ज्वलंत/जयराम शुक्ल
मध्यप्रदेश के दिग्गज राजनेता श्री निवास तिवारी ने एक बार कहा था- चुनावी लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक पहले एक वोटर है, इसके पश्चात ही अपराधी या हरिश्चंद्र का औतार। एक बड़े पत्रकार ने उनसे पूछा था कि आप पर अपराधियों को प्रश्रय देने के आरोप क्यों लगते हैं? तिवारी जी ने जवाब दिया- मैं अपने वोटर को प्रश्रय देता हूँ, हो सकता है वह आपको अपराधी लगे। और हाँ जिन्हें आप अपराधी कहते हैं जिसदिन उनका मताधिकार छिन जाएगा उस दिन से मैं उनकी ओर देखूंगा भी नहीं। उन्होंने उस पत्रकार से पलटकर पूछा- वोट की संख्या में आप क्या यह विभेद कर सकते हैं, कि इतने वोट अपराधियों के हैं और इतने ईमानदारों के..? उस पत्रकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था, मेरे पास भी नहीं.. और शायद आपके पास भी नहीं होगा ऐसा मेरा मानना है। राजनीति के अपराधीकरण को समझने के लिए इससे बेहतर प्रश्न और उत्तर नहीं हो सकते।
श्रीनिवास तिवारी साफगो नेता थे, खरी-खरी तार्किक बातें करने वाले। वे जो अँधेरे में थे वही उजाले में, आज के प्रायः नेताओं की भाँति कंबल ओढ़कर घी/दारू पीने वालों से अलग जमात के नेता ।
राजनीति के अपराधीकरण/ महंतीकरण को हाल ही की कुछेक घटनाओं के बरक्स विवेचना करने की कोशिश करते हैं, कि चुनावी लोकतंत्र में यह नासूर कितने गहरे तक है।
चलिए हम रीवा की ही वह चर्चित घटना लेते हैं जिसमें एक युवा महंत ने राजनिवास (विन्ध्यप्रदेश के समय का गवर्नर हाउस) में झाँसा देकर बुलाई गई एक तरुणी के साथ दुष्कर्म किया। उसे प्रश्रय देने के आरोप में गंभीर आपराधिक इतिहास वाले एक बाहुबली को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और उसका काम्प्लेक्स ढहाया गया।
महंत और उसके आश्रयदाता से जुड़े मसलों को देखें तो दोनों ही राजनीति में अंदर तक धँसे थे। महंत एक ऐसे महामंडलेश्वर के संरक्षण में धर्मध्वजा फहरा रहा था जो रामजन्मभूमि आंदोलन के बड़े नेताओं में से एक थे और दो बार निर्वाचित होकर लोकसभा जा चुके हैं। दुष्कर्म के आरोपी युवा महंत की जो तस्वीरें आईं उनमें एक में वे प्रदेश के गृहमंत्री का रामचरित मानस व शाल श्रीफल और पुष्पहार से अभिनंदन कर रहे थे। दूसरी तस्वीर में वे प्रदेश के स्पीकर पर आशीर्वाद वर्षा रहे थे।
दुष्कर्मी युवा महंत के कृपा पात्रों में कुछ आईएएस, आईपीएस भी थे जिनकी तस्वीरें सामने आईं। आप कह सकते हैं कि इन महापुरुषों को यह नहीं मालूम था कि महंत के वेश वाले इस युवा की असलियत का जल्दी ही कालिनेम की भाँति पर्दाफाश होने वाला है।
लेकिन इस बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं कि हमारे नेता अपने पुरुषार्थ की बजाय साधू-संतों के और तांत्रिक चमत्कारों पर ज्यादा विश्वास करते हैं। इन्हें अपनी राजनीति के उत्थान में सहायक मानते हैं। इनके लिए जनता-जनार्दन बस महज एक नारा है, असली जनार्दन यही ढ़ोंगी और पाखंडी लोग हैं।
अभी जब पंजाब में चुनाव चल रहे थे, उसी बीच अखबार में एक खबर पढ़ी, कि रामरहीम को जेल से कुछ दिनों के लिए पेरोल पर रिहा किया गया है। पेरोल की टाइमिंग इसलिए मायने रखती है क्योंकि रामरहीम का डेरा सच्चा सौदा अभी भी अस्तित्व में है, उनके शिष्यमंडली की संख्या ज्यादा कम नहीं हुई है।
जेल जाने के पहले तक हरियाणा और पंजाब की कई विधानसभा सीटों की हार-जीत का निपटारा डेरे के फरमान से होता था। यह फरमान लगभग वैसे ही होता था जैसे कि जामा मस्जिद से, देवबंद या बरेली से फतवे जारी होते हैं। रामरहीम के मामले में आप कह सकते हैं कि राजनीति में ‘मरा हाँथी भी सवा लाख’ का होता है।
