यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है और इसीलिए अक्सर कहा जाता है कि जो जैसा बोता है, वह वैसा काटता है।अर्थात हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है और उससे कोई बच नहीं सकता। कर्मफल तत्काल मिले, ऐसी विधि व्यवस्था इस संसार में नहीं है।
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यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है और इसीलिए अक्सर कहा जाता है कि जो जैसा बोता है, वह वैसा काटता है। अर्थात हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है और उससे कोई बच नहीं सकता। कर्मफल तत्काल मिले, ऐसी विधि व्यवस्था इस संसार में नहीं है। जिस प्रकार क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच कुछ समय का अंतराल रहता है, बीज बोते ही फलों-फूलों से लदा वृक्ष सामने प्रस्तुत नहीं होता, उसके लिए धैर्य रखना होता है, उसी प्रकार से कर्म को फल रूप में बदलने की प्रक्रिया में कुछ समय तो लगता ही है। यदि संसार में तत्काल कर्मफल प्राप्ति की व्यवस्था रही होती तो फिर मानवीय विवेक एवं चेतना की दूरदर्शिता की विशेषता कुंठित एवं अवरुद्ध हो जाती।
उदाहरणार्थ, यदि झूठ बोलते ही जीभ में छाले पड़ जाएं, चोरी करते ही हाथ में दर्द उठ खड़ा हो, व्यभिचार करते ही कोढ़ हो जाए, छल करने वाले को लकवा मार जाए तो फिर किसी के लिए भी दुष्कर्म कर सकना संभव न होता और केवल एक ही निर्जीव रास्ता चलने के लिए रह जाता। ऐसी दशा में स्वतंत्र चेतना का उपयोग करने की, भले और बुरे में से एक को चुनने की विचारशीलता नष्ट हो जाती और विवेचना का बुद्धि प्रयोग सम्भव न रहता। तब दूरदर्शिता और विवेकशीलता की क्या आवश्यकता रहती और इसके अभाव में मनुष्य की प्रतिभा का कोई उपयोग ही न हो पाता। कहते हैं कि किए हुए कर्म किसी को छोड़ते नहीं, अर्थात वे मनुष्य का पीछा करते ही रहते हैं। शरीर छूटने पर भी वे आत्मा से लगे रहते हैं।
मान लीजिए, किसी व्यक्ति के साथ हमारा बहुत बड़ा झगड़ा और हाथापाई हो गई और बात पुलिस तथा अदालत में जा पहुंची। दुर्भाग्य से इसी बीच हमारा शरीर छूट जाता है। अब देखने में तो यही लगेगा कि मृत्यु के साथ ही हम उस कोर्ट-कचहरी के चक्कर से मुक्त हो गए, परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि केस के दूसरी ओर खड़े व्यक्ति के मन में हमारी याद निरंतर बनी ही रहती है।
दुनिया के लिए भले ही हम मर गए, पर उसके द्वेष के सहभागी के रूप में उसके दिल में तो हम सालों साल जिंदा ही रहते हैं। भले ही वह सामने हमसे नहीं लड़ रहा होता, पर अपने मन में वह गुप्त लड़ाई निरंतर लड़ता ही रहता है। इस संघर्ष के बीच कुछ वर्षों के पश्चात जब उसका भी शरीर छूट जाता है तो संभवत: वह सीधा हमारे आसपास ही जन्म लेता है या दूर भी कहीं जन्म लेगा तो भी किसी न किसी कारण हमारा उसके साथ संबंध जुड़ ही जाता है। सुनने में यह सब बड़ा विचित्र, अवास्तविक एवं अव्यावहारिक लगता है, परन्तु कर्म सिद्धांत के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यही सत्य है।
कई बार हम सुनते हैं कि किसी नि:संतान दंपति ने अनाथालय से एक बालक को गोद लिया और उसे अच्छी परवरिश देकर पढ़ाया-लिखाया और काबिल बनाया, पर उस बच्चे ने उस दंपति को धोखा देकर उनकी सारी संपत्ति अपने नाम कर ली और उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। अब अपनी इस दुर्दशा के लिए वह दंपति किसे दोष दें ? खुद की अच्छाई को ? अथवा उस बालक की बुराई को ? कर्म सिद्धांत के दृष्टिकोण से इसका सही उत्तर है ''इसमें किसी का दोष नहीं है, यह अपने ही किए हुए कर्मों का फल है।''
अत: हमें भली-भांति समझना चहिए कि कर्म का फल कभी न कभी पकता जरूर है, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में या उससे अगले में। कर्ता को वह फल खाना जरूर पड़ता है।