सागर: बुंदेलखंड में शारदेय नवरात्र में जगह-जगह माता की स्थापना की जाती है. एक से बढ़कर एक झांकिया और पंडाल बनाए जाते हैं. इनमें अगर सागर शहर की 121 साल पुरानी पुरव्याऊ टौरी पर स्थापित होने वाली माता की चर्चा ना हो, तो कुछ अधूरा सा लगता है. जी हां शहर में पुरव्याऊ टौरी की माता का अपना विशेष आकर्षण होता है. एक तो मां टौरी पर विराजती हैं और उससे बड़ा उनका पंडाल होता है.
खास बात ये है कि 1905 में मां की मूर्ति जैसी बनाई गई थी, आज भी वैसी ही बनाई जाती है. इसके अलावा माता जी पहली साल की तरह 120 साल बाद भी अपने भक्तो के कंधों पर सवार होकर जाती हैं और सागर शहर जय माई के जयकारों से गूंज उठता है.
1905 में हुई थी दुर्गा स्थापना की शुरुआत
पुरव्याऊ टौरी वाली माता को लेकर स्थापना समिति के अध्यक्ष राजेन्द्र सिंह राजपूत बताते हैं कि "1905 में हमारे पूर्वज हीरा सिंह राजपूत ने मां दुर्गा की स्थापना की शुरूआत की थी. तब से लेकर आज तक चाहे कोरोना जैसी महामारी आई हो या फिर कोई प्राकृतिक आपदा, लेकिन हमारी मां दुर्गा की स्थापना का क्रम नहीं रूका. इस साल 121 वां साल है, इसलिए कई विशेष तैयारियां की हैं.
मंडप की ऊंचाई बढ़ाने के साथ डिजाइन भी इस साल बदल दी है. माता रानी की मूर्ति का इस बार विशेष श्रृंगार होगा. मूर्ति हमारी तैयार है और कमेटी के लोग सब मेहनत कर रहे हैं. मातारानी के लिए विशेष मुकुट बनवाए गए हैं. इस साल माता रानी हर साल की तरह और हर साल से और बेहतर सभी व्यवस्थाएं देखने मिलेंगी."
'आयोजक नवरात्रि में आ जाते हैं सागर'
इस आयोजन समिति के ज्यादातर सदस्य सागर से बाहर हैं. कोई बिजनेसमैन है, तो कोई नौकरी करता है. लेकिन नवरात्रि पर्व के लिए सभी करीब 15 से 20 दिन के लिए सागर आ जाते हैं. इसके अलावा साल भर संपर्क में रहते हैं कि अगले साल की माता की स्थापना के लिए क्या क्या करना है.
राजेन्द्र सिंह बताते हैं कि "सब लोगों को पता है कि हम अपनी परम्पराओं से जुड़े हुए हैं तो जो जिस शहर में हैं, वहां की विशेष चीजें माता के श्रृंगार के लिए लाता है. जैसे कोई जयपुर में है, तो हमारे गणेश जी के लिए पगड़ी बनवाता है. जो जहां होता है, वहां की खास चीजें हमारे आयोजन के लिए लाता है. हम लोग साल भर चीजें इकट्ठा करते हैं और फिर यहां लाकर जो बेहतर होती है, उनका उपयोग करते हैं."
आज भी कंधे पर निकलती हैं माता रानी
आपको जानकर हैरानी होगी कि आज के युग में जब एक से एक बढ़कर एक वाहन आ गए हैं और लाइटिंग में भी काफी वैरायटी है. लेकिन पुरव्याऊ वाली माता जब दशहरे के दिन शहर के भ्रमण पर निकलती हैं तो उसी परंपरा के अनुसार निकलती हैं, जैसी स्थापना के पहले साल में निकली थीं.
राजेन्द्र सिंह बताते हैं कि "जब 1905 में हीरा सिंह राजपूत ने पहली बार माता की स्थापना की, तो उस समय बिजली नहीं थी और वाहन काफी कम थे. ऐसे में माता जी को कंधे वाली पालकी पर निकालते थे. उस समय लाइट नहीं होती थी, तो एक विशाल मशाल बनाई जाती थी, जिसे लेकर लोग आगे-आगे चलते थे. लोग तो बदलते गए, लेकिन हम लोगों ने अपनी परम्पराओं को नहीं बदला और उसी को आगे बढ़ा रहे हैं. आज भी मशाल ही माता के आगे-आगे चलती है."
'121वें साल में 80 फीट से ज्यादा ऊंचा पंडाल'
राजेन्द्र सिंह राजपूत बताते हैं कि "जब हम लोगों ने शताब्दी वर्ष मनाया था, तब हमारे कार्यक्रम के लिए महत्वपूर्ण पड़ाव था. उस समय हम लोगों ने पंडाल बहुत ऊंचा बनाया था. इस साल भी हम लोग उतना ही ऊंचा पंडाल बना रहे हैं, क्योकिं बीच में कोरोना के कारण हम लोगों को ऊंचाई काफी कम करनी पड़ी थी. इस साल पंडाल की ऊंचाई 80 फीट से ज्यादा रखी गई है. इस साल माता जी का 121वां साल होने के कारण रोजाना विशेष श्रृंगार किया जाएगा."