Friday, October 4, 2024
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जनेऊ संस्कार : क्यों किया जाता है जनेऊ संस्कार, और क्यों पहनते हैं जनेऊ….

जनेऊ संस्कार : जनेऊ संस्कार को यज्ञोपवीत या उपनयन के नाम से भी जाना जाता है । जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है जिसे पुरुष अपने बाएं कंधे के ऊपर से दाईं भुजा के नीचे तक पहनते हैं। इसे देवऋण,पितृऋण और ऋषिऋण का प्रतीक माना जाता है,साथ ही इसे सत्व, रज और तम का भी प्रतीक माना गया है। यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं।यज्ञोपवीत के तीन लड़,सृष्टि के समस्त पहलुओं में व्याप्त त्रिविध धर्मों की ओर हमारा ध्यांन आकर्षित करते हैं। इस तरह जनेऊ नौ तारों से निर्मित होता है। ये नौ तार शरीर के नौ द्वार एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र माने गए हैं। इसमें लगाई जाने वाली पांच गांठें ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक मानी गई हैं।

जनेऊ दो प्रकार का होता है

  1. तीन सूत्री जनेऊ : जो व्यक्ति ब्रह्मचारी रहता है तथा गृहस्थ जीवन का त्याग करता है, वह तीन सूत्री जनेऊ पहनता है।
  2. छह सूत्री जनेऊ : जो व्यक्ति पहले से शादीशुदा है वह छह-सूत्रीय जनेऊ पहनता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी के तीन और धागे पहनने की भी आवश्यकता होती है।

इन नियमों का रखें ध्यान-

जनेऊ को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथों को धोकर ही इसे कान से उतारना चाहिए।यदि जनेऊ का कोई तार टूट जाए तो इसे बदल लेना चाहिए।इससे पहनने के बाद तभी उतारना चाहिए जब आप नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं इसे गर्दन में घुमाते हुए ही धो लिया जाता है।

जनेऊ संस्कार

उपनयन संस्कार का अर्थ है जीवन के ज्ञान की ओर ले जाने का कार्य। जब एक बालक को उसके गुरु द्वारा जनेऊ संस्कार के बाद यज्ञोपवीत दिया जाता है। यह समारोह एक बालक के दूसरे जन्म का प्रतीक है, जो उसके ज्ञानवान होने तथा ऊर्जावान होने की शुरूआत करता है। इसके बाद ही उसे अपने गुरु से ज्ञान और मार्गदर्शन प्राप्त होगा, और वह अन्य समस्त कर्तव्यों को सही तरह से निभा पाएगा।

प्राचीन काल में प्रत्येक बच्चे और उसके शिक्षक के लिए यज्ञोपवीत संस्कार का आयोजन किया जाता था। पवित्र धागा पहनने वाले बच्चे को बटुक या ब्रह्मचारी कहा जाता था। यह धागा समारोह एक लड़के के जीवन में औपचारिक शिक्षा की शुरुआत का भी सुझाव देता है। फिलहाल इस समारोह में हर उम्र के लोग शामिल होते हैं। जनेऊ संस्कार का अभ्यास बचपन के दिनों से शुरू होता है, और इसमें संस्कृति, धर्म, गणित, ज्यामिति, रंग, लेखन, पढ़ना और पारंपरिक मूल्यों का अध्ययन शामिल है।

जनेऊ संस्कार का वैज्ञानिक महत्व

चिकित्सीय विज्ञान के अनुसार, शरीर के पिछले हिस्से में पीठ पर जाने वाली एक नस है, जो विद्युत के प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएँ कंधे से लेकर कमर तक स्थित होती है। यह अति सूक्ष्म नस है। अगर यह नस संकूचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लाँघ पाता है और जनेऊ इस नस को सकंचित अवस्था में ही रखता है। इसलिए जनेऊ को धारण करने वाला व्यक्ति शुद्ध चरित्र वाला होता है। उसके अंदर मानवीय गुणों का विकास होता है। यह उसकी आयु, बल और बुद्धि में वृद्धि के लिए सहायक होता है।

एक शोध के अनुसार जो व्यक्ति जनेऊ धारण करता है वह ब्लड प्रेशर और हृदय रोग से मुक्त होता है। दरअस्ल, जनेऊ शरीर में संचार होने वाले रक्त को नियंत्रित बनाए रखता है। चिकित्सकों का ऐसा मानना है कि जनेऊ हृदय के पास से गुजरता है जिससे हृदय रोग की संभावना कम हो जाती है। साथ ही दायें कान के पास से ऐसी नसें गुजरती हैं जिनका संबंध सीधे हमारी आंतों से होता है। जब मल-मूत्र विसर्जन के समय कान में जनेऊ लपेटने से इन नसों में दबाव पड़ता है। ऐसे में पेट अच्छी तरह से साफ़ हो जाता है और पेट से संबंधित रोगों से भी मुक्ति मिलती है।

