किरण के रूप में देखी जा रही है। वर्षांतक आने वाले 5-6 माह काफी महत्वपूर्ण रहने वाले हैं। अगले साल होने वाले विधानसभा और फिर लोकसभा के चुनाव में केंद्रीय नेतृत्व कोई कमजोरी स्वीकार नही कर सकता। सुधार नहीं हुआ तो माना और समझा जाएगा कि आंखों देखी मक्खी खाई जा रही है।
कांग्रेस को तो मनचाही मुराद मिल गई…
नगरी निकाय के चुनाव और पंचायत में मिली बढ़त कांग्रेस के लिए मनचाही मुराद के रूप में देखी जा रही है। कहा तो यही जा रहा था कि बुजुर्ग पीसीसी चीफ कमलनाथ शायद कमजोर साबित होंगे। लेकिन दिग्विजय सिंह की संगठन क्षमता ने कांग्रेस को एक बार फिर मैदान में लगभग बराबरी पर ला खड़ा किया है। उम्मीद की जा रही आने वाले दिनों में प्रदेश कांग्रेस दिग्विजय सिंह के हिसाब से विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति पर काम शुरू कर देगी। कांग्रेस के बड़े मिंया और छोटे की जुगलबंदी भाजपा खेमे में चिंता का सबब बन गई है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी इसी जोड़ी ने भाजपा का भरम दूर करते हुए पटखनी दी थी। सिंधिया शिविर बागी न होता तो नाथ का ही कमल खिल रहा होता…
Raghavendra Singh Ke Facebook Wall Se
विंध्य से सिंगरौली की दस्तक सुनिए..!
जयराम शुक्ल
नगर निगम चुनाव (municipal elections) के पहले चरण में विंध्य ( Vindhya Region) की तीन सीटों में से दो, सिंगरौली (Singrauli) और सतना (Satna) के महापौर (Mayor) का फैसला हो गया है।
इस क्षेत्र की राजनीति के इपीसेंटर कहे जाने वाले रीवा (Rewa) नगर निगम के चुनाव का परिणाम 20 जुलाई को निकलेगा।
इन दोनों परिणामों के बारे में प्रथमदृष्टया कहें तो सतना में बीजेपी को योगेश ताम्रकार (Yogesh Tamrakar) की जीत के लिए कांग्रेस (Congress) के बागी बसपा उम्मीदवार सईद अहमद (Sayeed Ahmed) का अभिनंदन करना चाहिए।
सिंगरौली में बीजेपी संगठन की स्वेच्छाचारिता और सत्ता के दंभ ने ‘आम आदमी पार्टी’ के लिए आगे बढ़कर पथ प्रशस्त किया है।
यहां से रानी अग्रवाल 9 हजार से ज्यादा के सम्मानजनक अंतर से जीतीं हैं। इस तरह मध्यप्रदेश की मुख्यधारा की राजनीति में ‘आप’ के लिए दरवाजा खुले हैं।
◆संघ के गढ़ सतना के संकेतों को ऐसे समझिए
मतगणना के अंतिम परिणाम में बीजेपी के योगेश ताम्रकार को 62975 मत, कांग्रेस के सिद्धार्थ कुशवाहा को 38228 मत और बसपा के सईद अहमद को 26094 मत मिले हैं।
यानी कि बीजेपी यहां 24747 मतों से जीती है। यह संख्या जितनी बड़ी है, उतनी उत्साह जनक नहीं है। वजह कांग्रेस के 38228 में कांग्रेस के बागी और बसपा प्रत्याशी सईद के वोट 26094 जोड़ दिए जाएं तो यह संख्या पहुंचती है 64322। यानी कि बीजेपी को मिले वोट से पौने 2 हजार ज्यादा हैं।
यद्यपि यह भी कहना सही नहीं होगा कि सईद अहमद न लड़ते तो ये पूरे वोट कांग्रेस को मिल ही जाते। लेकिन जीतने के लिए बीजेपी के दांतों पसीना आता और जीत का फासला बमुश्किल हजार-बारह सौ में सिमट जाता। बीजेपी को इस जीत के संकेत समझने होंगे
इस दृष्टि से देखें तो सतना में बीजेपी को इस जीत के लिए कांग्रेस के बागी सईद अहमद का अभिनंदन करना चाहिए। महापौर के पिछले चुनाव में बीजेपी यहां से 28000 मतों से जीती थी। जबकि कांग्रेस से उसका सीधा मुकाबला था।
2018 के विधानसभा चुनाव में सतना जिले की 7 सीटों में कांग्रेस को 2 मिली थीं। फिर रैंगांव उपचुनाव में एक और जुड़ गई।
संकेत यह कि यहां बीजेपी की साइज घट रही है और कांग्रेस नाले से निकलकर नदी तक पहुंचने की ओर अग्रसर है।
कुलमिलाकर इस जीत पर बीजेपी को फूलकर कुप्पा होने की जगह इसके संकेतों को समझने की जरूरत होगी।
◆सिंगरौली को सिंगुर बना देने का खामियाजा तो भुगतना ही होगा..