चुनाव में ये ‘सवा लाख’ भुनाने के लिए ही शायद पैरोल दी गई हो। फिलहाल जेल में बंद संत रामपाल का भी कुछ ऐसा ही मायाजाल रहा है।
आसाराम तो राजनीतिक आशीर्वाद और श्राप देने के मामले में सबसे आगे थे। वे प्रवचनों में ज्यादातर राजनीतिक उपदेश ही देते थे। भक्तों की विशाल संख्या ने उन्हें स्वयंभू नीतिनियंता बना दिया। उनके सफेदझक पंडालों में आशीर्वाद प्राप्त करने वालों में आडवाणी जी जैसे भाजपा के आदिपुरुष तो थे ही नरेन्द्र मोदी जी भी थे। इस संदर्भ के वीडियो जब-तब वायरल होते ही रहते हैं।
आसाराम जेल में हैं पर उनके आश्रमों की अधोसंरचना पर बुलडोजर नहीं चल पाया सो इसलिए कि ये भी अपनी जाति-बिरादरी और अंधभक्तों में रामरहीम की भाँति ‘मरा हाँथी सवा लाख’ का मूल्य रखते हैं।
योगगुरू रामदेव यद्यपि अब तक लपेटे में नहीं आ पाए लेकिन मैंने इन्हें जब से जाना तब से योग प्राणायाम के साथ राजनीतिक उपदेश ही झाड़ते देखा।
जब यूपीए की सरकार थी तब ये एक एक्टिविस्ट की भाँति सरकार के खिलाफ आग उगला करते थे। मँहगाई, कालाधन और भ्रष्टाचार के एजेन्डे को लेकर जब चाहे तब एक अर्थशास्त्री की भाँति प्रेस कान्फ्रेंस करते दिख जाते थे।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व मे एनडीए सरकार बनने के बाद एक प्रवचन में इनकी जीभ बहक गई और बोल बैठे- ‘चाहता तो मैं भी प्रधानमंत्री बन जाता’..। फिर क्या इनकी ऐसी मुश्के कस दी गईं कि पेट्रोल के सौ पार होने पर भी वये सरकार की पैरवी करते देखे जा रहे हैं। जबकि यूपीए के समय हाथ उठवाकर पेट्रोल की बढ़ी कीमतों पर जनमत लेते और तत्कालीन सरकार को धरासाई करने का संकल्प दिलाया करते थे।
रामदेव ऐसे वीरव्रती हैं कि एक बार मंच से लुगाई का भेष बनाकर निकल भागे और उधर भक्त पुलिस के डंडों से पिटते रहे।
रामदेव ऊपर वालों के मुकाबले ज्यादा चालक निकले और खुद को अपनी कंपनी पतंजलि के ब्रांड एम्बेसडर तक ही सीमित कर लिया। मीडिया इनके विग्यापनों से पलता है और संभव है कि पतंजलि के मुनाफे का हिस्सा नेताओं तक पहुँचता हो वरना अब तक इनका भी अंत उघर चुका होता।
हर कालिनेम का अंत उघरता है। गोस्वामी जी कह गए- उघरे अंत न होंहि निबाहू। कालिनेम जिमि रावन राहू। राजनीति में ज्यादातर इसी तरह के कालिनेमी संतो-महंतों की घुसपैठ है। अंत उघरने के पहले तक इनकी कीमत इसलिए होती है क्योंकि इनमें भेंड़ों के काफिले जोड़ने का हुनर होता है। जिंदगी से परेशान या पाप के डर से मोक्ष की कामना करने वाला इंसान इनके मायाजाल में उसी तरह फँसता है जैसे कि फ्लाइकैचर में मख्खी।
इनके पंडालों में जुटने वाली भीड़ भी वस्तुतः वोट ही होती है। और यही वोट हमारे चुनावी लोकतंत्र का आत्मतत्व है। राजनीतिक सभाओं में भीड़ जुटाना अब टेढ़ीखीर है सो नेताओं को सबसे सुभीता रास्ता महंतों के पंडाल वाला दिखता है।
इसलिए राजनीतिक दल अपने-अपने सुविधानुसार महंतों की प्राणप्रतिष्ठा करने में अब तक लगे हैं और आगे भी लगे रहेंगे। एक के जेल जाने के बाद दूसरे को तबतक पकड़े रहेंगे जबतक कि कालिनेम की भाँति उसका भी अंत नहीं उघरता।
रीवा वाला युवा महंत जरा जल्दबाज और अनाड़ी निकला धैर्य धरे रहता तो चौथेपध तक आसाराम की तरह धर्म का कल्याण कर ही सकता था।
भारतीय राजनीति में धर्म-धुरंधरों का दखल आजादी के बाद पहले चुनाव से ही रहा। करपात्रीजी महाराज ने रामराज परिषद का गठन किया था। शुरूआत के चुनावों में रामराज परिषद एक प्रभावी राजनीतिक दल था। संसद में व विधानसभाओं में बड़ी संख्या में उसके प्रतिनिधि चुनकर गए थे। लेकिन साठ के दशक आते-आते जन्नत की हकीकत का पता चल गया क्योंकि जाति-पाँति, धर्म-पंथ के खाँचे में बँटे भारतीय राजनीति को प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो जैसा नारा चुनावी मैदान में नहीं सुहाता।
