एक हीरा, जिसने कविता, गीत, संवाद और फिल्म निर्माण… हर विधा को किया रोशन

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मुंबई : आपने कई लोग ऐसे देखे होंगे जो किसी एक काम में पारंगत होंगे और उन्हें उस काम का मास्टर कहा जाता होगा। लेकिन अगर कोई एक नहीं कई कामों में पारंगत हो और जिस काम को करे, उसका मास्टर ही लगे तो उसे ‘गुलजार’ कहते हैं। 18 अगस्त 1934 को अब के पाकिस्तान के झेलम के दीना में जन्में संपूर्ण सिंह कालरा एक ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने जिस भी विधा में हाथ डाला उसे गुलजार ही कर दिया। फिर वो चाहें कहानी हो, पटकथा हो, गीत हो, कविता हो या फिर निर्देशन हो। गुलजार ने साहब ने हर काम को बड़ी शिद्दत और लगन से किया है और हर काम में शिखर पर पहुंचकर सफलता हासिल की है। जिंदगी के नौवें दशक में भी वो एक युवा जोश की तरह ही अपने काम को लेकर उत्सुक हैं और उसमें पूरी तन्मयता से लगे हैं।

ये गुलजार ही हैं जो पिछले छह दशक से हर उम्र वर्ग के पसंदीदा बने हुए हैं और आज भी उतने ही रिलेटेबल हैं, जितने 60-70 और 80 के दशक में थे। गुलजार नमक की तरह हैं, जो हर उम्र के लोगों के बीच बड़ी आसानी से घुल जाता है और उसे उसका मनपसंद स्वाद दे जाता है। छह दशक से भी इस लंबे करियर में गुलजार ने स्क्रिप्ट राइटर और स्टोरी राइटर से लेकर गीतकार, निर्देशक और कवि तक अपने अलग-अलग रंग दिखाए हैं। उन्होंने जब कलम पकड़ी है, तो ऐसा जादू ही बिखेरा है, जो हमेशा लोगों को दीवाना बना गया है। फिर उसकी विधा भले कोई भी हो। आज गुलजार उम्र के 91वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी कलम चल रही है और कुछ न कुछ नया गढ़ रही है।

उनके जन्मदिन के मौके पर जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ बातें और उनके अलग-अलग रंगों के बारे में। आपने गुलजार के लिखे हुए गाने तो कई सुने होंगे, लेकिन आज आपको प्रमुख रूप से गुलजार के उस पहलू से मिलवाते हैं, जिसके बारे में लोगों को शायद अधिक न पता हो। क्योंकि इसे गुलजार काफी वक्त पहले पूरी तरह से छोड़ चुके हैं, लेकिन छोड़ने से पहले उन्होंने इस विधा में कई यादगार और सुपरहिट कहानियां दी हैं। आज आपको गुलजार से एक निर्देशक के तौर पर मिलवाते हैं और जानते हैं उनके द्वारा निर्देशित कुछ प्रमुख फिल्मों के बारे में।

गुलजार एक, रंग अनेक

गुलजार एक हैं, लेकिन उनके रंग अनेक हैं। जब वह गाने लिखने बैठते हैं तो पहला ही गाना लिखते हैं- ‘मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दई दे’। जिस बॉलीवुड की दुनिया में गोरे रंग की चमक-दमक ही सबकुछ मायने रखती हो, वहां पहले ही गाने में श्याम रंग की चाहत। जब वो स्क्रीन प्ले लिखते हैं तो ‘आनंद’ जैसी फिल्म सामने आती है। जिसका सार ही ये है कि ‘जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए’। जब वो निर्देशक की कुर्सी पर बैठते हैं तो 'आंधी', 'मौसम' और ‘माचिस’ जैसी फिल्में सामने आती हैं। जहां संवेदनाएं अपने चरम पर हैं और आपके अंदर भावनाओं का एक तूफान सा छोड़ जाती हैं। जब बड़े पर्दे से छोटे पर्दे की ओर रुख करते हैं और टीवी सीरियल बनाते हैं तो ‘मिर्जा गालिब’ जैसे एक शाहकार से मुलाकात होती है। जब उनके अंदर का बच्चा जागता है तो वो कहता है कि ‘जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्ढी पहनकर फूल खिला है।’

