Tuesday, August 5, 2025
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सीएम की समीक्षा बैठकें, क्या 21 महीने में आत्मनिर्भर बन पाएगा मध्यप्रदेश?

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वर्ष 2003 से प्रदेश में सत्ता की बागडोर भाजपा के हाथ में है। इस दरमियान सिर्फ 15 महीने को छोड़कर बचे हुए करीब 17 साल भाजपा सरकार में रही। शिवराज सिंह चौहान मार्च, 2020 में चौथी बार प्रदेश में मुख्यमंत्री बने। इससे पहले के कार्यकाल में उन्होंने प्रदेश को स्वर्णिम मप्र बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत की। वे इस संबंध में मंत्रियों-अधिकारियों को समय-समय पर निर्देश देते रहे। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने स्वर्णिम मप्र को लेकर लगातार बैठकें कर नौकरशाही को निर्देश दिए। यह कवायद वोटरों की लुभाने के लिए थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा हार गई, sampadkiy 1कमलनाथ मुख्यमंत्री बन गए और शिवराज सिंह चौहान का प्रदेश को स्वर्णिम बनाने का सपना पूरा नहीं हो पाया। पंद्रह महीने बाद ही कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और शिवराज चौथी बार मुख्यमंत्री बन गए। इस बार उन्होंने 'स्वर्णिम मप्र' की बजाय प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिया है। यह संकल्प प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनर्भिर भारत बनाने के संदर्भ में लिया गया है। करीब डेढ़ साल से मुख्यमंत्री प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने की कवायद में जुटे हैं। देशभर के विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा करने के बाद आत्मनिर्भर मप्र का रोडमैप तैयार किया गया है। इस संबंध में मुख्यमंत्री विभिन्न विभागों की दर्जनों बैठकें कर चुके हैं। निर्देश दे चुके हैं, लेकिन अब तक सरकार प्रदेश को अत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कुछ खास हासिल नहीं कर पाई है।

सीएम की समीक्षा बैठको में 52 विभागों की समीक्षा

अब जब प्रदेश में विधानसभा चुनाव को सिर्फ 21 महीने बचे हैं, तो कोरोना से निपटने की चुनौती के बीच मुख्यमंत्री ने प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कार्रवाई तेज कर दी है। इसी कड़ी में उन्होंने हाल में एक के बाद बैठकें कर सभी 52 विभागों की समीक्षा कर डाली और मंत्रियों-अधिकारियों को प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने को लेकर दिशा-निर्देश दिए। अधिकारियों को अपने-अपने विभागों को लेकर ऐसे भारी-भरकम टास्क दिए गए हैं, जिन्हें चंद महीनों में पूरा कर पाना नामुमकिन नजर आ रहा है। और हां, यह बात तय है कि यदि अफसर समीक्षा बैठकों में दिए गए सीएम के दिशा-निर्देशों पर पूरी तरह से अमल करते हैं, तो मध्यप्रदेश विकास का न्याय अध्याय लिखने में सफल हो जाएगा। जैसा कि कहा जाता है, कहना आसान होता है, करना मुश्किल। जानकारों की मानें तो शिवराज अपने पिछले कार्यकालों में भी इस तरह बैठकें कर प्रदेश के विकास को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करते रहे हैं, पर उनका नतीजा सिफर रहा।

प्रदेश में उद्योग के क्षेत्र में निवेश को ही ले लीजिए। पिछले कार्यकाल में मुख्यमंत्री चौहान ने ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट पर करोड़ों रुपए खर्च कर डाले, लेकिन वे उम्मीद के मुताबिक निवेशकों का विश्वास जीतकर प्रदेश में निवेश लाने में कामयाब नहीं हो पाए। कृषि की बात करें, तो यह प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।

किसान आत्महत्या में प्रदेश, देश में नंबर एक पर

मुख्यमंत्री शिवराज वर्षों से किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रहे हैं, लेकिन आज भी प्रदेश के किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। किसान आत्महत्या में प्रदेश, देश में नंबर एक पर है। सरकार इस साल रबी सीजन में किसानों को डीएपी और यूरिया तक उपलब्ध नहीं करा पाई। बड़ा सवाल यह है कि शिवराज सिंह चौहान जो काम अपने 16 साल से ज्यादा के कार्यकाल में नहीं कर पाए, क्या वह बचे हुए 21 महीनों में कर पाएंगे?

