Monday, July 28, 2025
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यही होते है राज नेता……

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किसी नगर में में एक बनिया रहता था।वो एक ढाबा चलता था।वहां वह भर पेट भोजन की थाली 30 रूपये में देता था।भोजन बड़ा स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के कारण उसका ढाबा बहुत चलता था। दूर दूर से लोग उसके ढाबे में भोजन करने आते थे। धीरे धीरे चीजों और खाद्य पदार्थों के मूल्य बढ़ने से अब उसे एक थाली 30 रूपये में देना असंभव सा लगने लगा। वह सोचने लगा कि अगर थाली के दाम नही बढ़ाए तो ढाबा नुकसान में चलने लगेगा।वह एक थाली 40 रूपये में बेचना चाह रहा था।परंतु उस नगर के राजा की आज्ञा बिना कोई भी व्यापारी अपनी वस्तुओं की कीमत नही बढ़ा सकता था। इस लिए वो एक दिन समय निकाल कर राजा से इस बाबत मिलने गया।उसने राज दरबार में राजा से मिलने की अनुमति मांगी।राजा की अनुमति मिलने पर वह राजा के समक्ष उपस्थित हो कर उसने राजा को हाथ जोड़ कर और सिर झुका कर नमस्कार किया।राजा ने उसके अभिवादन का उत्तर देते हुए कहा कहिए क्या परेशानी है?

बनिया ने निवेदन किया अन्नदाता में ढाबा चलाता हूं।अन्नदाता की कृपा से अच्छा चल रहा था। परंतु वस्तुओं के महंगे हो जाने से अब एक भोजन की थाली जो में 30 रु में देता था ,वह अब संभव नहीं हो पा रहा।इस लिए भोजन की थाली में अब 40 रु0 की करना चाहता हूं। इसी लिए अन्नदाता के दरबार में उपस्थित हुआ हूं।

राजा ने बनिए से कहा की तुम एक थाली 40 रु0 की नही बल्कि 60 रु0 की करो।बनिया चकित होकर राजा की और देख कर बोला पर महाराज ये तो लोगों के साथ अन्याय होगा सब तरफ हाहाकार मच जाएगा। राजा ने कहा ये काम तुम्हारा नही हमारा है ।हम राजा है।अगर हम हाहाकार रोक नहीं पाए तो हमारा राजा होना बेकार है।तुम वही करो जो हम कह रहे है।बाकी हम पर छोड़ दो।बनिया सिर झुका कर नमन कर के वहां से वापस ढाबे पर आगया। अगले दिन से उसने एक थाली 60 रु0 की कर दी।लोग आश्चर्य में हो कर उससे पूछने लगे अरे एक दम दुगनी कीमत कैसे कर दी? बनिया बोला महंगाई बढ़ गई है अब पहले वाली कीमत में नही पोसाता।नगर में उस ढाबे की चर्चा होने लगी थोड़े ही दिनों में थाली की कीमत को ले कर हाहाकार मच गया।लोग बनिए को गालियां देने लगे।उसे मुनाफाखोर और ना जाने क्या क्या कहने लगे।बनिया राजा की आज्ञा मान सब कुछ सुनता रहा।कुछ दिनों बाद लोग राजा के पास जा कर बनिए की शिकायत करने लगे की कैसे बनिए ने एक थाली की कीमत को दुगना कर दिया।राजा ने क्रोध दिखाते हुए सैनिकों को बनिए को पकड़ कर लाने को कहा।सैनिक बनिए को पकड़ कर राजा के सामने लाए ।राजा ने क्रोध दिखाते हुए बनिए को इतनी कीमत बढ़ने पर फटकारा।और फिर आज्ञा दी की कल से थाली 60रु0की नही 45रु0 की बेचोगे। जनता खुश हो गई।उसने राजा की जय जय कार शुरू कर दी।और सब लोग खुशी खुशी अपने घर चले गए।दरबार में केवल बनिया और राजा ही रह गए।राजा ने कुटिलता पूर्वक मुस्कुराते हुए कहा 2 रूपये प्रतिथली राजकोष में जमा करा के 40 के स्थान मार 43 रु0 प्रति थाली लोगो को दो।

Shyamsundar Samaria Ke Facebook Wall Se

क्या पत्रकारिता वाकई पेन प्रस्टीट्यूट बन गई!

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जयराम शुक्ल-

भारत में पहले अखबार ‘बंगाल गजट’ का निकलना एक दिलचस्प घटना थी। वह 1780 का साल था ईस्ट इंडिया कंपनी वारेन हेस्टिंग के नेतृत्व में मजबूती के साथ विस्तार पा रही थी, तब कलकत्ता उसका मुख्यालय था। कंपनी के ही एक मुलाजिम जेम्स आगस्टस हिक्की ने हिक्कीज बंगाल गजट आर कलकत्ता एडवरटाइजर नाम का अखबार निकाल कर बड़ा धमाका किया। धमाका इसलिए कि उसने पहले ही अंक से वारेन हेस्टिंग्स समेत उन अन्य कंपनी बहादुरों की खबर लेना शुरू कर दी जिनके भ्रष्टाचार, अय्याशी के किस्से कलकत्ता की गलियों में फुसफुसाए जाते थे। हिक्की जल्दी ही कंपनी बहादुरों की आँखों में खटकने लगा पहले उसे जेल में डाला गया फिर जल जहाज में बैठाकर लंदन भेज दिया गया। यह भी कहते हैं कि उसे बीच सफर में ही मारकर समुंदर में फेक दिया गया ताकि कंपनी बहादुरों के काले कारनामे महारानी के दरबार तक न पहुंच सकें।

इस तरह जिस प्रकार एक अँग्रेज एओ ह्यूम ने कांग्रेस गठित करके राजनीतिक चेतना विकसित करने का काम किया, उसी तरह हिक्की ने अखबार निकाल कर उसकी मारकशक्ति से भारतीय बौद्धिकों को परिचित कराया। अखबार निकालने के पीछे यद्यपि हिक्की का ईर्षाजनित क्रोध और चार पैसे कमाने की लालसा थी। समाज को लेकर उसकी न कोई घोषित प्रतिबद्धता थी और न ही पक्षधरता। पर कई काम अनजाने, अनायास ही हो जाया करते है हिक्की गजट के जन्म की यही घटना है। कंपनी का छोटा सा मुलाजिम हिक्की जब अफसरों के ठाट देखता तो जलभुन जाता था(पत्रकारों में कमोबेश वही भाव आज भी जिंदा हैं)। इसलिए गुस्से को पर्चे में लिखकर निकाला। वह होशियार था और इसमें भी कुछ कमा लेने की गुंजाइश देखता था सो बंगाल गजट के साथ उसने शीर्षक में ही ‘कलकत्ता एडवरटाइजर’ जोड़ दिया। यानी कि अखबार के जरिए भयादोहन कर माल कमाने का रास्ता भी भारतीय पत्रकारिता के इस गौरांग मानुष ने ही दिखाया।

लेकिन हिक्की गजट ने एक प्रेरणा तो दी ही कि अखबार के माध्यम से जनजागरण भी किया जा सकता है खासतौर पर उनके खिलाफ जिनसे इस देश व समाज को बचाने के लिए लड़ना है। इसलिए शुरुआती दिनों में ही अखबार और साप्ताहिक समाजसुधार व स्वतन्त्रता की चेतना फैलाने के लिए आवश्यक समझे गए। भारत में इसतरह प्रतिबद्धत पत्रकारिता की शुरुआत हुई। सतीप्रथा व अन्य कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चला रहे राजा राममोहन राय ने ‘बंगाल कौमुदी’ नाम का अखबार निकाला। कांग्रेस तबतक स्वाधीनता आंदोलन के लिए एक मंच बन चुका था और लाल-बाल-पाल यानी की लाला लाजपतराय, बिपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक देश के क्षितिज में धूमकेतु की तरह उदित हो चुके थे। इन तीनों महापुरुषों ने मीडिया की ताकत को समझा और इसे स्वाधीनता की लड़ाई के प्रभावशाली औजार में बदल दिया।

लाला लाजपतराय ने 1904 में अँग्रेजी में ‘द पंजाबी’निकाला और एक के बाद एक पुस्तकों की रचना की। बिपिनचंद्र पाल इससे पहले ही परिदर्शक, पब्लिक ओपीनियन, वंदेमातरम, द बंगाली निकाल चुके थे। यानी कि इन्होंने बांग्ला और अँग्रेजी में अखबार निकाला। वंदेमातरम सबसे प्रसिद्ध अखबार था। इधर बाल गंगाधर तिलक ने अँग्रेजी में मराठा और मराठी में केसरी नाम का अखबार निकाला। इन अखबारों का उद्देश्य हिक्की की तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ भंडाफोड करना या एडवरटाइजर बनकर धन जुटाना नहीं था अपितु अँग्रेजों को भारतीयों की भावना से परिचित कराना और भारतीयों को अँग्रेजों की गुलामी के खिलाफ लामबंद करके खड़ा करना था। यह मीडिया की प्रतिबद्धता का उत्कृष्ट नमूना था। इस परंपरा को गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ मदनमोहन मालवीय ने अभ्युदय और हिंदुस्तान, माखनलाल चतुर्वेदी ने कर्मवीर, विष्णु राव पराडकर ने आज, रणभेरी के माध्यम से आगे बढ़ाया। इस पुनर्जागरण काल में देश के हर प्रांतों से विविध भाषाओं में अखबार निकलने शुरू हुए और इन्हें निकालने वाले प्रायः सभी भारतीय महापुरूषों का एक ही उद्देश्य था..स्वाधीनता के लिए जनजागरण या समाज की बुराई के खिलाफ आंदोलन। हिंदी, अँग्रेजी और गुजराती में महात्मा गांधी ने हरिजन नाम का अखबार निकाला जो अछूतोद्धार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को लेकर था।