1990 में रामंदिर आंदोलन ने साधू-संतों को फिर से राजनीति करने का अवसर दिया। इनमें से कई संसद और विधानसभाओं में गए, मंत्री बने और राजसुख भोगा। इसी भोगविलास ने मंहतों मठाधीशों को राजनीति के लिए लालायित किया। सो अब प्रायः हर दलों में उनके अपने संत-महंत मठाधीश हैं..और इस तरह भारतीय राजनीति का महंतीकरण हो गया।
अब आते है राजनीति के अपराधीकरण के सवाल पर। एक सरसरी नजर डालें एडीआर की रिपोर्ट पर फिर आगे की बात।
पिछले लोकसभा चुनावों के आँकड़ों पर गौर किया जाए तो स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसदों की संख्या में वृद्धि ही हुई है। उदाहरण के लिये वर्ष 2004 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162 और 2014 में 185 और वर्ष 2019 में बढ़कर 233 हो गई। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म (ADR) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, जहाँ एक ओर वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या 76 थी, वहीं 2019 में यह बढ़कर 159 हो गई। इस प्रकार 2009-19 के बीच गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में कुल 109 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली।गंभीर आपराधिक मामलों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध आदि को शामिल किया जाता है।’
अब लौटते हैं उस घटना की ओर..यह बड़ा ही दिलचस्प वाकया था उस दिन कोर्ट का, जब दुष्कर्मी महंत को प्राश्रय देने के आरोपी को पेश किया जा रहा था। उसने भाजपा जिंदाबाद, शिवराज सिंह जिंदाबाद के नारे लगाए।
लोग हतप्रभ थे कि उन्हीं शिवराजसिंह की सरकार हथकड़ी लगाकर जेल भेज रही और उनके बुलडोजर कांप्लेक्स ढ़हा रहे जिनके बारे में आरोपी दावा कर रहा था कि वह शिवराजसिंह के साथ आठ साल से है।
यह दावा गलत नहीं। नेताओं के साथ की तस्वीरें हैं, चुनावी सभाओं के साझे दृश्य हैं। वह सबकुछ है जो यह साबित करता है कि ये महानुभाव वाकय राजनीति में अबतक नेताओं के बगलगीर रहे हैं।
दरअसल राजनीति में अपराधियों की दो श्रेणी होती है। पहली वह जिसमें अपराधी स्वयं चुनाव लड़कर पदप्रतिष्ठा हाँसिल कर लेता है यहाँ तक कि सरकार का नियामक होता है जैसा कि हरियाणा में हुआ था। गोपाल कांडा नाम के अव्वल दर्जे के अपराधी और दुष्कर्म के आरोपी ने स्वयं और अपने साथी विधायकों के साथ सरकार बनाने में समर्थन की पेशकश भाजपा से की थी।
उत्तरप्रदेश और बिहार में तथा दक्षिण के प्रदेशों में अपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की अपनी पार्टी है जो गाढ़े समय में मुख्य राजनीतिक दलों के खेवनहार बन जाते हैं। एडीआर और इलेक्शन वाच ने अपनी रिपोर्ट में इन्हीं का उल्लेख किया है।
दूसरे कोटि के अपराधी वे होते हैं जो अपना गोरखधंधा नेताओं के संरक्षण में चलाते हैं और इसके एवज में धनबल और बाहुबल उपलब्ध कराते हैं। प्रत्येक राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को ऐसे लोगों की जरूरत होती है। क्योंकि एक अपराधी न सिर्फ वोट देता और दिलवाता है अपितु प्रतिद्वंद्वी के वोट को रोकने का भी काम करता है। सो ऐसे अपराधी दोगुने काम के होते हैं।.
लेकिन जब ये अपराधी राजनीति में बिंध जाते हैं तब इनका हश्र अवश्य ‘मारीचि’ सा होता है। रावण का हुक्म माना तो राम के हाथों मरना तय और नहीं माना तो रावण तलवार लिए खड़ा ही है, मौत दोनों ओर।
हमारे भारतीय राजनीति के चुनावी लोक तंत्र में कालिनेमी महंत और अपराधी मारीचों की भूमिका तब तक अपरिहार्य रहेगी जब तक कि अपराधी पृष्ठभूमि के माननीय संसद और विधानसभाओं में..खम ठोककर संविधान की शपथ लेते रहेंगे और ‘हम भारत के लोग’ इस दृश्य पर ताली पीटते रहेंगे।