Sunday, July 27, 2025
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या अली….मदद करो बजरंगबली!

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जयराम शुक्ल

नवसंवत्सर से हनुमान जयंती तक के बीच में देश में कोई सात दंगे हुए। रामनवमी के दिन मध्यप्रदेश का खरगोन आग से झुलस उठा। रामदरबार की झाँकी के साथ निकल रही शोभायात्रा पर पत्थरों, पेट्रोल बमों की बारिश हुई। कुछ सिरफिरे युवाओं ने भीड़ में तलवार बाजी की। उसके कवर कर रहे शैतानों ने गोलियां दागीं।
गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पुलिस अधीक्षक को गोली लगी वे अस्पताल में है। एक मासूम अस्पताल में जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहा है। हमले मंदिरों पर भी हुए। उन्हें तोड़ा और मूर्तियां नष्ट की गईं। बताने की जरूरत नहीं कि यह क्यों और किन लोगों ने किया। यह भी बहस का अलग विषय है कि खुफिया तंत्र और प्रशासन फेल रहा। विमर्श का विषय यह कि नफरत की आग यकायक इतनी तेज कैसे होने लगी?

Jay Ram Shukla हम जितनी तरक्की करते जा रहे हैं। पढ़ने-अध्ययन करने में जितने प्रवीण होते जा रहे हैं उसकी दूनी रफ्तार से दकियानूस और खुदगर्ज भी। दरअसल यह खेल उन लोगों का है जो देश के भीतर और बाहर यह बात तेजी से फैला रहे हैं कि भारत में मुसलमान असुरक्षित हैं।
ये वही लोग हैं जिन्होंने ऐसी ही असुरक्षा की भावना फैलाकर छह दशकों तक मुसलमान वोटरों को दुहा और मंचों से गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई दी। मुसलमानों को एक कौम के रूप में पाले और बनाए रखा। कौम का मतलब राष्ट्र होता है तो क्या राष्ट्र भीतर या समानांतर कोई दूसरा राष्ट्र(कौम) भी है। हम अक्सर तकरीरें सुनते हैं कि ‘हम अपने कौम के लोगों से यह इल्तिजा करते हैं’। क्या मतलब हुआ इसका? क्या हम और आप कौम(राष्ट्र) में शामिल नहीं हैं..?
जिस किसी ने गंगा-जमुनी संस्कृति की थ्योरी दी और जिन्होंने इसे स्थापित किया वे ही आज नफरत की इस लहलहाती फसल के लिए जिम्मेदार हैं। एक राष्ट्र में दो समानांतर संस्कृति नहीं बह सकती। उनमें क्षेत्र और समय के हिसाब से वैविध्य अवश्य हो सकता है पर प्रतिद्वंदिता नहीं। यहाँ दशकों से गंगा के समानांतर जमुना की बात की जाती है।
जमुना का अस्तित्व तो प्रयाग में आकर खत्म हो जाता है। न जाने कितने नद-नदियां और नाले गंगा में आकर गंगामय हो जाते हैं। उनका अस्तित्व विलीन हो जाता है।
उसी तरह देश की विभिन्न सभ्यताओं, परंपराओं और संस्कृतियाँ मिलकर राष्ट्रीय संस्कृति गढ़ती हैं।
हिन्दू कभी असहिष्णु नहीं रहे। आज भी वे न जाने कितने पीर और औलिया को मानते हैं। मजारों में जाकर मन्नतें माँगते व मत्था टेकते हैं। अजमेर शरीफ और निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में जाइए आपको मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू ही मिलेंगे। लेकिन हिन्दू तीर्थ स्थलों व उनके देवी-देवताओं को लेकर जो भाव महमूद गजनवी और बाबर में था कमोबेश वही आज भी है। जबकि उनमें से बड़ी संख्या (90प्रतिशत के करीब) के मुसलमानों की पितृभूमि व उनके पुरखों की पुण्यभूमि यही भारत है।
पता नहीं इस यथार्थ को क्यों नहीं समझाया जाता। जब यही समझाइश राही मासूम रजा और आरिफ मोहम्मद खान जैसे विशुद्ध मुस्लिम स्कालर देते हैं तो उन्हें काफिर घोषित कर दिया जाता है। उनके दकियानूसी विचारों और परदे के पीछे के पापों को जब तस्लीमा नसरीन और सैटनिक वर्सेस के लेखक सलमान रश्दी देने लगते हैं तो उनके सिर को कलम करने का हुक्म सुना दिया जाता है।