इसी बीच कलकत्ता से कई ऐसे भी अखबार शुरू हुए जो स्वरूप से थे तो विशुद्ध पेशेवर लेकिन उनका भी उद्देश्य समाज व देश के प्रति प्रतिबद्धता थी। बाबू शिशिर कुमार घोष ने 20 फरवरी 1868 के दिन बांग्ला भाषा में अमृतबाजार पत्रिका का शुभारम्भ कर चुके थे। अँग्रेज अब क्षेत्रीय और भाषाई पत्रकारिता की ताकत को भाँप चुके थे और पहली लगाम कसी 1878 में बर्नाक्युलर प्रेस एक्ट लाकर। इस एक्ट के सीधे निशाने पर शिशिर बाबू की आनंदबाजार पत्रिका थी। अखबार जगत में रातोंरात एक करिश्मा हुआ..बांग्ला की अमृतबाजार पत्रिका अँग्रेजी में बदल चुकी थी। उन दिनों अँग्रेजों ने अपने प्रपोगंडा के लिए अखबार शुरू किए। बेनेटकोलमैन कंपनी का टाइम्स आफ इंडिया, स्टेटसमैन और पायोनियर जैसे अखबार अँग्रेज सल्तनत की पक्षधरता के लिए खड़े कर दिए गए। इस तरह आजादी के पहले अखबारों की दो धाराएं थीं पहली जो समाज और देश के प्रति प्रतिबद्ध थीं जिनका काम स्वाधीनता को लेकर जन जागरण करना था। ऐसे अखबारों की लगाम सेठों के हाँथों में नहीं अपितु स्वतंत्रता संग्रामियों के हाथों थी जो अखबारों को ट्रस्टीशिप में या ग्राहकों के चंदों के संसाधन से निकल रहे थे। भारतीयत भाषाओं के अखबारों के लिए ‘चंदा’शब्द साठ सत्तर के दशक तक चला। तब यह माना जाता था कि यह उत्पाद नहीं बरन् जनता के चंदे के सहयोग से चलने वाला एक सामाजिक सहकार है। बाद में ऐसे ही कई अखबारों को पूँजीपतियों ने खरीद लिए जो आज मीडियाइंडस्ट्री के ध्वजवाहक बने हुए हैं।

तो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के मुकाबले अँग्रेजों ने अपने अखबार खड़े किए जो ब्रिटिश साम्राज्य का गुणगान करते थे और उनके राज को भारत के लिए वरदान बताते थे। सो इस तरह भारत में मीडिया की प्रतिबद्धता और पक्षधरता दोनों ही समानांतर रूप से विकसित हुई जो आजादी के कुछ वर्षों बाद ही आपस में मिलकर एक हो गईं।

अब मीडिया बाजार का एक हिस्सा है और उसके बाजारू लटके झटकों को देखते हुए ही प्रसिद्ध उपान्यासकार जार्ज ओरवेल ने ‘पेन प्रस्टीट्यूट’ यानी की कलम की पतुरिया कहकर संबोधित किया है। मीडिया के चाल चरित्र और चेहरे को लेकर आज विश्वव्यापी विमर्श चल रहा है। इस विमर्श के केंद्र में प्रेस की स्वतंत्रता भी है, निष्पक्षता, पक्षधरता और प्रतिबद्धता भी। एक बहस मीडिया का बाजार बनाम बाजारू मीडिया को लेकर भी है। इस बीच वैकल्पिक मीडिया का अभ्युदय और सोशलमीडिया के लोकव्यापीकरण की बात भी शुरू हुई है।

जब हम मीडिया के भविष्य की बात करते हैं तब हमारी निगाहें अमेरिका की ओर जाकर टिक जाती हैं। अमेरिका की ओर इसलिए कि यह डेमोक्रेसी का आयकन है और यहां प्रेस की स्वतंत्रता अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में देखी जाती है। उसकी स्पष्ट वजह यह कि अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता को चुनौती नहीं दी जा सकती। भारत में जहां प्रेस की स्वतंत्रता को अलग से परिभाषित न करते हुए नागरिकों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में सन्निहित किया गया है, वहीं अमेरिका में प्रेस की आजादी को संवैधानिक कवच प्राप्त है। इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि भारत में यदि मीडिया कुछ छापता है और अदालत में उसे चुनौती दी जाती है तो बर्डन आफ प्रूफ खबर प्रकाशित करने वाले पर होगा। अमेरिका में इसकी स्थिति उलट है..पीडित व्यक्ति को यह साबित करना होता है कि उसको लेकर जो छापा गया है वह गलत है।

अमेरिका में प्रेस की इस स्वतंत्रता को लेकर पूरी दुनिया में दुहाई दी जाती है। 1787 में अमेरिका का जब संविधान लिखा जा रहा था तब प्रेस को डेमोक्रेसी का वाचडॉग माना गया था। प्रेस की आजादी को लेकर जनप्रतिनिधियों के इस भावाभिव्यक्ति को थामस जफरसन जो कि बाद में राष्ट्रपति भी बने ने कुछ यूँ व्यक्त किया- “अगर मुझपर इसका फैसला छोड़ा जाता सरकार हो मगर अखबार न हों, अखबार हों लेकिन सरकार न हो तो मैं एक झटके से दूसरे विकल्प को चुनता”

अमेरिका के संस्थापकों ने इस बात को महसूस किया था कि प्रेस तटस्थ नहीं भी हो सकता है फिर भी उन्होंने संविधान में प्रेस और पत्रकारों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया था। थामस जेफरसन ने लिखा था कि हमारी हमारी स्वतंत्रता प्रेस की स्वतंत्रता पर निर्भर करती है और उसकी कोई सीमा तय नहीं की जा सकती। जान एडम्स भी मानते थे कि स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए प्रेस की स्वतंत्रता अनिवार्य है। अमेरिका में समय समय पर प्रेस के अकूत अधिकारों को लेकर चुनौतियां दी गईं। 1971 में अमेरिका के सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस- ह्यूगो ब्लैक ने एक मामले में टिप्पणी दी थी कि प्रेस का काम शासित की सेवा करना है न कि सेवक की।

तो क्या अमेरिका में प्रेस को लेकर जो चल रहा है वह ठीक है.. जी नहीं, पेन प्रस्टीट्यूट के जिस विश्लेषण से प्रेस को नवाजा गया है वह अमेरिका के संदर्भ में ही है। ट्रंप जब राष्ट्रपति थे तो अमेरिकी प्रेस को लेकर इतने उदिग्न हुए कि असहज सवाल पूछने वाले एक पत्रकार पर ह्वाइट हाउस में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। वे खुले मंचों से अमेरिकी प्रेस को लांछित करते हैं व जनता से अपील करने में भी कोई गुरेज नहीं करते कि प्रेस का बहिष्कार किया जाए। दरअसल अमेरिका में प्रेस की पक्षधरता भी स्पष्ट रूप से सामने आ गई। यह प्रक्रिया कोई तात्कालिक नहीं है। जिन जेफरसन साहब ने प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर ऐसे बड़े बोल बोले थे, जिसे आज भी उद्धृत किया जाता है वही जेफरसन साहब अब अमेरिका के राष्ट्रपति बनकर जब ह्वाइट हाउस पहुँचे तो प्रेस को लेकर उनके स्वर बदल गए। तब उन्होंने कहा-” अखबार में जो छपता है उसपर कुछ भी विश्वास नहीं किया जा सकता, इस प्रदूषित वाहन(मीडिया) में डालभर देने से सत्य संदिग्ध हो जाता है।

दरअसल अमेरिकी प्रशासन अपने दुश्मन देश से ज्यादा अपनी ही मीडिया से डरता है और उसकी वजह यह कि सबके अपने-अपने वाटरगेट हैं और कभी भी उनका पर्दाफाश हो सकता है। अमेरिका में प्रेस की इस अकूत ताकत को देखते हुए उद्योगपतियों और राजनेताओं ने भी इस क्षेत्र में निवेश किए तथा अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता की दो परस्पर विपरीत धाराएं खड़ी कर दीं। आज वहां का मीडिया स्पष्टतौर पर या तो रिपब्लिकन के साथ है या फिर डेमोक्रेट के। ठीक उसी तरह आज की तारीख में भारत में मीडिया या तो नरेन्द्र मोदी के पक्ष में खड़ा है या फिर विरोध में। फिर भी अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर चिंता तो है। वर्ष 2018 में वहां के 146 वर्ष पुराने अखबार ‘बोस्टन ग्लोब’ के नेतृत्व में 300अखबारों ने अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर संपादकीय लिखे।