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सीएम की हिदायत, पर नहीं रुक रहा भ्रष्टाचार

प्रदेश में सरकारी तंत्र में किस हद तक भ्रष्टाचार व्याप्त है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आए दिन ईओडब्ल्यू और लोकायुक्त के छापों में अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेते पकड़े जा रहे हैं। उनके पास से करोड़ों रुपए की काली कमाई जब्त हो रही है। यह स्थिति तब है, मुख्यमंत्री  अधिकारियों को फटकार लगाते हुए  भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करने की बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, मैं भ्रष्टाचार करने वालों को छोड़ूगा नहीं। सीएम पिछले 16 साल से भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात कर रहे हैं, लेकिन सरकारी नुमाइंदे सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। उन पर मुख्यमंत्री की हिदायत का कोई असर नहीं हो रहा है। ऐसे में आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश की बात बेमानी नजर आ रही है।

समीक्षा बैठकों में मुख्यमंत्री के कुछ निर्देशों पर गौर करिए….

 – उज्जैन के महाकाल मंदिर का जीर्णोद्धार काशी विश्वनाथ मंदिर की तर्ज पर किया जाए।
– होशंगाबाद और बैतूल को मिलाकर वन पर्यटन सर्किट बनाया जाए।
– एफपीओ के लिए स्टेट का मॉडल तैयार करें।
– नर्मदा सिंचाई परियोजनाओं से अगले तीन वर्ष में छह लाख हेक्टेयर में सिंचाई बढ़ाएं।
– ऑनलाइन एजुकेशन के मामले में मप्र को मॉडल बनाएं। हम कुछ ऐसे कोर्सेस का एनालिसिस करें, जिनसे नौकरी मिले।

किसानों का दर्द बांटने खेतों तक नहीं पहुंची ‘सरकार’

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किसान आंदोलन और राजनीतिक महत्वाकांक्षा

भारत में अन्नदाताओं का बहुत बड़ा वोट बैंक है। सरकार बनाने और गिराने में किसानों की अहम् भूमिका रहती है। यही वजह कि तमाम सरकारों और राजनीतिक दलों को चुनावी मौसम में किसान याद आ ही जाते हैं। राजनीतिक दलों की ओर से किसानों को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं। कोई भी सरकार  किसानों को नाराज नहीं करना चाहती। मोदी सरकार को ही ले लीजिए। किसानों के कल्याण की बात कहकर तीन कृषि कानून लाए गए, लेकिन इसके विरोध में किसानों ने आंदोलन शुरू कर दिया। दंभ में डूबी मोदी सरकार ने साल भर आंदोलनकारी किसानों की सुध नहीं ली, sampadkiy 1लेकिन जब भाजपा के सर्वे में पंजाब व उत्तरप्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में किसान आंदोलन से पार्टी को भारी नुकसान की बात सामने आई, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से माफी मांगते हुए तीनों कृषि कानून वापस ले लिए। हालांकि तब तक आंदोलनकारी 700 से ज्यादा किसान शहीद हो चुके थे। किसान आंदोलन से उत्तरप्रदेश और पंजाब चुनाव में भाजपा को कितना नुकसान होगा, यह आने वाला वक्त बताएगा।