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने मध्यप्रदेश की राजनीति में जिस सिंगरौली से दस्तक दी है, उसके जियोपॉलिटिकल महत्व पर अभी शायद किसी की नजर नहीं है।
सिंगरौली मध्यप्रदेश का वह भू-भाग है, जहां से उत्तरप्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सीमा लगती हैं। कोयला और बिजली के इस क्षेत्र की आबादी में यूपी, बिहार, बंगाल, उड़ीसा के लोग भी हैं, जो वोट देते हैं।
‘आप’ का यहां से इसलिए भी जीतना उल्लेखनीय हो जाता है।
इस चुनाव का परिणाम कहता है कि यहां अब बीजेपी का वह बुखार उतरने लगा है, जो 2008 में जिला बनाने के साथ ही जनजन में चढ़ गया था।
सिंगरौली को जिला बनाना शिवराज सिंह चौहान का बतौर मुख्यमंत्री एक मास्टर स्ट्रोक था। तब से अब तक हुए विधानसभा- लोकसभा चुनावों में यहां की जनता झोलीफाड़ समर्थन देती आई है।
सिंगरौली को जिला बनाते समय शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि वो इसे सिंगापुर बना देंगे। यथार्थ में हुआ उल्टा सिंगरौली सिंगुर बन गया। वहीं सिंगुर (लुटा-पिटा और पूँजीपतियों द्वारा शोषित) जिसने ममता बनर्जी को राजनीतिक प्राणवायु दिया।
इन 14 वर्षों में सीधी से सिंगरौली की एक अदद सड़क तक चलने लायक नहीं बना पाए और इस बीच सिंगरौली.. अंबानी, अड़ानी, रुइया, बिरला और भी कई छोटे मझोले उद्योगपतियों का भू-वन हड़प साम्राज्य स्थापित हो गया।
◆आप ने पूरे शोध अध्ययन के साथ सिंगरौली को अपना ठिकाना बनाया..
बीजेपी के संगठन की स्वेच्छाचारिता और सत्ता के दंभ ने राजनीति के नए विकल्प के लिए जगह दी। वर्षों तक कांग्रेस से और अब बीजेपी से छले जाने के बाद ‘आम आदमी पार्टी’ ने पूरे शोध अध्ययन के साथ सिंगरौली को अपना ठिकाना बनाया है।
इस नगर निगम चुनाव में 9 हजार से अधिक मतों से विजयी हुईं रानी अग्रवाल की जीत के मायने वैसे नहीं जैसे कि अन्य महापौरों के हैं। यहां की जनता ने कांग्रेस और भाजपा को लगभग बराबरी से तौलकर भी यह संदेश दिया है अब यहाँ की राजनीति में ये दोनों दल एक ही थैली के चट्टे-बट्टे।
Jairam Shukla Ke Facebook Wall Se
सद्गुरु की तलाश में……!
गुरुपूर्णिमा/जयराम शुक्ल
विगत कुछ वर्षों से गुरु पूर्णिमा पर आस्था का प्राकट्य अपनी पराकाष्ठा में देखने को मिलने लगा है। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि अँधेरा जितना ही घना होता है रोशनी की किरण उतनी ही महत्वपूर्ण होती जाती है। भौतिकवादी दौर ने हमारे सनातनी ज्ञान और मूल संस्कृति को ढाँप लिया है। अवचेतन में हम उसी अंधकार से निकलने की चेष्टा करते हैं। पर सही पथप्रदर्शक न होने की वजह से एक गड्ढे से निकलते हैं तो चोहड़े में गिर पड़ते हैं। ऐसे में सद्गुरु की आवश्यकता और भी प्रबल हो जाती है। गुरु तो गली-गली मिल जाएंगे पर सद्गुरु को विवेक के टार्च से तलाशना पड़ता है। गुरुपूर्णिमा इस विवेक के टार्च को प्रज्जवलित करने का अवसर है जो प्रतिवर्ष आता है। जिसे सद्गुरु मिले वे वैसे ही धन्य हो जाते हैं जैसे कि गोस्वामी तुलसीदास..।
ज्ञानशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी के लिए बजरंगबली देवता, ईश्वर नहीं, बल्कि सद्गुरु हैं। गोस्वामी जी कहते हैं-
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।।
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहुँ गुरुदेव की नाईं।।
महाकवि तुलसीदास ने हनुमान जी को गुरु बनाया और उनकी प्रेरणा से रचित ग्रंथों ने उन्हें अजर-अमर कर दिया, तो मैं मानता हूँ कि हनुमानजी महाराज से बड़ा सद्गुरु इस जगत में कोई नहीं..। महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा- कि पंथाः?