यूरोप और अमेरिका के अखबार अपने देश के अंदरुनी मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामलों में भले ही कितना करतब दिखाएं लेकिन जब उनके देशों के हितों की बात आ ती है तो वे भीषण राष्ट्रवादी स्वरूप में प्रगट होते हैं। 1982में नई दिल्ली में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलन में नान एलाइड मूवमेंट मीडिया जिसे संक्षेप में ‘नामीडिया’ कहा गया का विचार आया था। तीसरी दुनिया के देशों के नेतृत्वों ने इस बात की गहन चिंता व्यक्त की थी कि पश्चिम का मीडिया उनके साथ पक्षपात करता है और गलत छवि प्रस्तुत करता है। तीसरी दुनिया का एक अलग प्रेसपूल बनाने की बात हुई थी। तब भी और अब भी

दुनिया की सूचना का एकाधिकार रायटर(ब्रिटेन) एसोसियेटेड प्रेस, एपी(अमेरिका) और एएफपी का था। ईराक, अफगानिस्तान, लीबिया को बर्बाद करने से पहले अमेरिकी-यूरोपीय मीडिया ने भूमिका तैयार की थी। आज वही मीडिया नार्थकोरिया और ईरान के पीछे लगी है। क्यूबा और वेनेज़ुएला की दुनिया में एक नकारा छवि पेश करने की कोशिश भी इसी मीडिया की थी। भारत की बालाकोट स्ट्राइक की सत्यता पर पहला सवाल बीबीसी ने उठाया था और याद हो कि लोकसभा चुनाव के पहले टाइम मैगजीन ने नरेन्द्र मोदी को खलनायक स्थापित करने वाली एक कवर स्टोरी छापी थी। तो अमेरिका यूरोप का मीडिया अपने देश के भीतर कितने भी अंतरविरोध में पल रहा हो दूसरे देशों के मामलों में वह अपने देश के हुक्मरानों का प्रपोगंडा इंस्ट्रूमेंट्स बन जाता है। यहां उसकी नग्न पक्षधरता उभरकर सामने आती है।

इंग्लैंड का प्रेस तो ब्रिटेन को सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए बेशर्मी के साथ किसी हद तक जा सकता है। मुझे आज भी याद है 1993 में इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट में प्रवेश के साथ ही जब विनोद कांबली ने 272 रन धुने थे तब ब्रिटेन के प्रायः अखबारों ने कांबली की काबीलियत बताने की बजाय यह बताने में अपना स्पेश जाया किया कि क्रिकेट ने मुंबई की गंदी बस्ती में रहने वाले एक अछूत जाति के छोकरे की कैसे किस्मत बदल दी। इंग्लैण्ड यह सीरीज हारा था, जिसकी सफाई में गार्जियन जैसे अखबारों ने यहां तक लिखा कि कानपुर की गर्मी, मुंबई की उमस और कोलकाता की प्रदूषित झींगा मछली ने हमारे खिलाड़ियों के मनोबल पर विपरीत असर किया। तो यूरोप-अमेरिका के अखबार वैश्विक स्तर पर अपने-अपने देशों के झंडाबरदार बन जाते हैं…जबकि इसके उलट भारत के द हिंदू और टेलीग्राफ जैसे अखबार दुनिया के सामने अपने देश की जांघे उघाड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते।

भारत में मीडिया बड़े ही विचित्र दौर से गुजर रहा है। आजादी के बाद प्रेस से जुड़ी हुई सभी मान्यताएं और शब्दावलियाँ बदलने लगीं..। मेल माल हो गया, प्रेस प्रोडक्ट और पाठक उपभोक्ता। मीडिया का एकाधिकार औद्योगिक घरानों के हाथ आ गया जो प्रत्यक्षतः कारखाने चलाते हैं और परोक्षतः अपने धन से राजनीतिक दल और सरकारें। इस मुफीद धंधे में चिटफंडिये, बिल्डर्स और स्मगलर्स भी आ जुड़े। मीडिया के विस्तार के साथ ही उसके मूल्य भी बिखरते गए। मर्यादाएं टूटती गईं और आज की तारीख में किसी भी मीडिया का कंटेंट देखकर यह तय कर पाना मुश्किल है कि यह एडवर्टोरियल हो कि एडिटोरियल। मीडिया का बाजार भी बना और मीडिया बाजारू भी हो गया। उसकी प्रतिबद्धता और पक्षधरता से आम आदमी और समाज धीरे-धीरे हाशिये पर जाता गया। आज उसकी सबसे बड़ी चिंता अपने उस औद्योगिक साम्राज्य को बचाने की है जिसका वह मुखौटा है..और इसी लिहाज से वह खुद को प्रस्तुत भी करता है…प्रेस को प्राँस कहने वालों के पास इससे भी जघन्य आधार हैं…। प्रेस आज पार्टी में बदल चुके हैं। उनके प्रवक्ताओं की भूमिका में एंकर और रिपोर्टर तो पार्टियों के हक में न्यूजमेकर्स की भूमिका में हैं ही। जो इस प्रवाह में नहीं बहा वह काई जैसे फेंटे में लगा प्रेस की पक्षधरता और प्रतिबद्धता पर विमर्श कर रहा है…।

और अंत में फिर जार्ज ओरवेल का कथन जो उनके उपन्यास 1984 में दर्ज है-

“जो पार्टी आपको ये कहे कि अपनी आँखों और कानों के देखे-सुने सबूतों को मत मानो, यह उनकी तरफ से सबसे अनिवार्य और अंतिम फरमान है।

News Source – bhadas4media

अगले विधानसभा के लिए – भाजपा अभी से तैयार

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सुधीर पाण्डे

भोपाल: शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश में अपनी पांचवी पारी लगातार खेलने का रिकार्ड बनाने जा रही है। चुनाव के 15 महीनें पूर्व से ही मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल की गतिविधियों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वे किसी भी शर्त पर हारने के लिए तैयार नहीं है। जनसम्पर्क के माध्यम से गांव-गांव तक जहां भाजपा का संगठन अपनी पहुंच बना रहा है, वहीं संघ के नियत्रंण वाले अन्य संगठन भी मतदाता के मध्य अपनी गहरी पैठ कायम कर रहे है।

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मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का पूरा ध्यान प्रदेश के सामान्य मतदाता को भाजपा की नीतियों के प्रति व्यवहारिक विश्वास दिलाने पर केन्द्रित हो चुका है। वैसे भी भाजपा को अगले चुनाव में विपक्ष की और से कोई भी चुनौती मिलने की सम्भावना नहीं है। इस बार भाजपा चुनाव को कितनी गंभीरता से ले रही है उसका प्रमाण यह है कि राज्य विभिन्न स्वयं सेवी संगठन के साथ भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सीधे वार्तालाप करके उन्हें रचनात्मक कार्यो से जुड़ने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। किसान, मजदूर, छात्र, महिलाएं सभी वर्गो में लगातार पैठ बनाने का सिलसिला तेजी से जारी है। इस बीच धार्मिक आधार पर मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम और उनका व्यापाक प्रचार निरन्तर किया जा रहा है।

15 महीने पहले से शुरू किए गये इस अभियान का मुख्य आकर्षण यह है कि भाजपा का छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी राज्य में 5वीं बार अपनी सरकार बनते हुए स्पष्ट रूप से महसूस कर रहा है। दल का प्रत्येक कार्यकर्ता राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की योजना का प्रचार-प्रसार जमीनी स्तर पर जा कर करने में संलग्न है। एक संगठित स्वरूप में सत्ता और संगठन दोनों ही राज्य में कार्य करते हुए नजर आ रहे है। इस प्रक्रिया के कारण चुनाव प्रारंभ होने के पूर्व दल पर पड़ने वाले अत्याधिक काम के बोझ से भाजपा कई महीने पहले ही अपने आप को मुक्त कर देना चाहती है। जैसी की उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री के पद को लेकर इस कार्यकाल में ही कुछ असंतोष पैदा होगा यह धारणा क्रमशः गलत प्रमाणित होती जा रही है। भाजपा कार्यकर्ता समूचे प्रदेश में अपने लगभग 20 साल के सुशासन की दुहाई दे रहें है और भविष्य में अन्य सभी योजनाओं के अत्यंत सरलीकरण की बात भी कर रहे है। जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि अगले 5 सालों में भी सत्ता प्राप्त होने के बाद भाजपा की योजना आम व्यक्ति तक सीधे पहुंच बना लेगी।

भाजपा के सामने एक टूटे हुए मनोबल को लिया हुआ विपक्ष है, जिसकी संगठात्मक क्षमता शून्य है और राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने की प्रणाली निहित स्वार्था से जुड़ी हुई है। भाजपा और कांग्रेस के अतिरिक्त इस बार मध्यप्रदेश की राजनीति में आम आदमी पार्टी के दखल से भी भाजपा पूरी तरह सतर्क है। हर स्तर पर यह प्रयत्न किया जा रहा है कि भविष्य के राजनैतिक गणित को वर्तमान में ही इतना संतुलित कर लिया जाए कि हर गली-चैराहे और मकान में भाजपा का एक समर्थक स्वयं-भू होकर प्रगट हो सके। इशारा यह कहता है कि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने विराट स्वरूप में, राज्य में, अस्तित्व में आ सकती है और प्रदेश के विकास को निरन्तर रखते हुए मध्यप्रदेश के इतिहास में एक नई इबारत लिख सकती है।