मध्‍यप्रदेश में महंगाई और मौसम की मार से परेशान क‍िसान

अब मध्यप्रदेश की बात। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान वैसे तो खुद को किसान पुत्र बताकर किसानों का रहनुमा होने का दावा करते हैं, लेकिन इस साल रबी सीजन में डीएपी और यूरिया की भारी कमी ने सरकार के किसान हितैषी होने के दावे की पोल खोलकर रख दी। कई जगह डीएपी-यूरिया के लिए लाइनों में लगे किसानों पर पुलिस ने लाठियां बरसाईं। इससे किसानों में सरकार के प्रति भारी रोष है। किसानों ने मजबूरी में महंगे दामों पर डीएपी और यूरिया खरीदकर जैसे-तैसे बोवनी की, तो उनसे मौसम रूठ गया। हाल के दिनों हुई बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से प्रदेश के दो दर्जन जिलों में खेतों में खड़ी चना, मसूर, गेहूं, सरसों, मटर और सब्जी का फसल को काफी नुकसान हुआ। प्रदेश में ओलावृष्टि से अब तक 1,04,611 हेक्टेयर क्षेत्र में रबी फसलों को नुकसान पहुंचने का अनुमान है। प्रारंभिक रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश जिलों में 25 से 33 प्रतिशत के बीच नुकसान का आंकलन किया गया है। ओलावृष्टि से फसलों के नुकसान की राशि करीब 900 करोड़ रुपए आंकी गई है। खास बात यह है कि इस बार मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य ओलाव़ष्टि से हुआ नुकसान देखने खेतों में नहीं पहुंचे। अपने पिछले कार्यकाल में सीएम शिवराज कई मौकों पर अतिवृष्टि व ओलावृष्टि से हुए नुकसान का जायजा लेने खेतों में पहुंचते नजर आए। वर्ष 2019 में कमलनाथ जब मुख्यमंत्री थे और प्रदेश में ओलावृष्टि से फसलों को नुकसान हुआ था, तो शिवराज सिंह चौहान ने कमलनाथ पर तंज कसते हुए उनसे खेतों में जाने को कहा था, लेकिन विभागों की समीक्षा में मशगूल होने की वजह से इस बार वे खुद खेतों में जाकर नुकसान का जायजा लेना भूल गए। महंगे डीजल, खाद, बीज से प्रदेश का किसान परेशान है। उन्हें फसलों का उचित दाम नहीं मिल रहा है। किसानों बैंकों का कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं। करीब 21 महीने बाद प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना है। पिछले चुनावों की तरह इस बार भी किसान निर्णायक भूमिका में रहेंगे।

भाजपा कैसे करेगी किसान कर्ज माफी की काट

किसान कर्ज माफी को लेकर तत्कालीन कमलनाथ सरकार को घेरने वाली भाजपा चौथी बार सत्ता में आने के बाद किसान कर्ज माफी पर खुद ही घिर गई। दरअसल, सितंबर, 2020 में आयोजित सत्र में कांग्रेस विधायक जयवद्र्धन सिंह और बाला बच्चन के प्रश्नों के जवाब में कृषि मंत्री कमल पटेल ने सदन में बताया था कि किसान कर्ज माफी के लिए चलाए गए दो चरणों में कमलनाथ सरकार ने 26 लाख 95 हजार किसानों का कुल 11,500 करोड़ रुपए का कर्ज माफ किया है। इसके बाद किसान कर्ज माफी को लेकर भाजपा बैकफुट पर आ गई। आगामी विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस किसान कर्ज माफी करने की तैयारी कर रही है। देखना होगा कि भाजपा किसान कर्ज माफी की काट कैसे करेगी?

सरकार की गले की फांस बने पंचायत चुनाव

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जिसका अंदेशा था, वही हुआ। सरकार की महीने-डेढ़ महीने की कवायद के बाद भी प्रदेश में  त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव नहीं हो पाए, टल गए। पंचायत चुनाव में फंसा ओबीसी आरक्षण का पेंच सरकार की गले की फांस बन गया है। ओबीसी आरक्षण का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। ऐसे में यह कह पाना मुश्किल है कि पंचायत चुनाव कब तक होंगे और sampadkiyहोंगे तो ओबीसी आरक्षण के साथ होंगे या ओबीसी आरक्षण के बगैर। गेंद अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में हैं। पंचायत चुनाव की आड़ में कांग्रेस को घेरने निकली भाजपा सरकार खुद ही अपने बुने जाल में उलझ गई। सरकार भारी असमंजस में है। वह खुद के द्वारा लागू किए गए पंचायत राज संशोधन अध्यादेश को वापस लेकर फिर नया अध्यादेश लागू कर चुकी है। शासन पंचायतों को वित्तीय अधिकार सौंपकर दो दिन बाद ही वापस ले चुका है।