मध्ययुग में रसखान, रहीम, जायसी, नजीर और न जाने कितने मुस्लिम स्कालर हुए जिन्होंने अपने धर्म को नहीं बदला लेकिन भारतीय संस्कृति और उनके महापुरुषों पर इतना सुंदर लिखा जिसे हम भजन-कीर्तन की तरह याद रखते हैं। क्या यह धारा फिर नहीं बह सकती। यदि हमने निजामुद्दीन औलिया और अजमेर शरीफ समेत अनगिनत पीर-औलिया-और बाबाओं को सिरमाथे पर रखते हैं उनके दर पर जाकर आस्था व्यक्त करते हैं तो दूसरों के धर्म के प्रति सद्भाव की यह धारा देवबंद और बरेली से क्यों नहीं फूटनी चाहए।
जो धर्म जड़ होता है आज नहीं तो कल उसका मरना तय है। उदात्तता ही उसे सतत् बनाए रखती है इसीलिए हमारा धर्म धर्म है रिलीजन नहीं, वह सनातन धर्म है। कभी-कभी प्रश्न उठता है कि ईसाइयत को आए 22 सौ वर्ष हुए और इस्लाम के मुश्किल से 17 सौ वर्ष।
जब ये धर्म नहीं थे तब आज के इनके अनुयायियों के पुरखे किस धर्म के अनुयायी रहे होंगे। इससे पहले के धर्मों में अग्निपूजकों का धर्म था, उनके पहले भी कोई धर्म रहा होगा। और वह धर्म सनातन ही ही है जिससे विश्वभर में अलग-अलग नए पंथ तैयार होते गए। यानी कि सभी के मूल में सनातन धर्म ऐसे ही है जैसे की ईश्वर, अल्लाह, जीसस एक हैं। उन तक पहुँचने के पंथ, पद्धति और मार्ग में विभेद हो सकता है। विवेकानंद ने अपने संभाषणों में यही कहा। रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में भी लगभग ऐसी ही व्याख्याएं दीं।
कभी-कभी लगता है कि गाँव के अनपढ़ और आधुनिक शिक्षा से दूर कहे जाने वाले लोग धर्माचार्यों और मौलवियों की अपेक्षा धर्म के मर्म को न सिर्फ ज्यादा जानते हैं अपितु उसे जीते भी हैं।
मुझे अपने गाँव का वो अली और बजरंगबली वाला दृष्टान्त याद आ रहा है जब इन दोनों देवों में बँटवारा नहीं हुआ था…। “बात 67-68 की है। मेरे गाँव में बिजली की लाइन खिंच रही थी। तब दस-दस मजदूर एक खंभे को लादकर चलते थे। मेंड़, खाईं, खोह में गढ्ढे खोदकर खड़ा करते। जब ताकत की जरूरत पड़ती तब एक बोलता.. या अलीईईईई.. जवाब में बाँकी मजूर जोर से एक साथ जवाब देते…मदद करें बजरंगबली..और खंभा खड़ा हो जाता।
सभी मजूर एक कैंप में रहते, साझे चूल्हें में एक ही बर्तन पर खाना बनाते। थालियां कम थी तो एक ही थाली में खाते भी थे। जहाँतक याद आता है..एक का मजहर नाम था और एक का मंगल।
वो हमलोग इसलिए जानते थे कि दोनों में जय-बीरू जैसे जुगुलबंदी थी। जब काम पर निकलते तो एक बोलता – चल भई मजहर..दूसरा कहता हाँ भाई मंगल।
अपनी उमर कोई पाँच-छ: साल की रही होगी, बिजली तब गाँव के लिए तिलस्म थी जो साकार होने जा रही थी। यही कौतूहल हम बच्चों को वहां तक खींच ले जाता था। वो लोग अच्छे थे एल्मुनियम के तार के बचे हुए टुकड़े देकर हम लोगों को खुश रखते थे।
उनदिनों हम लोग भी खेलकूद में.. याअली..मदद करें बजरंगबली का नारा लगाते थे और मजाक में एक दूसरे को मजहर-मंगल कहकर बुलाते थे।
उनकी एक ही जाति थी..मजूर और एक ही पूजा पद्धति मजूरी करना। तालाब की मेंड़ के नीचे लगभग महीना भर उनका कैंप था न किसी को हनुमान चालीसा पढ़ते देखा न ही नमाज।
सब एक जैसी चिथड़ी हुई बनियान पहनते थे, पसीना भी एक सा तलतलाके बहता था। खंभे में हाथ दब जाए तो कराह की आवाज़ भी एक सी ही थी। और हां मजहर के लोहू का रंग भी पीला नहीं लाल ही था।
तुलसी बाबा कह गए-
रामसीय मैं सब जगजानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
बाद में गालिब ने इसकी पुष्टि करते हुए ..मौलवियों से पूछा…या वो जगह बाता दे जहाँ खुदा न हो..!
यह अजीब हवा-ए-तरक्की है .सबकुछ बँट गया हाँसिल आया लब्धे शून्य..! इस शून्य की पीठपर सिंहासन धरके किस पर राज करोगे भाई।