अभी भी नाटकबाजी में उलझी है – कांग्रेस

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सुधीर पाण्डे

भोपाल : ये कैसी राजनीति है, जिसमें लड़ने के पहले कई सेनापतियों को एक साथ वातानुकूलित कमरें में एक साथ बैठाने के बाद भी एक आम राय न बनाई जा सके। केवल यह निर्णय हो सके कि यदि कांग्रेस जीती तो कमलनाथ ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। राज्य में इन दिनों 16 से अधिक कांग्रेस गुटों के प्रमुख मुख्यमंत्री बनने की चाहत दिल में लिये हुये अपने-अपने तरीके से प्रयास कर रहे है। इस दौड़ में एक दूसरे को लंगड़ी मारने और दूसरे नेताओं के विरुद्ध अवांछनीय गतिविधियों के पुख्ता प्रमाणों को एकत्र करने का काम भी सभी नेताओं के मध्य बराबर जारी है।

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कमलनाथ ने अपने निवास पर कांग्रेसी राजनीति के सभी जमीदारों की एक बैठक आयोजित की, इस बैठक में प्रमुख मुद्दा आपसी मतभेदों को भुलाकर कांग्रेस को मजबूत करने का था। नियत बिलकुल साफ थी पर बैठकर में भाग लेने वाले सभी नेता अपनी-अपनी राजनैतिक संभावनाओं को और अपने गुट के समर्थकों को संरक्षित करने की नियत से एक योजना बनाने के लिए एकत्र हुए थे। इनमें से कुछ वे भी थे जो स्वयं की राजनीति के चुक जाने के बाद अपने बच्चों के भविष्य और सुरक्षित बनाने की कोशिशों में लगें हुए थें। बैठक में जो भी हुआ हो बाहर संदेश यही गया कि कांग्रेस एक हो गई है। सभी जमीदारों ने एक साथ विशिष्ठ भोजन का आनंद लिया और कांग्रेस की प्रति अथाह चिंता रखते हुए अपने-अपने निवास की और नई तरकीब और षड़यंत्र की व्यूह रचना करते हुए रवाना हो गये ।

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कांग्रेस एक हो गई है इसकी कल्पना करना बेकार है, कांग्रेस को नेतृत्व लिए जिस नये खून की जरूरत है वह कहीं नहीं नजर आ रहा। यह तय है कि कमलनाथ की अगवायी में चुनाव लड़ते समय कांग्रेस को पैसों की चिंता नहीं रहेगी। पर वह वास्तविक जनाधार कहां से आयेगा जो आम मतदाता को कांग्रेस के साथ जोड़ सके और कांग्रेस के प्रति उसके अंदर एक स्वयं और विश्वास पैदा कर सकें। इन प्रश्नों के उत्तर कार्याकर्ताओं की ईमानदार गतिविधियों पर निर्भर करता है। जब जमीदार अर्श पर बैठे हुए बड़े नेता कार्यकर्ताओं के साथ फर्श पर चलकर जनमत और जनभावनाओं के अनुसार कुछ करने की कोशिश करते है तो ही पार्टी का जनाधार बनता है। महंगाई के विरुद्ध अपने बंगले के सामने गैस सिलेंडरों को माला पहना देना और देढ़ मिनिट का भाषण देकर और फिर वातानुकूलित कक्ष में चले जाना राजनीति नहीं हो सकती। इसे जनभावनाओं का सम्मान भी नहीं माना जा सकता। जमीन पर चलने वाले पैर जो जनाक्रोश को गति दे सकते है कांग्रेस के पास नहीं है। पिछले 20 सालों तक लगातार सरकार के साथ मिलकर एक व्यवसायी सहयोगी की रूप में काम कर रहे। कांग्रेसी नेताओं को अपनी मंहगी और लगजरी गाड़ियों में डलने वाले महंगे ईंधन की चिंता नहीं है। आज भी उनके बाड़े में पलने वाली भैसों को नहलाने के लिए उसी गैस सिलेण्डर से पानी गर्म किया जाता है, जिसे 6 महीने तक एक आम आदमी अपनी रसोई की जरूरत को पूरा करने के लिए भरवा पाने में अक्षम है। कांग्रेस दर्द की राजनीति को नहीं समझ रही, जमीदारों को महंगा खाना खिला कर और सिलेण्डर को माला पहना कर आम व्यक्ति की भावना तक नहीं पहुंचा जा सकता।

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इस बार कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती भाजपा तो है ही, आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस के सामने आम व्यक्ति की भावनाओं को समझने के लिए बराबरी से उतरेगी। यही संदेह पैदा होता है कि इस दिखावटी राजनीति में कहीं कांग्रेस को पंजाब के परिणामों की पुनारावृर्ती देखने को न मिल जाए। मध्यप्रदेश में चाटुकारों को छोड़कर कुछ ईमानदार और स्पष्ट बोलने वाले नेताओं की जरूरत है जो पीढ़ी समय के साथ कम से कम कांग्रस में तो पूरी तरह समाप्त हो चुकी है।

कांग्रेस की मजबूरी, चुनाव में कमलनाथ हैं जरूरी

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दीपक बिड़ला

भोपाल। मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेताओं के बीच चल रहे मनमुटाव का आखिरकार पटाक्षेप हो गया है। प्रदेश के दिग्गज कांग्रेस नेताओं ने एक सुर में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ पर भरोसा जताते हुए उन्हीं के नेतृत्व में वर्ष 2023 का विधानसभा चुनाव लडऩे की बात कही है। इसके साथ ही इन खबरों को भी विराम लग गया कि कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष में से एक पद छोड़ेंगे।

प्रदेश कांग्रेस में अंतर्कलह, अंतर्विरोध और गुटबाजी

करीब छह महीने पहले खंडवा लोकसभा सीट पर होने जा रहे उपचुनाव में प्रत्याशी का नाम फायनल होने से ठीक पहले पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने चुनाव लडऩे से इनकार कर दिया था। यहीं से कांग्रेस में बिखराव की शुरुआत हुई। अरुण यादव ने पार्टी की गतिविधियों में रुचि लेना कम कर दिया। इसके बाद जनवरी में सीएम हाउस के नजदीक धरने sampadkiy 1के दौरान कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बीच हुए तल्ख संवाद का वीडियो जमकर वायरल हुआ, जिससे तय हो गया कि दोनों नेताओं के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। फिर मार्च में विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण के बहिष्कार के मुद्दे पर नेता प्रतिपक्ष के तौर पर कमलनाथ ने भाजपा का साथ देते हुए जिस तरह कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी को कठघरे में खड़ा कर दिया, उससे भाजपा को पटवारी को घेरने का मौका मिल गया। इसका नजीता यह हुआ कि पटवारी समेत कई युवा विधायकों ने विधानसभा की कार्यवाही में रुचि नहीं ली। सत्र के दौरान पूरा विपक्ष बिखरा-बिखरा नजर आया। मीडिया में रोजाना सामने आ रही प्रदेश कांग्रेस में अंतर्कलह, अंतर्विरोध और गुटबाजी की खबरों से परेशान कमलनाथ ने तीन दिन पहले सभी दिग्गज नेताओं और पूर्व मंत्रियों को डिनर पर बुलाया। इस दौरान सभी नेताओं ने एकजुटता दिखाते हुए कमलनाथ के नेतृत्व में चुनाव लडऩे और उनका हर निर्णय मान्य होने की बात कही।

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लंबे अरसे से केंद्र और प्रदेश की सत्ता से बाहर कांग्रेस में फंड की कमी

बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्या कारण है कि पार्टी हाईकमान 76 साल के कमलनाथ पर इतना भरोसा जता रहा है। दरअसल, लंबे अरसे से केंद्र और प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के कारण कांग्रेस फंड की कमी से जूझ रही है। विधानसभा चुनाव लडऩे के लिए पार्टी को करोड़ों रुपए चाहिए। कमलनाथ के अलावा प्रदेश में ऐसा कोई नेता नहीं है, जो चुनाव में करोड़ों रुपए फंूक सके। यह बात प्रदेश के सभी नेता अच्छे से जानते हैं। दूसरी बात यह है कि कमलनाथ पार्टी के वरिष्ठतम अनुभवी नेताओं में से एक हैं। उनकी छवि बेदाग है। वे प्रदेश में कांग्रेस के एकमात्र सर्वमान्य नेता है। सभी उनके फैसलों को मानते हैं। भाजपा भी यह अच्छे से जानती है कि कमलनाथ हैं, तो कांग्रेस एक है। यदि पार्टी किसी दूसरे नेता को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपती है, तो चुनाव के ऐन मौके पर कांग्रेस बिखर जाएगी, जिसका फायदा भाजपा को चुनाव में मिलेगा। कांग्रेस हाईकमान को भी कमलनाथ की नेतृत्व क्षमता पर भरोसा है, यही वजह है कि किसी युवा चेहरे की बजाय वह कमलनाथ पर पूरा भरोसा जता रहा है। या यूं कहें की आज के हालात में कमलनाथ पर भरोसा जताना पार्टी हाईकमान की मजबूरी है। पार्टी यह भी जानती है कि चुनाव से 18 महीने पहले नेतृत्व में बदलाव करना ठीक नहीं है। पार्टी पंजाब में विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले मुख्यमंत्री बदलने का हश्र देख चुकी है।

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प्रदेश में सक्रियता बढ़ाएगी कांग्रेस

विधानसभा चुनाव में 18 महीने बचे हैं, ऐसे में कांग्रेस ने प्रदेश में सक्रियता बढ़ाने का निर्णय लिया है। कमलनाथ खुद को प्रदेश का दौरा करेंगे ही, वरिष्ठ नेता भी अलग-अलग क्षेत्रों का दौरा करेंगे। इसके अलावा पूर्व मंत्रियों को भी अपने-अपने जिलो में जनता से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन करने के निर्देश पीसीसी चीफ ने दिए हैं।  कांग्रेस के फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन, मोर्चा, प्रकोष्ठों को भी सरकार की जन विरोधी नीतियों को लेकर सड़क पर उतरने को कहा गया है। इसी कड़ी में युवा कांग्रेस 11 अप्रैल को राजधानी में प्रदेश व्यापी आंदोलन करेगी।

भारतीय राजनीति के अपराधीकरण से महंतीकरण तक !