जवाब मिला- महाजनों येन गतो सो पंथाः।
यानी कि श्रेष्ठ जन जिस मार्ग पर चलें वही अनुकरणीय- अनुशरणीय है। सो इस जगत में मैं हनुमानजी महाराज से श्रेष्ठ गुरु और किसे मानूँ.. सो अपन ने भी। बजरंगबली को गुरुदेव मान लिया। सत्य यही है कि हनुमानजी कागज-कलम मसिजीवियों के लिए प्रथमेश हैं।
गोसाईं जी जब भी वे अपने गुरु का बखान करते हैं तो समझिये हनुमान जी का ही करते हैं। हनुमान चालीसा का आरंभ.. श्री गुरु चरण सरोज रज..से करते हुए कामना करते हैं और ऐसी ही कामना की प्रेरणा देते है..
सच पूछिये जिंदगी गुरु बिन व्यर्थ है। अध्यापक, शिक्षक, उपदेशक तो हमको हर मोड़, गली, चौरस्ते में मिल जाते हैं पर गुरु नहीं। बात सिर्फ गुरु भर से ही नहीं बनती। कबीर-नानक कहते हैं गुरु नहीं ज्ञान व मुक्ति के लिए सद्गुरु चाहिए। क्योंकि सदगुरू दुर्लभ ही मिलते है, गुरू के वेश में घंटाल ज्यादा।
कभी कभी लगता है कि राम-कथा सद्गुरु और गुरुघंटाल के बीच का भी संग्राम रहा। यानी कि हनुमानजी और रावण के बीच का। पुराणों में रावण को भी तो परमज्ञानी और रक्षसंस्कृति का प्रवर्तक बताया गया है।
एक प्रसंग से मैं अपनी बात प्रारंभ करता हूँ। हनुमानजी लंका जाते हैं तो सबसे पहले लंका की कुलरक्षक देवी लंकिनी को अपनी शिष्या बनाने का काम करते हैं। लंकिनी हनुमानजी से कहती है- तू तो मेरा अहार है कैसे चोरी छुपे घुसा जा रहा है। हनुमानजी जवाब देते है..जगत का सबसे बड़ा चोर तो लंका में रहता है। पराई नारी को छल से हर लाया। तेरा काम यदि लंका की चोरों से रखवाली करनी है तो पहले रावण को ही पकड़ लंकनी भ्रमित हो गई..कि
कौन बड़ा चोर, रावण कि हनुमानजी? गोस्वामी जी कहते हैं-
मुटका एक महाकपि हनी।
रुधिर वमत धरती ढनमनी।।
इस चौपाई को संकेतों में समझिए। भला बजरंगबली के एक मुटके से कोई बच सकता है और वह भी जो राक्षस कुल का है। हनुमानजी ने लंकनी को भौतिक रूप से मुष्टिका प्रहार नहीं किया..वह मुटका ज्ञान का मुटका था। उस मुटके ने लंकनी को लंका के पापों से ‘विरक्त’ कर दिया। विरक्त होने के बाद –
पुनि संभार उठी सो लंका।
जोरि पानि कर विनय सशंका।।
और उसके बाद लंकनी तो मानों परमज्ञानी और भगवद्चरित्र की प्रवाचक ही बन गई। गोसाईं जी ने सुंदरकांड का सबसे खूबसूरत व अर्थवान दोहा लंकनी के खाते में डाल दिया। कौन सा दोहा..
तात स्वर्ग-अपवर्ग हिय
धरी तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि
जो सुख लव सत्संग।।
यानी कि तराजू के पलड़े में सत्संग के सुख के आगे स्वर्ग का सुख पासंग बराबर नहीं है।
बजरंगी बली का वह मुटका ज्ञान का मुटका था, जो लंकनी की पीठ पर नहीं मष्तिष्क पर पड़ा और वह लंका में हो रहे अन्याय.. रावण के धतकरमों से ‘वि-रक्त’ हो गई। सद्गुरु का महात्म्य देखिए कि उससे संस्कारित शिष्य तत्काल ही अपने गुरु को उपदेश देने लगता है शुभेच्छा व्यक्त करने लगता है।
गोसाईं जी ने एक और खूबसूरत चौपाई लंकनी के खाते में डाल दी..और डालें भी क्यों न लंकनी को उन्होंने अपनी गुरुबहन जो मान लिया। तो वो चौपाई है-
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
ह्रदय राखि कौशलपुर राजा।।
गजब की चौपाई है यह। हनुमानजी तो रामकाज के लिए कौशलाधीश भगवान रामचंद्र को ह्रदय में स्थापित करके ही लंका चले थे..जिस लंकनी को उन्होंने संसारसागर से विरक्त कर दिया वही अब उन्हें उपदेश दे रही है।
सद्गुरु की यही असली पहचान है कि उनका शिष्य भी उन्हीं की भाषा बोलने लगे। सो मैंने अपना सद्गुरु हनुमानजी को ही मान लिया। वे मेरे लिए चमत्कारिक देवता या रुद्रांश नहीं हैं मैं उन्हें वैसे ही सद्गुरु के रूप में देखता हूँ जैसे वि-रक्त होने के बाद लंकिनी..।