सरकार की पंचायत चुनाव की मंशा पर खड़े हो गए सवाल

दरअसल, भाजपा सरकार ने 21 नवंबर की देर रात मप्र पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज (संशोधन) अध्यादेश-2021 लागू कर दिया। इस संशोधन अध्यादेश में पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार द्वारा कराए गए परिसीमन को निरस्त कर वर्ष 2014 में लागू आरक्षण के आधार पर पंचायत चुनाव कराने का प्रावधान किया गया था। इस अध्यादेश के लागू होने के साथ ही सरकार की पंचायत चुनाव कराने की मंशा पर सवाल खड़े हो गए थे, क्योंकि कानून कहता है कि पंचायत चुनाव से पहले पंचायतों का परिसीमन और सीटों का रोटेशन कराना जरूरी है। परिसीमन इसलिए कि ग्राम पंचायत की बढ़ी हुई आबादी के आधार पर नए वार्ड, नई पंचायतें बनाई जाएं और रोटेशन इसलिए कि चुनाव में बारी-बारी से सभी वर्गों को मौका मिल सके, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। सरकार जानती थी कि कांग्रेस इसके विरोध में कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगी और यदि कोर्ट ने चुनाव पर रोक लगाई, तो हम इसका ठीकरा कांग्रेस के सिर पर फोड़ देंगे। हुआ भी ऐसा ही, परिसीमन निरस्त करने और रोटेशन नहीं कराने के विरोध में कांग्रेस से जुड़े लोगों ने मप्र हाईकोर्ट में याचिकाएं दायर कर दीं। इस बीच राज्य निर्वाचन आयोग ने 4 दिसंबर को आनन-फानन में पंचायत चुनाव का ऐलान कर दिया। हाईकोर्ट ने चुनाव रोकने से इनकार कर दिया। कांग्रेस से जुड़े लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और फिर जो हुआ, उसके बारे में न भाजपा सरकार ने सपने में भी नहीं सोचा था। सुप्रीम कोर्ट ने प्रदेश के पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण पर रोक लगाते हुए ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों को सामान्य सीट मानते हुए चुनाव कराने का आदेश दे दिया।  इस आदेश से सरकार पूरी तरह से बैकफुट पर आ गई। इस आदेश के पालन में राज्य निर्वाचन आयोग ने ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों पर चुनाव प्रक्रिया स्थगित कर दी। तब तक पहले और दूसरे चरण के पंचायत चुनाव के लिए प्रत्याशी नामांकन दाखिल कर चुके थे और उन्हें चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिए गए थे। उन्होंने प्रचार भी शुरू कर दिया था। कांगे्रस को भाजपा सरकार को घेरने का मौका मिल गया। संयोग से इस बीच 20 दिसंबर से विधानसभा का शीतकालीन सत्र शुरू हो गया। कांग्रेस ने पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर विधानसभा में जमकर हंगामा किया। सदन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ओबीसी आरक्षण के साथ ही पंचायत चुनाव कराने की बात कही। 23 दिसंबर को ओबीसी आरक्षण के साथ पंचायत चुनाव कराए जाने को लेकर विधानसभा में सर्वसम्मति से अशासकीय संकल्प पारित किया गया और सरकार ने ओबीसी आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करने के लिए 3 जनवरी की तारीख दी। इसके बाद सरकार ने 21 नवंबर को जिस पंचायत राज संशोधन अध्यादेश को मंजूरी दी थी, उसे 26 दिसंबर को वापस ले लिया। यानी कमलनाथ सरकार के समय का परिसीमन और रोटेशन लागू हो गया। इसके बाद राज्य निर्वाचन आयोग ने पंचायत चुनाव निरस्त कर दिए। सरकार ने फिर पंचायत राज संशोधन अध्यादेश को मंजूरी दी, जिसमें कमलनाथ सरकार के समय किए गए पंचायतों के परिसीमन को निरस्त कर दिया।