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ज्वलंत/जयराम शुक्ल

मध्यप्रदेश के दिग्गज राजनेता श्री निवास तिवारी ने एक बार कहा था- चुनावी लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक पहले एक वोटर है, इसके पश्चात ही अपराधी या हरिश्चंद्र का औतार। एक बड़े पत्रकार ने उनसे पूछा था कि आप पर अपराधियों को प्रश्रय देने के आरोप क्यों लगते हैं? तिवारी जी ने जवाब दिया- मैं अपने वोटर को प्रश्रय देता हूँ, हो सकता है वह आपको अपराधी लगे। और हाँ जिन्हें आप अपराधी कहते हैं जिसदिन उनका मताधिकार छिन जाएगा उस दिन से मैं उनकी ओर देखूंगा भी नहीं। उन्होंने उस पत्रकार से पलटकर पूछा- वोट की संख्या में आप क्या यह विभेद कर सकते हैं, कि इतने वोट अपराधियों के हैं और इतने ईमानदारों के..? उस पत्रकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था, मेरे पास भी नहीं.. और शायद आपके पास भी नहीं होगा ऐसा मेरा मानना है। राजनीति के अपराधीकरण को समझने के लिए इससे बेहतर प्रश्न और उत्तर नहीं हो सकते।

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श्रीनिवास तिवारी साफगो नेता थे, खरी-खरी तार्किक बातें करने वाले। वे जो अँधेरे में थे वही उजाले में, आज के प्रायः नेताओं की भाँति कंबल ओढ़कर घी/दारू पीने वालों से अलग जमात के नेता ।
राजनीति के अपराधीकरण/ महंतीकरण को हाल ही की कुछेक घटनाओं के बरक्स विवेचना करने की कोशिश करते हैं, कि चुनावी लोकतंत्र में यह नासूर कितने गहरे तक है।

चलिए हम रीवा की ही वह चर्चित घटना लेते हैं जिसमें एक युवा महंत ने राजनिवास (विन्ध्यप्रदेश के समय का गवर्नर हाउस) में झाँसा देकर बुलाई गई एक तरुणी के साथ दुष्कर्म किया। उसे प्रश्रय देने के आरोप में गंभीर आपराधिक इतिहास वाले एक बाहुबली को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और उसका काम्प्लेक्स ढहाया गया।

महंत और उसके आश्रयदाता से जुड़े मसलों को देखें तो दोनों ही राजनीति में अंदर तक धँसे थे। महंत एक ऐसे महामंडलेश्वर के संरक्षण में धर्मध्वजा फहरा रहा था जो रामजन्मभूमि आंदोलन के बड़े नेताओं में से एक थे और दो बार निर्वाचित होकर लोकसभा जा चुके हैं। दुष्कर्म के आरोपी युवा महंत की जो तस्वीरें आईं उनमें एक में वे प्रदेश के गृहमंत्री का रामचरित मानस व शाल श्रीफल और पुष्पहार से अभिनंदन कर रहे थे। दूसरी तस्वीर में वे प्रदेश के स्पीकर पर आशीर्वाद वर्षा रहे थे।

दुष्कर्मी युवा महंत के कृपा पात्रों में कुछ आईएएस, आईपीएस भी थे जिनकी तस्वीरें सामने आईं। आप कह सकते हैं कि इन महापुरुषों को यह नहीं मालूम था कि महंत के वेश वाले इस युवा की असलियत का जल्दी ही कालिनेम की भाँति पर्दाफाश होने वाला है।

लेकिन इस बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं कि हमारे नेता अपने पुरुषार्थ की बजाय साधू-संतों के और तांत्रिक चमत्कारों पर ज्यादा विश्वास करते हैं। इन्हें अपनी राजनीति के उत्थान में सहायक मानते हैं। इनके लिए जनता-जनार्दन बस महज एक नारा है, असली जनार्दन यही ढ़ोंगी और पाखंडी लोग हैं।

अभी जब पंजाब में चुनाव चल रहे थे, उसी बीच अखबार में एक खबर पढ़ी, कि रामरहीम को जेल से कुछ दिनों के लिए पेरोल पर रिहा किया गया है। पेरोल की टाइमिंग इसलिए मायने रखती है क्योंकि रामरहीम का डेरा सच्चा सौदा अभी भी अस्तित्व में है, उनके शिष्यमंडली की संख्या ज्यादा कम नहीं हुई है।

जेल जाने के पहले तक हरियाणा और पंजाब की कई विधानसभा सीटों की हार-जीत का निपटारा डेरे के फरमान से होता था। यह फरमान लगभग वैसे ही होता था जैसे कि जामा मस्जिद से, देवबंद या बरेली से फतवे जारी होते हैं। रामरहीम के मामले में आप कह सकते हैं कि राजनीति में ‘मरा हाँथी भी सवा लाख’ का होता है।
चुनाव में ये ‘सवा लाख’ भुनाने के लिए ही शायद पैरोल दी गई हो। फिलहाल जेल में बंद संत रामपाल का भी कुछ ऐसा ही मायाजाल रहा है।

आसाराम तो राजनीतिक आशीर्वाद और श्राप देने के मामले में सबसे आगे थे। वे प्रवचनों में ज्यादातर राजनीतिक उपदेश ही देते थे। भक्तों की विशाल संख्या ने उन्हें स्वयंभू नीतिनियंता बना दिया। उनके सफेदझक पंडालों में आशीर्वाद प्राप्त करने वालों में आडवाणी जी जैसे भाजपा के आदिपुरुष तो थे ही नरेन्द्र मोदी जी भी थे। इस संदर्भ के वीडियो जब-तब वायरल होते ही रहते हैं।

आसाराम जेल में हैं पर उनके आश्रमों की अधोसंरचना पर बुलडोजर नहीं चल पाया सो इसलिए कि ये भी अपनी जाति-बिरादरी और अंधभक्तों में रामरहीम की भाँति ‘मरा हाँथी सवा लाख’ का मूल्य रखते हैं।

योगगुरू रामदेव यद्यपि अब तक लपेटे में नहीं आ पाए लेकिन मैंने इन्हें जब से जाना तब से योग प्राणायाम के साथ राजनीतिक उपदेश ही झाड़ते देखा।

जब यूपीए की सरकार थी तब ये एक एक्टिविस्ट की भाँति सरकार के खिलाफ आग उगला करते थे। मँहगाई, कालाधन और भ्रष्टाचार के एजेन्डे को लेकर जब चाहे तब एक अर्थशास्त्री की भाँति प्रेस कान्फ्रेंस करते दिख जाते थे।

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व मे एनडीए सरकार बनने के बाद एक प्रवचन में इनकी जीभ बहक गई और बोल बैठे- ‘चाहता तो मैं भी प्रधानमंत्री बन जाता’..। फिर क्या इनकी ऐसी मुश्के कस दी गईं कि पेट्रोल के सौ पार होने पर भी वये सरकार की पैरवी करते देखे जा रहे हैं। जबकि यूपीए के समय हाथ उठवाकर पेट्रोल की बढ़ी कीमतों पर जनमत लेते और तत्कालीन सरकार को धरासाई करने का संकल्प दिलाया करते थे।

रामदेव ऐसे वीरव्रती हैं कि एक बार मंच से लुगाई का भेष बनाकर निकल भागे और उधर भक्त पुलिस के डंडों से पिटते रहे।

रामदेव ऊपर वालों के मुकाबले ज्यादा चालक निकले और खुद को अपनी कंपनी पतंजलि के ब्रांड एम्बेसडर तक ही सीमित कर लिया। मीडिया इनके विग्यापनों से पलता है और संभव है कि पतंजलि के मुनाफे का हिस्सा नेताओं तक पहुँचता हो वरना अब तक इनका भी अंत उघर चुका होता।

हर कालिनेम का अंत उघरता है। गोस्वामी जी कह गए- उघरे अंत न होंहि निबाहू। कालिनेम जिमि रावन राहू। राजनीति में ज्यादातर इसी तरह के कालिनेमी संतो-महंतों की घुसपैठ है। अंत उघरने के पहले तक इनकी कीमत इसलिए होती है क्योंकि इनमें भेंड़ों के काफिले जोड़ने का हुनर होता है। जिंदगी से परेशान या पाप के डर से मोक्ष की कामना करने वाला इंसान इनके मायाजाल में उसी तरह फँसता है जैसे कि फ्लाइकैचर में मख्खी।

इनके पंडालों में जुटने वाली भीड़ भी वस्तुतः वोट ही होती है। और यही वोट हमारे चुनावी लोकतंत्र का आत्मतत्व है। राजनीतिक सभाओं में भीड़ जुटाना अब टेढ़ीखीर है सो नेताओं को सबसे सुभीता रास्ता महंतों के पंडाल वाला दिखता है।