‘मेरे अपने’ से निर्देशन की दुनिया में उतरे गुलजार

गीत, स्क्रीन राइटिंग और डायलॉग लिखने के बाद गुलजार ने साल 1971 में निर्देशन की दुनिया में कदम रखा। निर्देशक की कुर्सी पर बैठने के बाद उन्होंने पहली फिल्म बनाई ‘मेरे अपने’। ‘श्याम आए तो उससे कहना कि छेनू आया था।’ ये डायलॉग तो आपने कई बार सुना होगा। ये सुपरहिट डायलॉग गुलजार की ‘मेरे अपने’ का ही है। ये फिल्म एक बूढ़ी विधवा, उसका एक कथित रिश्तेदार और दो युवकों के बीच की कहानी है। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रही थी और इस फिल्म ने विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा के करियर में एक अहम बदलाव लाया था। फिल्म में इन दोनों के अलावा मीना कुमार, देवेन वर्मा, असित सेन, असरानी, डैनी डेन्जोंगपा, कैस्टो मुखर्जी, ए के हंगल, दिनेश ठाकुर, महमूद और योगिता बाली प्रमुख भूमिकाओं में नजर आए हैं।

कॉमेडी ड्रामा ‘परिचय’ और मूक-बधिर की इमोशनल कर देने वाली कहानी ‘कोशिश’

इसके बाद 1972 में गुलजार जितेंद्र, जया भादुड़ी, प्राण और संजीव कुमार स्टारर ‘परिचय’ लेकर आए। इस फिल्म में एक की तलाश करते युवक की कहानी दिखाई गई है। जिसे बाद में पांच बिगड़ैल बच्चों को पढ़ाने की नौकरी मिलती है। ये बच्चे इतने बिगड़ैल हैं कि वो इससे पहले कई टीचर्स को भगा चुके हैं। ये अपने दादा जी राय साहब के साथ रहते हैं, जो समय के बड़े पाबंद हैं। फिल्म की कहानी काफी रोचक है। साथ ही फिल्म रिश्तों और रोजगार के मुद्दे पर भी बात करती है।
इसी साल गुलजार एक मूक-बधिर जोड़े की दिल को झकझोर देने वाली रोमांटिक-ड्रामा फिल्म ‘कोशिश’ भी लेकर आए। इस फिल्म में संजीव कुमार, जया भादुड़ी और असरानी प्रमुख भूमिका में नजर आए हैं। फिल्म में मूक-बधिर कपल हरि चरण और आरती के संघर्ष, उनके दर्द और समाज में अपनी जगह बनाने की उनकी जद्दोजेहद को दिखाया गया है। फिल्म की कहानी काफी भावुक है। कैसे हरि चरण आरती के मरने के बाद अकेले ही अपने बेटे को पालता है और इस दौरान उसे कैसे समाज से भी लड़ना पड़ता है। इस फिल्म के लिए संजीव कुमार को बेस्ट एक्टर का नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। 1972 में आईं ये दोनों फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल रही थीं।

नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले पर बनाई ‘अचानक’

गुलजार ने सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्में भी बनाईं और साथ ही उन्होंने अपनी फिल्मों में सामाजिक मुद्दों को भी उठाया है। उन्होंने 1958 में हुए केएम नानावटी बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले पर फिल्म बनाई थी ‘अचानक’। ये वो ही मामला है, जिस पर बाद में अक्षय कुमार की फिल्म ‘रुस्तम’ बनी हुई है। ‘अचानक’ में विनोद खन्ना प्रमुख भूमिका में नजर आए हैं। इसके अलावा लिली चक्रवर्ती, फरीदा जलाल और असरानी भी प्रमुख किरदारों में हैं। सबसे खास बात कि खुद गीतकार होने के बावजूद गुलजार की इस फिल्म में एक भी गाना नहीं था। इस फिल्म को काफी पसंद किया गया था और कई अवॉर्ड्स में नॉमिनेशन भी मिला था। 

जब इमरजेंसी में गुलजार की ‘आंधी’ पर लगा बैन, ‘मौसम’ में दिखाई भावों की बरसात

साल 1975 में जब देश में इमरजेंसी लगी थी और ‘शोले’ जैसी ऐतिहासिक फिल्म रिलीज हुई थी। उसी साल गुलजार ने दो ऐसी फिल्में बनाईं जो आज भी आपके अंदर भावों का एक समुंदर सा छोड़ जाती हैं। पहले गुलजार संजीव कुमार और सुचित्रा सेन स्टारर ‘आंधी’ लेकर आए। यह एक पॉलिटिकल ड्रामा फिल्म है। जिसमें कई वर्षों के बाद एक अलग हुए कपल की अचानक मुलाकात होती है। जब पत्नी आरती देवी, जो अब एक प्रमुख राजनीतिज्ञ हैं, चुनाव प्रचार के दौरान अपने पति के होटल में ठहरती हैं। इस फिल्म को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन से प्रेरित बताया जाता है। हालांकि, मेकर्स ने इस बात से इंकार किया था, लेकिन फिल्म में सुचित्रा सेन का लुक काफी हद तक इंदिरा गांधी और तारकेश्वरी सिन्हा से प्रेरित था। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही थी। इसे बॉलीवुड की एक कल्ट फिल्मों में गिना जाता है। इमोशंस से भरपूर ये रोमांटिक-पॉलिटिकल ड्रामा है, जिसे इमरजेंसी के वक्त बैन भी किया गया था।
इसी साल गुलजार एक और फिल्म लेकर आए ‘मौसम’, यह एक म्यूजिकल रोमांटिक फिल्म है। इस फिल्म में एक बार फिर गुलजार भावों का समुंदर लेकर आए। संजीव कुमार और शर्मिला टैगोर स्टारर यह फिल्म बॉक्स पर सफल रही थी और इसे सेकेंड बेस्ट फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। इसके अलावा बेस्ट फिल्म और बेस्ट डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी ‘मौसम’ ने हासिल किया था। 