बजरंगबली परमप्रभु की प्राप्ति विरक्त होने का ज्ञान देते हैं और इधर मनुष्य है कि उसका हर रिश्ता स्वार्थ की रस्सी से बँधाँ होता है। अब तो पिता और पुत्र के बीच में भी यही रिश्ता देखने को मिलता है, दूसरों को क्या कहिए।
दाढी वाले कनफुकवा तोंदियल अपन की समझ में कभी नहीं आए। एक कान में जो मंत्र फूकते हैं वह दूसरे से निकल जाता है। फिर उनके आशीर्वाद का वजन भी भक्त की आर्थिक हैसियत के हिसाब से होता है।
अजकल ऐसे महंत, पंडे भी अपनी महिमा की मार्केटिंग करते हैं। बाकायदा उनकी प्रपोगंडा टीम होती है जो प्रचारित करती है कि ये कितने महान व चमत्कारी हैं। देश और बाजार के कौन कौन जोधा उनके चेले हैं।
ऐसे भी कई गुरू हैं जो औद्योगिक घरानों के बीच अर्बिटेशन का काम करने के लिए जाने जाते हैं।
एक बार एक मित्र एक चमत्कारी संत के यहां ले गए। चुनाव का सीजन था। टिकटार्थी लाइन पर लगे थे। मित्र भी लाइन में लग गए। संतजी भगत के चढावा के हिसाब से पार्षदी से लेकर सांसदी तक की टिकट के लिए मैय्या से विनती करते थे। मित्र के लिए मैय्या से विधायकी की सिफारिश की। अब तक मित्र के उम्र की मैय्यत भी निकल गई टिकट नहीं मिली।
चमत्कारी संत के लगुआ ने बताया कि मेरे मित्र के प्रतिद्वंद्वी ने ज्यादा भक्ति की सो टिकट उसको मिल गई। सो उसी दिन समझ में आ गया कि ..जो ध्यावे फल पावे..का क्या अर्थ होता है।
बहरहाल हर गुरुपूर्णिमा में चाँदी तो इन्हीँ की कटती है। ये अपने अपने विश्वास की बात है..विश्वास जिंदा रहे..धर्म के नाम का धंधा फले फूले। इनकमटैक्स, इनफोर्समेंट की काली छाया इनपर कभी न पडे़। जनता टैक्स पर टैक्स दे देकर इनके दर पर जैकारा मारती रहे। सरकारें आती जाती रहें और आश्रमों का टर्नओवर इसी तरह दिनदूना रात चौगुना बढता रहे।
बचपन में भागवत कथा सुनने जाता था। देवताओं राक्षसों के बीच ढिसुंग-ढिसुंग की कहानियां सुनकर बड़ा मजा आता था। पर जब गुरूबाबा काम, क्रोध, मद, मोह और माया(धन दौलत) त्यागने का उपदेश देने लगते तो बोरियत होने लगती थी।
अपने गांव में देखा गुरूबाबा लालबिम्ब.और जजमान मरियल सा। रहस्य था गुरूबाबा दस दिन देशी घी की हलवा पूरी छानते थे और उनके आदेश पर बपुरा जजमान उपासे कथा सुनता था।
गए साल मित्र के यहां भागवत हुई ।रिश्ता निभाना था सो गया..पता चला मोहमाया, लोभ त्यागने का उपदेश देने वाले पूरे दस लाख के करारनामे में आए थे।
सो ऐसे कई वाकए हैं कि न मेरा शिक्षा में कोई गुरु हुआ, न पेशे में और न ही कनफुकवा मंत्र देने वाला।
मैं तलाशता रहा कि कोई गुरु मिले स्वामी रामानंद जैसा जो कान में यह फूंकते हुए ह्रदय में उतर जाऐ ..कि जाति पाँति पूछे नहि कोय,हरि को भजै सो हरि का होय। रैदास जैसा भी कोई नहीँ मिला जिसके मंत्र ने क्षत्राणी मीरा कृष्ण की दीवानी मीरा बन गई।
कबीर, नानक जैसे सद्गुरु आज के दौर में होते और तकरीर देते तो उनकी मुंडी पर कितने फतवे और धर्मादेश जारी होते हिसाब न
लगा पाते। नेकी कर दरिया में डाल.. जैसा उपदेश देने वाले बाबा फरीद होते तो यह देखकर स्वमेव समाधिस्थ हो जाते कि.. नेकी की सिर्फ़ बातकर, विग्यपन छपा और टीवी में जनसेवा के ढोल बजा।
अपन ने बजरंग बली को गुरु इसलिए बनाया कि भक्तों से उनकी कोई डिमांड नहीं । सिंदूर चमेली का चोला व चने की दाल चढाने वालों दोनों पर बराबर कृपा बरसाते हैं। वे सद्बुद्धि के अध्येता हैं । डरपोक सुग्रीव को राज दिलवा दिया। विभीषण को मति देकर राक्षस नगरी से निकाल लाए व लंकाधिपति बनवा दिया वे । गरीब गुरबों के भगवान हैं । वे लिखने पढने वालों के प्रेरक हैं। वे वास्तव में सद्गुरु हैं।