प्रत्याशी आज खुद को ठगा सा महसूस कर रहे

सरकार प्रदेश में ओबीसी वोटरों की गिनती करा रही है, ताकि डाटा सुप्रीम कोर्ट में पेश किया जा सके। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 17 दिसंबर को सुनवाई होना है। इस बीच पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने पूर्व सरपंचों, पूर्व जनपद अध्यक्षों और पूर्व जिला पंचायत अध्यक्षों से लिए गए वित्तीय अधिकार उन्हें वापस दे दिए। दो दिन बाद फिर विभाग ने उनसे वित्तीय अधिकार वापस ले लिए। जो भी है, पंचायत चुनाव में मैदान में उतरे प्रत्याशी आज खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। उनका समय बर्बाद हुआ, पैसा बर्बाद हुआ और इज्जत भी गई। यही वजह है कि उनमें सरकार के प्रति खासी नाराजगी है। साथ ही दावेदारों को पंचायत चुनाव का बेसब्री से इंतजार है।

इन पदों के लिए हो रहे थे चुनाव

जिला पंचायत सदस्य – 859
जनपद पंचायत सदस्य – 6,727
सरपंच – 22,581
पंच – 3,62,754

छोडना होगी विभाजन की मानसिकता

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भविष्य की आहट

डा. रवीन्द्र अरजरिया

देश में दासताकालीन मनमाने निर्णयों को लागू करने का  प्रचलन अभी बंद नहीं हुआ है। तालिबानी फरमानों की तर्ज पर केन्द्र के भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने एक पत्रकार वार्ता के दौरान पत्रकारों को टोल प्लाजा पर शुल्क मुक्त यात्रा की सुविधा न देने की घोषणा करते हुए आदर्शों का बखान कर डाला। वे पत्रकारों की ओर टोल पर नि:शुल्क प्रवेश के निवेदन पर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अच्छे रोड का उपयोग करना है तो टोल जरुर देना होगा। यह एक अच्छी पहल है परन्तु इसकी सीमा में राजनेताओं के काफिले, वेतन और सुविधायें पाने वाले जनप्रतिनिधि, सरकारी बजट का उपयोग करने वाले अधिकारी जैसे लोगों को नहीं लिया गया है। जिनके पास जनता के टैक्स से जमा किये गये पैसों से बडे-बडे बजट आते हैं, विभिन्न मद होते हैं, भारी भरकम यात्रा बिल लगाये जाते हैं, उस सभी को छूट देने का प्राविधान है। एक देश में एक कानून लागू न करके उसमें श्रेणी विभाजन कर दिया गया है। यानी कि सरकारी अधिकारी, राजनेता, जनप्रतिनिधियों जैसे लोगों को मिलाकर एक अलग वर्ग का निर्माण कर दिया गया है। इस वर्ग के अनेक लोगों के वाहनों में अनाधिकृत रूप से सायरन भी लगा होता है जिसकी आवाज दूर से ही सुनकर टोल गेट खुल जाते है। एक-एक विधायक और सांसद के अनेक वाहनों पर उनके पदनाम की पट्टिका चमकती दिखती है, जिस पर उनके क्षेत्र का नाम भी अंकित नहीं होता यानी कि जिस क्षेत्र में गये वहीं के विधायक या सांसद हो गये। इन अनेक वाहनों का उपयोग जनप्रतिनिधियों के परिजन-स्वजन धडल्ले से कर रहे हैं। सरकारी वाहनों की बात तो और भी निराली है। इन वाहनों के रखरखाव पर तो एक बडी धनराशि खर्ज होती है। बात पत्रकारों के लिए टोल फ्री होने की नहीं है, बल्कि देश में दो तरह की व्यवस्था की है। इस दिशा में कभी भी प्रयास नहीं हुआ कि सम्पूर्ण देश में एक कानून लागू हो जो सभी पर सामान्य रूप से प्रभावी हो। कभी जाति के आधार पर कानून बना दिये गये तो कभी क्षेत्र के आधार पर। कभी जनसंख्या के आधार पर तो कभी अतीत के आधार पर। कुल मिलाकर विभाजन करके सत्ताधारियों ने अपनी वोट बैंक की राजनीति को ही पोषित किया है। ऐसे लोगों को स्वयं सरकारी तंत्र में काम करने वालों पर विश्वास नहीं है। तभी तो सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों से लेकर जनप्रतिनिधियों तक के बच्चों के दाखिले ख्याति प्राप्त निजी संस्थानों में होते हैं, उनके परिवार का इलाज सुविधा संपन्न निजी चिकित्सालयों में होता है।