इसलिए राजनीतिक दल अपने-अपने सुविधानुसार महंतों की प्राणप्रतिष्ठा करने में अब तक लगे हैं और आगे भी लगे रहेंगे। एक के जेल जाने के बाद दूसरे को तबतक पकड़े रहेंगे जबतक कि कालिनेम की भाँति उसका भी अंत नहीं उघरता।

रीवा वाला युवा महंत जरा जल्दबाज और अनाड़ी निकला धैर्य धरे रहता तो चौथेपध तक आसाराम की तरह धर्म का कल्याण कर ही सकता था।

भारतीय राजनीति में धर्म-धुरंधरों का दखल आजादी के बाद पहले चुनाव से ही रहा। करपात्रीजी महाराज ने रामराज परिषद का गठन किया था। शुरूआत के चुनावों में रामराज परिषद एक प्रभावी राजनीतिक दल था। संसद में व विधानसभाओं में बड़ी संख्या में उसके प्रतिनिधि चुनकर गए थे। लेकिन साठ के दशक आते-आते जन्नत की हकीकत का पता चल गया क्योंकि जाति-पाँति, धर्म-पंथ के खाँचे में बँटे भारतीय राजनीति को प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो जैसा नारा चुनावी मैदान में नहीं सुहाता।

1990 में रामंदिर आंदोलन ने साधू-संतों को फिर से राजनीति करने का अवसर दिया। इनमें से कई संसद और विधानसभाओं में गए, मंत्री बने और राजसुख भोगा। इसी भोगविलास ने मंहतों मठाधीशों को राजनीति के लिए लालायित किया। सो अब प्रायः हर दलों में उनके अपने संत-महंत मठाधीश हैं..और इस तरह भारतीय राजनीति का महंतीकरण हो गया।

अब आते है राजनीति के अपराधीकरण के सवाल पर। एक सरसरी नजर डालें एडीआर की रिपोर्ट पर फिर आगे की बात।

पिछले लोकसभा चुनावों के आँकड़ों पर गौर किया जाए तो स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसदों की संख्या में वृद्धि ही हुई है। उदाहरण के लिये वर्ष 2004 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162 और 2014 में 185 और वर्ष 2019 में बढ़कर 233 हो गई। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म (ADR) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, जहाँ एक ओर वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या 76 थी, वहीं 2019 में यह बढ़कर 159 हो गई। इस प्रकार 2009-19 के बीच गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में कुल 109 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली।गंभीर आपराधिक मामलों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध आदि को शामिल किया जाता है।’

अब लौटते हैं उस घटना की ओर..यह बड़ा ही दिलचस्प वाकया था उस दिन कोर्ट का, जब दुष्कर्मी महंत को प्राश्रय देने के आरोपी को पेश किया जा रहा था। उसने भाजपा जिंदाबाद, शिवराज सिंह जिंदाबाद के नारे लगाए।

लोग हतप्रभ थे कि उन्हीं शिवराजसिंह की सरकार हथकड़ी लगाकर जेल भेज रही और उनके बुलडोजर कांप्लेक्स ढ़हा रहे जिनके बारे में आरोपी दावा कर रहा था कि वह शिवराजसिंह के साथ आठ साल से है।

यह दावा गलत नहीं। नेताओं के साथ की तस्वीरें हैं, चुनावी सभाओं के साझे दृश्य हैं। वह सबकुछ है जो यह साबित करता है कि ये महानुभाव वाकय राजनीति में अबतक नेताओं के बगलगीर रहे हैं।

दरअसल राजनीति में अपराधियों की दो श्रेणी होती है। पहली वह जिसमें अपराधी स्वयं चुनाव लड़कर पदप्रतिष्ठा हाँसिल कर लेता है यहाँ तक कि सरकार का नियामक होता है जैसा कि हरियाणा में हुआ था। गोपाल कांडा नाम के अव्वल दर्जे के अपराधी और दुष्कर्म के आरोपी ने स्वयं और अपने साथी विधायकों के साथ सरकार बनाने में समर्थन की पेशकश भाजपा से की थी।

उत्तरप्रदेश और बिहार में तथा दक्षिण के प्रदेशों में अपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की अपनी पार्टी है जो गाढ़े समय में मुख्य राजनीतिक दलों के खेवनहार बन जाते हैं। एडीआर और इलेक्शन वाच ने अपनी रिपोर्ट में इन्हीं का उल्लेख किया है।

दूसरे कोटि के अपराधी वे होते हैं जो अपना गोरखधंधा नेताओं के संरक्षण में चलाते हैं और इसके एवज में धनबल और बाहुबल उपलब्ध कराते हैं। प्रत्येक राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को ऐसे लोगों की जरूरत होती है। क्योंकि एक अपराधी न सिर्फ वोट देता और दिलवाता है अपितु प्रतिद्वंद्वी के वोट को रोकने का भी काम करता है। सो ऐसे अपराधी दोगुने काम के होते हैं।.

लेकिन जब ये अपराधी राजनीति में बिंध जाते हैं तब इनका हश्र अवश्य ‘मारीचि’ सा होता है। रावण का हुक्म माना तो राम के हाथों मरना तय और नहीं माना तो रावण तलवार लिए खड़ा ही है, मौत दोनों ओर।

हमारे भारतीय राजनीति के चुनावी लोक तंत्र में कालिनेमी महंत और अपराधी मारीचों की भूमिका तब तक अपरिहार्य रहेगी जब तक कि अपराधी पृष्ठभूमि के माननीय संसद और विधानसभाओं में..खम ठोककर संविधान की शपथ लेते रहेंगे और ‘हम भारत के लोग’ इस दृश्य पर ताली पीटते रहेंगे।

कांग्रेस की नई – धर्म आधारित राजनीति

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सुधीर पाण्डे

भोपाल: पूरे देश में लुप्त हो रही कांग्रेस अपनी दुर्दशा को सुधारने के लिए अब सीधे तौर पर हनुमान चालीसा का सहारा लेने को बाध्य हो गई है। राजनीति के लिए किसी प्रभावकारी जनहित, आधारहित योजना को बना न पाने के कारण कांग्रेस भी उस रास्ते पर चल पड़ी है जिस रास्ते को भाजपा ने तैयार किया था और उस पर चलकर ही आम आदमी पार्टी ने दो राज्य में सत्ता प्राप्त करने में सक्षम रही। कांग्रेस को भी वही मार्ग सरल और प्रभावकारी नज़र आया और कांग्रेस ने अपने सभी कार्यकार्ताओं के हाथों में युद्ध के बिगुल के स्थान पर धर्म का कमंडल थमा दिया।

Captureराष्ट्रीय स्तर पर लगभग समाप्त हो चुकी कांग्रेस के बड़े नेता अब भविष्य में होने वाले चुनावों के राज्यों में अपनी गतिविधियों को जनता के बीच में लाने के लिए प्रयासरत है। 15 महीनों तक मध्यप्रदेश में एक निष्प्रभावी सरकार चलाने का अनुभव लेने के बाद तीन राज्यों में सत्ता में वापसी का रास्ता कांग्रेस धार्मिक आडम्बर के माध्यम से प्रशस्त करना चाहती है। मध्यप्रदेश में तो इसके लिए बकायदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा सभी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को एक लिखित पत्र भी भेजा गया है। आने वाले दिनों में राम नवमीं और हनुमान जयंती पर कांग्रेसियों को यह प्रदर्शित करना है कि वे भगवान राम के सच्चे अनुयायी है और हिन्दू धर्म की मान्यताओं और परम्पराओं को मानने वाले वे प्रथम वीर पुरुष है। इस हरकत से कांग्रेस से कुछ भला होगा इसकी सम्भावना न के बराबर है। धर्म के प्रति अनुराग प्रर्दर्शित करना और उस अनुराग का राजनैतिक लाभ लेना एक लम्बी प्रक्रिया है, जिससे आरएसएस जैसी संस्था पिछले सौ वर्षो से लगातार गुजर रही है।

इन सौ वर्षो के दौरान जिस हिन्दू निष्ठा को संघ ने भाजपा की राजनैतिक उपलब्धि बना दिया है, उसे काट पाना कांग्रेस के इस छोटे से प्रयास से संभव नहीं है। इसके बावजूद बयानों और कागजों में कांग्रेस को भविष्य में मिलने वाली संभवित पराजय के कारणों में अपने प्रयास की सत्यता का एक प्रमाण जरूर मिल जायेगा। वैसे भी राजनैतिक रूप से हिन्दू धर्म और उसका दर्शन आज राजनीति के लिए एक फुटबाल की तरह हो गया है। जिन श्रेष्ठ परम्पराओं से हिन्दू धर्म की बुनियाद मजबूत होती थी उन कहानियों प्रार्थनाओं को आज युद्ध के उदघोष के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। मस्जिदों में होने वाले अजान के विरुद्ध लाउडस्पिकर से हनुमान चालीसा का गायन करना उन्हीं में से एक है। दुर्गा क्षति के और विभिन्न वैदिक मंत्रों का सिनेमा हाल में चल रही पिच्चर में सास्वर गायन होना वास्तविक वैदिक परम्पराओं को और मापदण्डों का उल्लंघन है पर ऐसा लगता है कि हिन्दू धर्म की और संस्कृति की सभी पद्यतियों को आज कार्पोरेट कल्चर में शामिल कर लिया गया है।