हनुमत चरित अपने आप में ज्ञान का महासागर है सो साल का हर दिन ही मेरे लिए उनका प्रकटोत्सव है, गुरू पूर्णिमा जैसा है। इसलिए हर दिन उन्हें ही स्मरण करता हूँ कि बजरंगबली सदा सहाय करें।
संपर्कः 8225812813
Jairam Shukla Ke Facebook Wall Se
परिणामों के इंतजार में – सबकी धड़कने बढ़ी।
सुधीर पाण्डे: मतदान पेटियों मे बंद पड़े हुये स्थानीय संस्थाओं के चुनाव परिणाम राजनेताओं और राजनैतिक दलों के धड़कनों को बढ़ा रहे है। यह परिणाम उम्मीदवारों के जीत और हार का फैसला तो करेंगे ही मध्यप्रदेश की राजनीति में विधानसभा चुनाव में वर्चस्व की दावेदारी का भी अंदाजा लगाने में मददगार सिद्ध होंगे। ये चुनाव परिणाम पार्टियों के अंदर बड़े नेताओं की राजनैतिक खेमेबाजी और शीर्ष पुरूषों की मध्यप्रदेश में नेतृत्व की दावेदारी पर भी मोहर लगायेंगे।
स्थानीय संस्थाओं के चुनाव मध्यप्रदेश में कभी इतनी बैचेनी में नहीं रहे, कि राज्य के राजनैतिक परिदृष्य में उनके प्रभाव की परिकल्पना इतने बडे़ पैमाने पर की जाय। इस बार के निर्वाचनों में मध्यप्रदेश जैसा राज्य भविष्य की कई राजनैतिक संभावनाओं और परिवर्तनों का आधार स्थानीय संस्थाओं के चुनाव परिणामों का देख रहा है।
राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृष्य में सभी राजनैतिक दलों में जो वैचारिक और आर्थिक परिवर्तन देखने को मिल रहे है अब मध्यप्रदेश भी उससे अछूता नहीं है। इस वर्ष हुए बुनियादी संस्थाओं के निर्वाचित के बाद राज्य में भी राष्ट्रीय राजनीति की भांति नई पद्धति की राजनीति का प्रवेश होना तय है। खरीद-फरोद और लालच में निष्ठा परिवर्तन की प्रवृति का जैसे मध्यप्रदेश के राजनैतिज्ञ इंतजार कर रहे हैं। इसका सफल प्रयोग 15 महीने की कांग्रेस के पतन के रूप में देखा जा चुका है जिन 28 विधायकों ने सिंधिया के साथ कांग्रेस को छोडा था वे आर्थिक रूप से कही अधिक सम्पन्न हुये हैं और उनका राजनैतिक प्रभाव भी राज्य में कांग्रेस और भाजपा के अन्य विधायकों से ज्यादा अधिक है।
ऐसी संभावना बताई जाती थी कि 28 विधायकों का यह समूह भाजपा में उनके समर्पित कार्यकर्ताओं के मध्य अपना स्थान नहीं बना पायेगा। पर इस धारणा ने गलत साबित होकर यह प्रमाण दे दिया है कि राजनैतिक स्वार्थो की पूर्ति के लिए अपने व्यक्तिगत सम्मान को खोना भी पडे या उसे नये स्परूप में परिवर्तत करना पडे तो भी उससे दुरेज नहीं करना चाहिए और संभवतः यही असली नेता की वर्तमान पहचान बन चुकी हैं ।
चुनाव परिणामों के इंतजार का धड़कन बढ़ाने वाला यह काल खण्ड मध्यप्रदेश की भविष्य की राजनीति को भी अंकुरित करेगा। अभी तक राज्य में अपने राजनैतिक अस्तित्व के संरक्षण के लिए दो ही खेमें थे जो परस्पर विरोधी नजर आते थे। पर अब उन नये खमों ने जन्म लिया है जिनका संक्षिप्त इतिहास आम मतदाता को उनकी और आकर्षित कर रहा है। यह तय है कि इस चुनाव में भाजपा का विजयी होना एक स्वाभाविक घटना होगी कम सीटे जीत पाना संगठन समीक्षा का विषय होगा और हार जाना उसके राजनैतिक अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगायेगा। दूसरी और कांग्रेस अपने नेतृत्व के संकट से और परिकल्पना, योजना के अभाव में जमीनी राजनीति से हटकर जीत की परिकल्पना करने वाले दल के रूप में अपनी स्वयं समीक्षा करेगी।
Sudhir Pandey Ke Facebook Wall Se
चंद्रगुप्तों को अब चाणक्य नहीं चारण चाहिए..!