                    लोक के इस तंत्र के समक्ष आज एक प्रस्ताव रखने का मन हो रहा है। देश के सभी सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों-राजनैतिक दलों के पदाधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा और उनके परिवारजनों का सरकारी अस्पतालों में इजाज अनिवार्य कर दिया जाये। ऐसा न करने पर उन्हें अपने पद पर बने रहने की पात्रता स्वमेव समाप्त हो जाये। इस प्रस्ताव को पढने के बाद ही केन्द्र से लेकर प्रदेश सरकारों तक के माथे की लकीरें गहरा जायेंगी। सरकारी अधिकारियों से लेकर राजनैतिक खेमों में हलचल मच जायेगी। इन उत्तरदायी लोगों को जब सरकारी स्कूलों की पढाई से स्वयं के बच्चों का भविष्य उज्जवल नहीं दिखता, सरकारी अस्पतालों के चिकित्सकों की योग्यता पर विश्वास नहीं है तो फिर उन पर देश के मेहनतकश लोगों की कमाई के अंश को क्यों जाया किया जा रहा है। जो लोग आम नागरिकों की कमाई में से मिलने वाले टैक्स पर जीवकोपार्जन कर रहे हैं, उन्हें अपने ही बनाये हुए तंत्र की योग्यता पर विश्वास नहीं हैं।

                    देश में जब तक वर्ग विभाजन होता रहेगा तब तक सभी में एक दूसरे प्रति सम्मान का भाव जागना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। योग्यता, प्रतिभा जैसे गुणों से दायित्वबोध होना चाहिए न कि अह्मबोध। जनप्रतिनिधि बनने के पहले और बाद के आचरण, अधिकारी की कुर्सी मिलने के पहले और बाद का व्यवहार और उच्चतम संबंध बनने के पहले और बाद के संवाद बिलकुल बदले हुए होते हैं। नम्रता, सरलता और सौम्यता जैसे गुणों का तत्काल लोप हो जाता है। एक ओर सरकारी दस्तावेजों में जाति विवरण मांगा जाता है। दूसरी ओर जाति सूचक शब्दों के प्रयोग पर अपराध पंजीकृत हो जाता है। एक ओर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का भेद पैदा किया जाता है तो दूसरी ओर सभी को सौहार्दपूर्ण व्यवहार करने की शिक्षा दी जाती है। यह सारी स्थितियां स्वाधीनता के पहले भी थीं और आज भी हैं। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप शक्ति सम्पन्न लोगों ने सत्ता पर काविज बने रहने के लिए अपने-अपने सिध्दान्त थोपे और बन गये पूरे समाज के ठेकेदार। सरलता से जीवकोपार्जन की राह पर चलने वाले निरीह लोगों ने असहज होकर सब कुछ स्वीकार किया। इन स्वीकार करने वाले कुछ लोगों ने जागरूकता दिखाई तो उन्ही शक्ति संपन्न लोगों ने उन्हें भी एक टुकडा पकडाकर खूंटे से बांधने का प्रयास किया। ऐसे देश समान आचार संहिता लागू करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। जिस प्रस्ताव की हम बात कर रहे हैं उसे पढते ही कथित ठेकेदारों, उत्तरदायी अधिकारियों और अह्म पोषित लोगों की आंखें धुंधला देखने लगेंगी। आखिर  लोक के तंत्र को स्वयं की व्यवस्था पर ही विश्वास करना होगा और छोडना होगी विभाजन की मानसिकता। तभी देश एक सूत्र में बंध सकेगा और विकास के नये सोपान भी तय कर सकेगा। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नयी आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