मध्यप्रदेश कांग्रेस ने एक और प्रयास किया है, जहां भविष्य के संभवित मुख्यमंत्री या वरिष्ठ नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष ने एक बैठक में बुलाकर उनसे बदलती राजनीति के संदर्भ में पहली बार चर्चा की है। सामुहिक रूप से एकत्र हुए इन बडे़ नेताओ ने कमलनाथ के आवास पर ही चर्चा की और एक साथ भोजन ग्रहण किया। यह अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं है कि अपने-अपने गुटों को लेकर उपद्रव मचा रहे तमाम राजनेता कुछ मिनिट के लिए ही सही एक बाल्टी मे तो एकत्र हुए और उन्होंने कांग्रेस के हित में किसी विषय पर कोई बातचीत तो की। इस मुलाकात का प्रभाव वास्तव में कुछ नहीं पड़ने वाला यह कुछ ऐसा ही है कि कुश्ती प्रारंभ होने के पहले सभी प्रतियोगी पहलवान आपस में पंजा लड़ाकर एक दूसरे की मास-पेशियों की ताकत का अंदाज लगा रह है। दूसरे अर्थो में समझा जाए तो एकत्र हुए सभी आधारहीन महत्वाकांशी बडे़ नेता बैठक के बाद अपनी व्यक्तिगत रणनीति को और तेज धार देने में जुट गये होंगे। बिचारी कांग्रेस मध्यप्रदेश में सहारों के भरोसे अंतिम सांस ले रही है और उसके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कोई स्थायी आधार नहीं नज़र आ रहा है।

हिंदुत्व-राष्ट्रवाद की चमक फीकी, चुनाव जीतने अब नया प्रयोग

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वर्ष 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पूरे देश में सिर्फ 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी। फिर भाजपा ने हिंदुत्व का कार्ड चला और देखते ही देखते उसकी इतनी सीटें आ गईं कि वह केंद्र की सत्ता में काबिज हो गई। फिर दोबारा सत्ता में आने के लिए उसने राष्ट्रवाद का कार्ड चला और 303 सीटों के साथ वह दोबारा केंद्र की सत्ता में आ गई। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हो गया है। महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। सरकार को इन दोनों ही मुद्दों से निपटने sampadkiy 1का कोई कारगर उपाय नहीं मिल रहा है, जिससे लोगों में सरकार के प्रति नाराजगी है। हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की चमक भी फीकी पड़ती जा रही है, इसलिए भाजपा सरकारें अब विभिन्न योजनाओं में लोगों के खातों में नकद राशि भेजकर वोटों को साधने में जुट गई हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बकायदा इसका प्रयोग किया जा रहा है। सरकार यदि इस प्रयोग में सफल होती है, तो अन्य राज्यों में भी यह प्रयोग दोहराया जाएगा। हालांकि भाजपा की राज्य सरकारों ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है और इसका प्रचार-प्रसार भी शुरू हो गया है।

MP-Election-2023

शिवराज सरकार ने सबसे पहले चुनाव में किसानों को साधने के लिए उनके खातों में राहत राशि भेजना शुरू किया है। सरकार ने 22 महीने में एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए किसानों के खाते में डाल चुकी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शनिवार को ही बैतूल से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में करीब 49 लाख किसानों के खातों में 7618 रुपए का मुआवजा ट्रांसफर किया। उन्होंने मंच से 22 महीने का पूरा हिसाब भी दिया और नाथ सरकार के समय किसानों की उपेक्षा का ब्योरा भी किसानों के बीच परोसा। जल्द ही सरकार ओला पीडि़त करीब एक लाख 72 हजार किसानों को 277 करोड़ रुपए की राहत राशि बांटेगी। हाल में सीएम शिवराज ने महिला स्व सहायता समूहों को 300 करोड़ रुपए का ऋण वितरित किया था। किसानों के साथ ही सरकार का फोकस गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों पर है। विभिन्न योजनाओं में इनके खातों में केंद्र सरकार नकद राशि ट्रांसफर कर रही है। कोरोना काल में केंद्र सरकार ने महिलाओं के खाते में अच्छी खासी राशि ट्रांसफर की। इन सबसे ज्यादा मध्यमवर्गीय लोग परेशान हैं। उनका मानना है कि हम टैक्स चुका रहे हैं और हर तरह की सुविधा बीपीएल कार्डधारकों को दी जा रही है। मध्य प्रदेश में जैसे-जैसे चुनाव का वक्त नजदीक आएगा, हितग्राहियों के खातों में विभिन्न योजनाओं में और ज्यादा राशि ट्रांसफर की जाएगी।

UP-Election-2022

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की केमिस्ट्री

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के घोषणा पत्र ज‍िसे बीजेपी संकल्प पत्र कहती है. इस बार बीजेपी का संकल्प पत्र 16 पन्नों का है, यह 2017 में 32 पन्नों का था. सिर्फ पन्नों में ही नहीं बल्कि वादों में भी कमी हुई है. 2017 में करीब 200 से ज्यादा वादे किए गए थे. इस बार करीब 130 वादे किए गए हैं. बीजेपी के घोषणा पत्र में इस बार हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की झलक दिखी। कुछ खास वादे…

–  बीजेपी लव जिहाद के मुद्दे पर आक्रामक रही है. इस बार बीजेपी ने वादा किया है कि सरकार बनने पर लव जिहाद करने वाले को 10 साल की कैद और 1 लाख रुपये के जुर्माने की सजा का प्रावधान किया जाएगा।

– बीजेपी के घोषणापत्र में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का वादा हमेशा रहता था. पिछली बार भी था. लेकिन अब चूंकि ये वादा पूरा हो गया है, इसलिए पार्टी ने इस बार अयोध्या और भगवान राम से जुड़ा नया वादा किया है। बीजेपी ने अयोध्या में रामायण विश्वविद्यालय बनाने का वादा किया है।

– बुजुर्ग संत, पुजारियों और पुरोहितों से जुड़ी कल्याण की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एक विशेष बोर्ड बनाया जाएगा. मां सकुंभरी देवी के नाम का विश्वविद्यालय बनेगा. वाराणसी, मिर्जापुर और चित्रकूट में रोप-वे बनेगा. इसके अलावा मथुरा में सूरदास ब्रजभाषा अकादमी की स्थापना होगी साथ ही गोस्वामी तुलसीदास अवधी अकादमी भी स्थापित की जाएगी।

– बीजेपी अक्सर दूसरी पार्टियों पर महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाती रही है. इस बार बीजेपी ने घोषणा पत्र में वादा किया है कि अगर सरकार बनी तो सभी महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों को पढ़ाई में शामिल किया जाएगा।

राज्य और जनता के बारे में भी सोचें पार्टियां

देखा जाए तो किसी भी राज्य के चुनावों में सबसे अहम किरदार उस राज्य की जनता का होता है। राज्य की जनता ही अपने राजनेता को वोट के माध्यम से चुनकर सत्ता पर काबिज करती है। लेकिन राजनीतिक पार्टियों का यह प्राथमिक कर्तव्य होता है कि वो जनता के हितों को ध्यान में रखकर कार्य करें, योजनाएं बनाएं और उन पर क्रियान्वयन करें। इससे न सिर्फ राज्य का बल्कि वहां रहने वाली जनता का भला तो होगा ही, साथ ही राजनेताओं के प्रति जनता का विश्वास और मजबूत होगा। क्योंकि अभी तक पूरे राज्य में आलम यह है कि राजनेता वोट तो मांग रहे हैं लेकिन उनकी इस मांग के पीछे जनता से जुड़े लाभ और उनके हित तो दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। इसलिए बेहतर है राजनेता राज्य और राज्य की जनता के बारे में जरूर सोचें।

हिजाब विवाद: समानता की पाठशाला में असमानता का हिजाब क्यों?

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कर्नाटक के उडुपी से स्कूलों में हिजाब पहनने के सवाल पर शुरू हुआ विवाद सियासी रंग लेता जा रहा है। कई राज्यों में स्कूल और कॉलेजों में ड्रेस कोड की बात भी उठ रही है। हिजाब के विरोध और हिजाब के समर्थन में राष्ट्र स्तर पर बहस चालू हो गई है। वैसे देखा जाए तो खानपान और पहनावा हर व्यक्ति नितांत व्यक्तिगत मामला है। किसी भी इनसान sampadkiy 1को क्या पहनना है, क्या खाना यह उसकी खुद की पसंद, नापसंद पर निर्भर है, इसमें बाहरी लोग हस्तक्षेप नहीं कर सकते, लेकिन जब बात स्कूल और कॉलेजों की आती है, तो एकरूपता, एकसमानता से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। आखिर स्कूल-कॉलेजों में यूनिफॉर्म की संकल्पना क्यों लाई गई? इसकी क्या वजह थी। बच्चे अपनी मर्जी से कपड़े, जूते पहनकर स्कूल जा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