जनेऊ संस्कार का ज्योतिषीय महत्व

वैदिक ज्योतिष में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु समेत कुल नौ ग्रह होते हैं और इन ग्रहों का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। जनेऊ में तीन सूत्र में कुल नौ लड़ें होती हैं जो नवग्रह का प्रतीक मानी जाती है। ज्योतिष शास्त्र में ऐसा माना जाता है जो व्यक्ति जनेऊ धारण करता है उस व्यक्ति को नवग्रहों का आशीर्वाद प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है। इसके साथ ही जनेऊ में उपयोग होने वाला श्वेत रंग का धाग शुक्र ग्रह से संबंध को दर्शाता है। शुक्र ग्रह सौन्दर्य, काम, सुख-वैभव, कला आदि का कारक होता है। इसके साथ ही यज्ञोपवीत को पीले रंग से रंगा जाता है। यह रंग गुरु बृहस्पति से संबंध रखता है। बृहस्पति ग्रह ज्ञान, धर्म, गुरु, अच्छे कर्मों आदि का कारक माना जाता है।

क्या जनेऊ संस्कार में लड़कियां हिस्सा लेती हैं?

जनेऊ संस्कार का पालन करने वाली बालिकाएं ब्रह्मवादिनी कहलाती हैं। उन्हें भी यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता था। अन्य लड़कियां जो इस तरह की चीजों का अध्ययन करने से परहेज करती हैं, वे सीधे शादी कर लेती हैं, और उन्हें सद्योवधु के रूप में जाना जाता है। कुछ लड़कियां जो जनेऊ संस्कार लेना चाहती हैं, वे भी अपने विवाह समारोह के दौरान अनुष्ठानों का पालन कर सकती हैं। इस प्रक्रिया में युवा लड़कियां अपने बाएं कंधे पर एक पवित्र धागा पहनती हैं। आज की दुनिया में, कई धर्म लड़कियों और लड़कों को अपने स्कूल के दिनों की शुरुआत से पहले जनेऊ संस्कार के पारंपरिक समारोह को करने की अनुमति देते हैं। कुछ वैदिक ग्रंथ, जैसे अश्वलायण गृह्य सूत्र और यम स्मृति, सुझाव देते हैं कि लड़कियां भी यज्ञोपवीत संस्कार प्राप्त करने के बाद अपनी पढ़ाई शुरू कर सकती हैं। गार्गी और लोपामुद्रा जैसे विद्वान उपनयन संस्कार प्राप्त करने के लिए जाने जाते हैं। इसके अलावा, मैत्रेयी, घोष, उर्वशी, सची और इंद्राणी को पहले हिंदू धर्म के इतिहास में अपना जनेऊ संस्कार मिला था।

जनेऊ संस्कार कब होना चाहिए?

सामान्य रूप से जनेऊ संस्कार किसी बालक के किशोरावस्था से युवा अवस्था में प्रवेश करने पर किया जाता है। शास्त्रों की मानें तो ब्राह्मण बालक के लिए 07 वर्ष, क्षत्रिय के लिए 11 वर्ष और वैश्य समाज के बालक का 13 वर्ष के पूर्व जनेऊ संस्कार होना चाहिये और किसी भी परिस्थिति में विवाह योग्य आयु के पूर्व यह संस्कार अवश्य हो जाना चाहिए।

जनेऊ संस्कार के लिए शुभ समय – हिन्दू पंचांग के माघ माह से लेकर अगले छ: माह तक यह संस्कार किया जाता है। माह की प्रथमा, चतुर्थी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या या फिर पूर्णिमा तिथि जनेऊ संस्कार को संपन्न करने के लिए शुभ तिथियाँ होती हैं। वहीं यदि हम वार की बात करें तो सप्ताह में बुध, बृहस्पतिवार एवं शुक्रवार इसके लिए अति उत्तम दिन माने जाते हैं। रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। लेकिन मंगलवार एवं शनिवार के दिन को त्यागा जाता है क्योंकि इसके लिए ये दोनों ही दिन शुभ नहीं होते हैं।
जनेऊ संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त – नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रेवती इस संस्कार के लिए शुभ नक्षत्र माने जाते हैं। एक दूसरे नियमानुसार यह भी कहा जाता है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शतभिषा नक्षत्र को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्रों में जनेऊ संस्कार की विधि संपन्न की जा सकती है।

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