पोर्न देखने के मामले में अमेरिका और इंग्लैंड से भी आगे हैं भारतीय महिलाएं

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नई दिल्ली : बढ़ती सेक्स एजुकेशन के बावजूद पॉर्नोग्रफी साइट के प्रति लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है. सबसे बड़ी पोर्नोग्राफी वेबसाइट pornhub की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है. Pornhub की तरफ से जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में उनकी वेबसाइट पर कुल 33.5 बिलियन यूजर्स ने विजिट किया. यह आंकड़ा साल 2017 की तुलना में 5 बिलियन ज्यादा है. हर दिन इस पोर्न वेबसाइट पर औसतन 92 मिलियन (9 करोड़ 20 लाख) यूजर्स आते हैं.

पोर्न देखने के मामले में भारतीय तीसरे नंबर पर
पोर्नहब की तरफ से जारी रिपोर्ट में बताया गया कि पोर्न देखने के मामले में भारतीय तीसरे नंबर पर हैं. इसमें पहले नंबर पर अमेरिका और दूसरे पर इंग्लैंड का नंबर आता है. यानी इस साइट पर अमेरिका से सबसे ज्यादा ट्रैफिक, दूसरे नंबर पर ब्रिटेन और तीसरे पर भारत से ट्रैफिक आता है. चौथे नंबर पर जापान और पांचवे पर कनाडा के यूजर्स हैं. एक साल पहले 2017 में जारी की गई रिपोर्ट में भी भारत का तीसरा नंबर था. लेकिन अगर बात करें भारतीय महिलाओं की तो वे अमेरिका और इंग्लैंड की महिलाओं से कहीं आगे हैं.

70 प्रतिशत भारतीय पुरुष देखते हैं पोर्न
भारत में 70 प्रतिशत पुरुष इंटरनेट पर पॉर्न कंटेंट देखते हैं, वहीं 30 फीसदी महिलाएं इंटरनेट पर पोर्न कंटेंट तलाशती हैं. भारतीय महिलाओं में पिछले साल के मुकाबले 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी आई है. साल 2017 में 26 प्रतिशत भारतीय महिलाएं पोर्ट कंटेंट देखती थीं. दुनियाभर के आंकड़ों की बात करें तो 29 प्रतिशत महिलाएं पोर्नोग्राफी वेबसाइट pornhub देखती हैं. वहीं दुनियाभर में एक यूजर एवरेज 10 मिनट 13 सेकेंड का टाइम पोर्न वेबसाइट पर देता है. टाइम देने के मामले में सबसे आगे फिलीपींस के यूजर है, जो 13.50 मिनट पोर्न वेबसाइट पर स्पेंट करते हैं. वहीं भारतीय औसतन 8 मिनट 23 सेकेंड पोर्न वेबसाइट पर बिताते हैं.

इस देश की महिलाएं सबसे ज्यादा देखती हैं पोर्न
पोर्न वेबसाइट पर महिलाओं की तरफ से बिताएं जाने वाले समय की बात करें तो फिलीपींस के 62 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले वहां की 38 प्रतिशत महिलाएं पोर्न देखती हैं. इस मामले में 35 प्रतिशत के साथ ब्राजील और साउथ अफ्रीका की महिलाएं दूसरे नंबर पर हैं. वहीं भारतीय महिलाएं 30 प्रतिशत के साथ चौथे नंबर पर हैं. बात करें अमेरिका की तो यहां पर 28 प्रतिशत महिलाएं पोर्न वेबसाइट की विजिट करती हैं. वहीं इंग्लैंड में 27 फीसदी महिलाएं pornhub की यूजर हैं.

भारतीयों को सबसे ज्यादा ये पसंद
भारतीयों की पसंद की बात करें तो सनी लियोनी अभी भी इंडियंस की पसंदीदा पोर्नस्टार बनी हुई हैं. दूसरे नंबर पर मिया खलीफा हैं. किम कार्दशियन का 15 साल पुराना सेक्स टेप अभी भी पोर्नहब का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला वीडियो बना हुआ है. वेबसाइट की तरफ से बताया गया कि इस वीडियो हर मिनट करीब 55 व्यूज मिलते हैं.

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