स्कूल-कॉलेजों में एकरूपता से कतई समझौता नहीं किया जा सकता

प्राचीनकाल में गुरुकुलों में राजा का बच्चा हो या रंक का, सभी को एकसमान पहनावा अनिवार्य था। आखिर शिक्षा संस्थानों में अलग-अलग पहनावे को स्वीकार कर जाति, धर्म, आस्था के प्रतीक चिन्ह को अनुमति कैसे दी जा सकती है? हमारा देश समानता की बुनियाद पर खड़ा है। स्कूल-कॉलेजों में अगर बच्चों को मर्जी से कपड़े पहनने की  छूट दी गई, तो शिक्षा के इन संस्थानों में जाति, धर्म, अमीरी, गरीबी के बीच गहरी खाई बन जाएगी। अमीरों के बच्चे महंगे कपड़े, महंगे जूते, महंगी घडिय़ां पहनकर स्कूल जाएंगे, जबकि गरीबों के बच्चे ऐसा नहीं कर पाएंगे। इससे उनके मन में एक-दूसरे के प्रति असमानता का भाव पैदा होगा। गरीबों के बच्चों में निराशा का भाव आएगा। बच्चों के मन में समानता का भाव बना रहे, इसलिए स्कूलों में यूनिफॉर्म लागू की गई। अमीर का बच्चा हो या गरीब का, सभी एक समान यूनिफॉर्म पहनकर स्कूल जाएं। उनमें किसी तरह का भेदभाव न रहे। यही वजह है कि स्कूल और कॉलेज के लिए यूनिफॉर्म का निर्धारण हमेशा से होता रहा है। आज भी कॉन्वेंट स्कूल हों या बड़े-बड़े प्रायवेट स्कूल, उनमें यूनिफॉर्म लागू है। उसे सभी पंथ, मजहब और आस्थाओं के लोग स्वीकार भी करते हैं। फिर सरकारी स्कूलों में ड्रेस कोड के खिलाफ बवाल क्यों? स्कूल सबके लिए समान हैं। ऐसे में एक धर्म विशेष के लोगों को मनमर्जी करने की छूट नहीं दी जा सकती। निजी स्तर पर हिजाब पहनने पर न तो कोई सरकार रोक लगा सकती है और न लगाना चाहिए।

लड़कियों को पीछे रखने का षड्यंत्र तो नहीं

आधुनिक समय में हर चीज़ लगातार अपडेट हो रही है। ऐसे में समय के साथ मान्यताओं, प्रथाओं को भी अद्यतन किया जाना जरूरी है। महिलाएं बराबरी के साथ पढ़ाई, लिखाई और तरक्की करना चाहती हैं। धार्मिक विश्वास के नाम पर हिजाब की संस्कृति लड़कियों को पीछे रखने का षड्यंत्र तो नहीं है। ऐसा लगता है यह विवाद अनावश्यक है और इसे जानबूझकर बढ़ाया जा रहा है। आज लड़कियों में आगे बढऩे की हिम्मत और हौसला बढ़ाने की जरूरत है, न कि ऐसे सवाल उठाकर उन्हें पीछे धकेलने की जरूरत है। दुनिया में पढ़ी लिखी मुस्लिम महिलाएं बुर्के और हिजाब के खिलाफ़ मुहिम चला रही हैं. इस मुहिम को बड़े पमाने पर मुस्लिम पुरुषों का भी समर्थन मिल रहा है। भारतीय मुस्लिम समाज में पर्दे को लकर काफी खुलापन आया है। मुस्लिम लड़किया बुर्का या हिजाब पहने या नहीं ये उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए. ये उनका संवैधानिक अधिकार भी है। स्कूलों में ड्रेस कोड के नाम पर बुर्के या हिजाब के खिलाफ प्रोपगंडा चलाना उचित नहीं है।

कुरान में हिजाब का उल्लेख नहीं

कुरान में हिजाब का उल्लेख नहीं बल्कि खिमार का उल्लेख किया गया है। हिजाब और खिमार दोनों तरीकों से महिलाओं अपना शरीर ढक सकतीं है। हालांकि इन दोनों तरीकों से शरीर को ढकने के तरीके में थोड़ा सा अंतर है। सूरह अल-अहजाब की आयत 59 में कहा गया है-ऐ पैगम्बर, अपनी पत्नियों, बेटियों और ईमान वालों की महिलाओं से कहा कि वे अपने बाहरी वस्त्रों को अपने ऊपर ले लें। यह ज्यादा उपयुक्त है। न उन्हें पहचाना जाएगा और न उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाएगा। अल्लाह सदैव क्षमाशील और दयावान है।

बिकनी पर विवाद में फंस गईं प्रियंका

कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी मंझे हुए राजनेता की तरह सधे हुए बयान देती हैं, जिससे वे कभी विवादों में नहीं फंसती, लेकिन हिजाब वाले मामले में वे विवादों में घिर गई। हिजाब के समर्थन में उतरीं प्रियंका गांधी ने ट्वीट कर कहा कि चाहे वह बिकिनी हो, घूंघट हो, जींस की जोड़ी हो या हिजाब; यह तय करना एक महिला का अधिकार है कि वह क्या पहनना चाहती है। यह अधिकार भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत है। महिलाओं को प्रताडि़त करना बंद करो। इस ट्वीट के बाद वे जमकर ट्रोल हुर्ईं। एक यूजर ने लिखा कि प्रियंका गांधीजी, कोई एक लड़की बताओ, जो बिकिनी, घूंघट या सिर्फ अकेली जींस में स्कूल जाती है! कृपया तथ्यों पर बात करें। मुद्दा स्कूल यूनिफॉर्म का है और कुछ नहीं।

पत्रकारों को बिकाऊ कहने से पहले समाज अपना गिरेबान टटोले तो बेहतर होगा 

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पत्रकार वो है जो समाज मे देखता है , अनुभव करता है अपने ज्ञान के आधार पर उसका विश्लेषण करता है , फिर उसे सार्वजनिक मंच पर लाता है इस प्रकिया में जन उपयोगी मुद्दो को उभारने में उसकी सक्रीय भूमिका होनी चाहिये । गण और तंत्र के बीच सवांद की कड़ी है पत्रकार । लेकिन इस प्रक्रिया मे उसे रोचकता लानी पड़ती है और ये रोचकता वैध तरीके से नही आती है क्योकि इसके लिये पर्याप्त रचनात्मकता चाहिये जो अधिक मेहनत और कुशल लेखको का काम है, लेकिन कुकरमुत्तो की तरह उग आई 'पत्रकारिता की डिग्रियो की दुकाने " किसी को भी डिग्री तो दे दे्ती है लेकिन उसे पत्रकार नही बनाती ' ये डिग्रीधारी पढा लिखा आदमी समाज और व्यवस्था की समझ भी विकसित नही कर पाता ना उसे लेखन और साहित्य की समझ होती है।

समाज में अब हर काम के लिये शार्टकट तरीके ' अपनाने का चलन है, फिर चाहे वो अनुचित ही क्यो ना हो। अब मौलिक लेखन /साहित्य आदि के प्रति जनरुझान न के बराबर होता है फिर  खब मे रोचकता लाने के लिये आसान विकल्प अपनाया जाता है , आटे मे नमक के तौर पर हास्य/ग्लैमर /सनसनी का प्रयोग किया जाता है , धीरे धीरे ये 'नमक' का स्वाद ' नमकीन' होकर लोगो को इतना भाता है कि मूल खबर लापता हो जाती है , फिर खबर के ये  ' सह उत्पाद' ही ' मूल उत्पाद' की शक्ल लेने लगते है , और वर्तमान में यही हो रहा है।

लोगो को 'सनसनी' पसन्द है तो पत्रकार उसे ही परोसने दौड़ता है क्योकि अगर पत्रकार दिन भर ये दिखाता रहे ' देखो ये हो रहा है" यहां गलत हुआ है , अपराध हुआ है सरकार को ऐसा करना चाहिये " किसान गरीब /मजदूर / आदिवासी पर जुल्म , हिंसा /अपराध/ बलात्कार फलां फला तो आप उठकर टीवी बन्द कर दोगे और अखबार फेंक दोगे क्योकि आपको दर्द हुआ , बैचेनी हुई समाज में ये क्या हो रहा है , आप झुझलाहट से भर जाते है , फिर आपको 'मजा' चाहिये , खबर में भी 'आनन्द चाहिये ' आप खबर ग्लैमर/हास्य/सनसनी वाले 'सह उत्पाद' को ही 'मूल उत्पाद' बना देते हो ।

इन्हे ही बेचकर पत्रकार और मीडिया हाउस इन्हे ही बेचकर पैसे कमाने लग जाते है, इस प्रक्रिया मे लोग भी खुश और मीडिया भी खुश। क्योकि खबर अब समाज में विचार करने का प्रश्न नही 'रोचकता ' और' मनोरजंन की विषय वस्तु हो गई है।
एक बड़ा कारण प्रचार माध्यमों को 'खबरे दिखाने के अतिरिक्त' विभिन्न कम्पनियो और मनोरजंन के 'उत्पाद' का भी विज्ञापन करना होता है।
ये 'आनन्ददायक' विज्ञापन ' खबरो की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित करते है।

पत्रकार क्यो अपने पेशे भटक जाता है:…

" ये दुनिया बड़ी जालिम है सत्य का तलबगार नही कोई " शुरुआत में सब सत्य लिखते है कोशिश करते है समाज के अप्रिय सत्य को उजागर करने की परन्तु जड़ समाज और संवेदनहीन तंत्र का तीव्र प्रतिकार होता है। आय के जरिये सीमित हो जाते है , ऐसे में टिके रहना अक्सर मुश्किल होता है । फिर ' मीडिया मुगलो' की गुलामी और 'मनसबदारी" का लालच।
कुल मिलाकर हम ये कह सकते है कि ' पत्रकारों को बिकाऊ कहने से पहले समाज अपना गिरेबान टटोले तो बेहतर होगा कि क्यो पत्रकारिता के मूल्य समझने वाला ईमानदार पत्रकार दर दर मारा फिरता है "

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