साँच कहै ता/जयराम शुक्ल
अभी हाल ही में एक राष्ट्रीय सेमीनार(वर्चुअल) में भाग लेने का मौका मिला। विषय था..कुशल प्रशासनिक रणनीति बनाने में अकादमिक योगदान की जरूरत। इत्तेफाकन् मुझे ही मुख्य वक्ता की भूमिका निभानी पड़ी, वजह जिन कुलपति महोदय को उद्घाटन के लिए आना था वे ऐन वक्त पर नहीं आए।
वैसे कुलपतियों के अकादमिक सरोकार बचे ही कहां। बेचारों का पूरा पराक्रम धारा 52 से बचने में ही लगा रहता है। मैंने पढ़ा था कहीं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विश्वविद्यालयों के कुलपति का इतना मान सम्मान होता था कि प्रधानमंत्री उस शहर में जाते तो सबसे पहले कुलपतिजी से ही मिलने पहुंचते। जैसे गणेश जी की अर्चना के बाद सभी कर्मकाण्ड पूरे होते हैं वैसे ही कुलपतियों के सम्मान की स्थिति थी। चांसलर और वाइस चांसलर की अँग्रेजी व्याख्या से उलट कुलपति शब्द की भारतीय अवधारणा के सूत्र वशिष्ठ, संदीपन और द्रोणाचार्य जैसे प्राख्यात कुलगुरुओं के आश्रम से जुड़े हैं जहाँ राम, कृष्ण और अर्जुन जैसे धनुर्धरों ने शिक्षा पाई। सांस्कृतिक रूप से कुलपति शब्द की महत्ता राष्ट्रपति शब्द से किंचित भी कम नहीं।
प्रो. अमरनाथ झा जैसे विद्वान इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति थे, उनका इतना मान सम्मान था कि प्रधानमंत्री भी उनसे समय लेकर मिलते थे। वे पंडित नेहरू को न सिर्फ शैक्षणिक विषयों पर अपितु प्रशासनिक मामलों में अपनी राय देते थे। गलत लगने पर वे नेहरू की नीतियों पर सार्वजनिक टीकाटिप्पणी करने से भी नहीं चूकते। झा साहब बड़ा मान था, विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा की स्थिति यह थी कि हर अभिभावक अपने बच्चे का इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला चाहता था। यह विश्वविद्यालय भारत का आक्सफोर्ड था जहाँ से निकलने वाले छात्र राजनीति, प्रशासन, साहित्य,संस्कृति व अन्य क्षेत्रों में देश का नेतृत्व करते थे। अस्सी के दशक तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए अपने विद्यार्थियों को तैय्यार करने के लिए ख्यातनाम था। प्रयाग के आध्यात्मिक व सांसकृतिक संस्कारों से सिक्त इन मेधावियों की छाप प्रशासन के अलावा भी सार्वजनिक जीवन के विविध क्षेत्रों में देखने को मिलती रही।
आचार्य नरेन्द्र देव जैसे प्रखर समाजवादी चिंतक भी काशी विद्यापीठ व लखनऊ विवि. के कुलपति हुए। वे कांग्रेस व पं. नेहरू के प्रखर आलोचक थे, पर वे विश्वविद्यालय के कुलपति का दायित्व सँभालें यह आग्रह स्वयं पंडित नेहरू ने किया था। आज भी इन्हें के सर्वाधिक सम्मानित कुलपति के तौर पर याद किया जाता है। मध्यप्रदेश के विश्वविद्यालयों की कमान दो ऐसे विद्वानों ने सँभाली जो मुख्यमंत्री भी बने। सागर विश्वविद्यालय के कुलपति पं. द्वारका प्रसाद मिश्र रहे जबकि रीवा के अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति बनने का श्रेय पं. शंभूनाथ शुक्ल को गया। वे विध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी थे। पद्मभूषण पंडित कुंजीलाल दुबे मध्यप्रदेश के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष थे, वे इस पद पर दस साल रहे। नई पीढ़ी को यह जानना चाहिए कि श्री दुबे 1946 में नागपुर विश्विद्यालय के कुलपति बनाए गए थे। शिक्षाविद राजनेता का बड़ा सम्मान था। डा. राधाकृष्णन उच्चकोटि के शिक्षक और दार्शनिक थे, हमारे राष्ट्रपति बने। वह दौर राजनीति में विद्वता की प्रतिष्ठा का स्वर्ण काल था।