‘अंगूर’ जैसी कल्ट-कॉमेडी फिल्म भी बनाई

‘आंधी’, ‘कोशिश’, ‘किनारा’ और ‘लेकिन’ जैसी इमोशनल फिल्में बनाने वाले गुलजार ने ‘अंगूर’ जैसी कल्ट कॉमेडी फिल्म भी बनाई है। ‘अंगूर’ शेक्सपियर के ‘कॉमेडी ऑफ इरर’ पर आधारित है। जिसमें बचपन में खोए हुए चार जुड़वां बच्चों की कहानी है। जिनमें दो एक जैसी शकल के हैं और दो एक जैसी। फिल्म में संजीव कुमार, देवेन वर्मा, मौसमी चटर्जी और दीप्ति नवल प्रमुख भूमिकाओं में नजर आए हैं। 1982 में ऐसी कॉमेडी फिल्म आम बात नहीं थी। लेकिन गुलजार ने इसे लेकर आए और ये कल्ट कॉमेडी फिल्म बन गई। हालांकि, बाद में इसी तर्ज पर कुछ एक और भी फिल्में बनीं, जिनमें 1968 में आई ‘दो दूनी चार’ और रोहित शेट्टी की ‘सर्कस’ प्रमुख रूप से शामिल हैं। लेकिन ये कोई फिल्में वो सफलता हासिल नहीं कर पाईं, जो गुलजार की ‘अंगूर’ ने की थी।

अपने समय से काफी आगे थी ‘नमकीन’

गुलजार ने सामाजिक मुद्दों को अपनी फिल्मों में बड़ी ही खूबसूरती से उतारा है। 1982 में आई ‘नमकीन’ में भी गुलजार ने यही किया है और महिलाओं के से जुड़े एक ज्वलंत मुद्दे को फिल्म में दिखाया है। ऐसा कहा जाता है कि ‘नमकीन’ अपने समय से आगे की फिल्म थी। फिल्म को क्रिटिकली काफी तारीफें मिलीं और नेशनल अवॉर्ड समेत फिल्मफेयर अवॉर्ड में भी ‘नमकीन’ छाई रही। फिल्म में तीन अविवाहित बहनों की कहानी है, जो अपनी बूढ़ी मां के साथ हिमाचल प्रदेश के एक गांव में रहती हैं, जो नौटंकी में डांस करने वाली एक महिला रह चुकी है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे नौटंकी में डांस करने वाली महिला और उसकी बेटियों को समाज किस तरह से देखता है और उनसे कैसा व्यवहार करता है। फिल्म में शबाना आजमी, शर्मिला टैगोर, वहीदा रहमान, किरण विरले और संजीव कुमार प्रमुख भूमिकाओं में नजर आए हैं।
इसी तरह से 1988 में आई फिल्म ‘लिबास’ में गुलजार ने उस वक्त एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर का मुद्दा उठाया था। इस फिल्म में शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह और राज बब्बर प्रमुख भूमिकाओं में नजर आए हैं। 

‘हु तू तू’ के बाद बना ली निर्देशन से दूरी

साल 1996 में गुलजार ‘माचिस’ फिल्म लेकर आए। जिसे आतंकवाद की कहानी दिखाई गई। फिल्म आतंकवादियों के एक दूसरे पहलू को भी दिखाया गया। इसके बाद साल 1999 में आई फिल्म ‘हुतूतू’ के बाद गुलजार ने निर्देशन से पूरी तरह से दूरी बना ली। ‘हु तू तू’ एक पॉलिटिकल ड्रामा फिल्म है। यह फिल्म राजनीति में भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करती है। फिल्म सुनील शेट्टी, नाना पाटेकर और तब्बू प्रमुख भूमिकाओं में नजर आए हैं।