जैसा कि नाम से ही प्रकट है विश्विद्यालय माने ऐसे शैक्षणिक संस्थान जहाँ समूचे विश्व की विद्याओं का अध्ययन-अध्यापन हो। विश्वभर के अध्येता पढ़ने आएं। आजादी के बाद शुरू हुए हमारे विश्वविद्यालयों के सामने नालंदा और तक्षशिला दृष्टांन्त रहा होगा। चीनी अध्येता ह्वेनसांग नालंदा के विद्यार्थी रहे हैं। चाणक्य तक्षशिला में पढ़े भी और पढा़या भी। चाणक्य ने अपने शिष्यों को श्रेष्ठ प्रशासक और राजनायिक के रूप में गढ़ा जिन्होंने तीन चौथाई विश्व जीत चुके सिंकदर के पांव भारत में नहीं जमने दिए। सत्ता से स्वयं निरपेक्ष रहते हुए चाणक्य ने भारत को एक गणराज्य के रूप में स्थापित किया। प्रशासनिक रणनीति बनाने में अकादमिक योगदान का चाणक्य-चंद्रगुप्त से बढ़िया शायद ही कोई उदाहरण हो।
राजकाज में अकादमिक योगदान और उसके प्रतिफल देखने के लिए हमें ग्रीक और यूनानी दार्शनिकों, चिंतकों की ओर देखने की जरूरत नहीं। हमारे वैदिक वांग्यमय और पौराणिक आख्यानों में इसके सूत्र बिखरे पड़े हैं। ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की। पालनहार के नाते भगवान विष्णु को आप प्रधानमंत्री मान सकते हैं। उन्हें परामर्श देने के लिए सप्तर्षि मंडल था। ये सप्तर्षि परामर्श के साथ समय समय पर विष्णुजी को सचेत भी करते थे। विष्णुजी ईश्वर थे फिर भी सहिष्णुता की पराकाष्ठा यह ही थी कि छाती में ब्रह्मर्षि भृग के पद प्रहार के बाद भी प्रत्युत्तर में कहते हैं कि विप्रवर आपको चोट तो नहीं लगी क्योंकि कि मेरी छाती बज्र की भांति कठोर है।
आज की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में पदप्रहार तो दूर की बात, वाक्यप्रहार से ही तिलमिलाकर सत्ताएं जीभ खैंचने के लिए तैय्यार रहती हैं। नारद भी विष्णुजी के भक्त और सलाहकार थे। पर विश्वमोहिनी स्वयंवर में लगा कि विष्णुजी ने उनके साथ छल किया तो नारद ने ऐसा भीषण श्राप दिया जिसे राम बनकर उन्हें त्रेता में भोगना पड़ा, पत्नी के वियोग में। विष्णुजी परम पराक्रमी ..जैसा कि नारद ने उलाहना देते हुए कहा..परम सुतंत्र उपर कोउ नाहीं..वे चाहते तो नारद को सृष्टि निकाला दे सकते थे पर नारद की विद्वता व उनकी प्रतिष्ठा में उन्होंने कभी आँच नहीं आने दी।
ऋषियों, देवताओं, ईश्वर के बीच ऐसे वाद, विवाद, संवाद होते रहते थे लेकिन सब परस्पर एकदूसरे के लिए अपरिहार्य थे। स्तुति की जरूरत थी, तो निंदा और आलोचना की भी। सबका महत्व था। आज तो हाल ये कि …सिर्फ करते रहो वंदना, सत्य कहना समझना मना..।
अब तो राज चाहे किसी का हो असहिष्णुता सत्ता का मौलिक चरित्र बनती जा रही है। अपने देश में सन् बहत्तर के बाद से इस प्रवृत्ति को विस्तार ही मिलता गया। स्थिति यह बन गई कि प्रशासन में जो बौद्धिकों का दखल होता था वह मंद पड़ता गया और सलाह की जगह चापलूसी शुरू हो गई।
विश्वविद्यालयों के कुलपति और शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुख योग्यता नहीं वरन चापलूसी के आधार पर तय होने लगे हैं। इसलिए एक जमाना वो था जब प्रधानमंत्री कुलपतिजी से मिलने जाया करते थे और आज का जमाना ये कि कुलपतियों का झुंड मंत्रियों के बँगलों में लाइन लगाए खड़ा है। अपने सूबे के एक उच्च शिक्षा मंत्री थे। वे नवरात्र में भंडारा करवाते थे, एक बार मैं भी उनके अनुष्ठान में पहुंचा और यह देखकर चकित रह गया कि विश्विद्यालयों के कई कुलपति भंडारे में पूड़ी -पंजीरी बांटनें में जुटे थे। शहर में कोई मंत्री आए तो स्वागत के लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बड़ी माला कुलपति महोदय लिए खड़े रहते हैं..क्या करिएगा।
हमारे चरित्र की ये पतनशीलता हमारी ओढी हुई है। ऐसे में यदि अफसोस मानें कि लोकप्रशासन में हमारी योग्यता की कोई पूछ परख नहीं तो ये गलत बात है। हम हर नकल पश्चिम की करते हैं पर अधकचरी। शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में भी नकल कर लें। अमेरिका दुनिया में इसलिये श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास श्रेष्ठ विश्विविद्यालय हैं। चीन इस श्रेष्ठता की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
अपने मध्यप्रदेश की बात करें तो राष्ट्रीय संस्थानों को अलग कर दें तो कोई ऐसे संस्थान नहीं जिनकी रैंकिंग देश में सौ के भीतर हो। देश के पैमाने पर तो दुनिया के श्रेष्ठ सौ संस्थानों में भी कोई नंबर नहीं लगता। यह हाल उस देश का है जो अपने गुरुकुलों, नालंदा, तक्षशिला विश्विद्यालयों की बदौलत विश्वगुरू रहा है।
यह विमर्श का विषय है कि क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था बौद्धिक परंपरा को पनपने नहीं देना चाहती? क्योंकि आमतौर पर यही आरोप लगता है कि राजनीति के बेजा दखल ने शैक्षणिक संस्थाओं का बेडा गर्क किया है।
जनप्रतिनिधियों के चुने जाने का आधार उनकी योग्यता नहीं अपितु ज्यादा से ज्यादा मत अर्जित करने का कौशल है। और यह कौशल जाति, संप्रदाय, बाहुबल, धनबल से आता है। इन्हीँ में से कोई शिक्षामंत्री भी बनता है। नीति नियंताओं में ऐसे ही लोगों का बहुमत होता है। यह भी विचारणीय तथ्य है। पर अमेरिका तो लोकतांत्रिक उदारता की पराकाष्ठा और चीन एक तरह से तानाशाह। पर शिक्षा के क्षेत्र में दोनों तेजी से आगे बढे हैं।
बौद्धिकों और शिक्षाविदों का काम पढाने के अलावा लोकशिक्षण का भी है। हमारे यहां के प्रायः बौद्धिक राजनीतिक धाराओं के पिट्ठू हैं। अब तो हाल यह कि राजनीतिक दलों की पर्चा बुलेटिन बनाने का काम भी यही देखते हैं। चुनावी लोकतंत्र को किसी के हक में कैसे प्रभावित किया जा सकता है हम यह भी लगातार देख रहे हैं। इनके लिए लोकजागरण राजनीतिक एजेंडा सेट करके उसके प्रपोगंडा का भोंपू बन जाना है।
पिछले सालों में ऐसे ही कई प्रदर्शन व अभियान देखने को मिले। जब असहिष्णुता के नाम पर हस्ताक्षर अभियान चलाए गए, अवार्ड वापिस किए गए। यही लोग माओवादियों, अलगाववादियों के मामले में चुप रहते हैं । थियामिन चौक में लोकतंत्र समर्थक छात्रों के नरसंहार को चीन का अंदरुनी मामला बताते हैं और जब कश्मीर में हिंसा भड़काने और जवानों पर पत्थर बरसाने वालों पर जरा सी भी कार्रवाई होती है तो ये चिंहुक उठते हैं। इसके उलट एक दूसरा वर्ग भी है। जो देश की हर मुसीबत की जड़ में सिर्फ मुसलमानों को देखने में जुटा है। दोनों धड़े इतिहास को अपने हिसाब से मथने में भिड़े हैं।
इस तरह प्रायः बौद्धिक खेमेबाजी में बंटे हैं । जो तटस्थ हैं उनकी कोई बखत व अपील नहीं। निजाम कभी अकल को पनाह नहीं देता क्योंकि वह खुद को सबसे ज्यादा अक्लमंद समझता है। वह बौद्धिकों को चाहता तो है पर अपने दरबारी की शक्ल में जो उसके हुक्म का हुक्का भरता रहे।
मध्यकाल में कबीर हुए, इब्राहीम लोधी जैसे निर्दयी और निरंकुश के शासनकाल में। काशी की गलियों में दादू, रैदास जैसे समकालीन बौद्धकों की मंडली लेकर लोकजागरण करते रहे निर्भयता के साथ।इस्लाम के निंदकों को खौलते कड़ाह में तलवा देने वाला इब्राहीम कबीर और उसके अनुयायियों का बाल बांका नहीं कर पाया। जानते हैं क्यों ..वो इसलिये कि लोक की ताकत से बड़ी बड़ी सल्तनतें घबराती हैं बशर्ते उसे जगाने वाला निजी स्वार्थों से निरपेक्ष हो।
तुलसी के प्रायः सभी समकालीनों को अकबर ने अपना दरबारी बना लिया। …माँगकर खाइबो मसीत में सोइबो कहते हुये तुलसी नहीं गए। तुलसी अपने आप में एक आंदोलन बन गए और सनातन मूल्यों की रक्षा की। यह कहना गलत है कि सत्ता का दवाब बुद्धि का गला चपा देता है। यह हम पर निर्भर करता है कि कितना दबते हैं। अब तो हाल यह है कि झुकने का इशारा मिलता है तो हम बिछ जाते हैं।
सवाल ये है कि पहले हम बौद्धिक कहलाने वाले वाले लोग खुद को नाप लें कि कितने पानी में हैं फिर तय करें कि शासन को लोकजयी बनाने की दिशा में क्या कर सकते हैं।
Jairam Shukla Ke Facebook Wall Se