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धरती माता को बुखार अरे है कोई सुनने वाला….

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जयराम शुक्ल
धरतीमाता का ताप साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। पिछले साल के मुकाबले इस साल तापमान कुछ और डिग्री ज्यादा रहेगा, मौसम वैज्ञानिकों ने ऐसा अनुमान व्यक्त किया है। अब तो हरीतिमा से ढँके भोपाल का पारा 45 सेल्सियस तक पहुंच जाता है। आज से बीस-पच्चीस साल पहले अमरकंटक और पचमढ़ी में एसी की मशीनें नहीं थीं। इन देसी हिल स्टेशनों में अब बिना एसी गुजारा नहीं। आज वहां जाएं तो झुलस जाएंगे। अमरकंटक की “माई की बगिया” की गुलबकावली वैसे ही झुलसी-झुलसी सी रहती है जैसे गोरे गाल में कोई गरम तवा छुआ दे।

Jay Ram Shukla नौतपा नौदिन का नहीं पूरे अब पूरे अप्रैल मई रहता है। अगले वर्षों से कहीं इसका नाम न बदलना पड़े। इस पूरी गरमी सूरज आग का गोला बना सिर पर ही सवार है। नीचे की जमीन वैसे ही गरम जैसे डोसा सेंकने वाली लोहे की प्लेट। लू-लपट के आगे हीटर ड्रायर फेल। कुलमिलाकर हालत ऐसे जैसे कि भँटा ओवन में सिझता है। गरमी में ऐसे ही कई सिझकर मौत के निवला बन जाते है, इसे हीट स्ट्रोक का नाम दिया गया है अनुपम मिश्रजी कहा करते थे कि धरती माता का बुखार लगातार बढ़ता जा रहा है, साल दर साल। क्या हम तभी सम्हलेंगे जब वह कोमा में पहुँच जाएगी। वे ग्लोबल वार्मिंग को इसी तरह समझाते थे। मनुष्य को जब बुखार आता है तो उसका तापमान बढ़ता है। हमें बुखार क्यों आता है? जब शरीर की प्रतिरोधक क्षमता विषाणुओं के आगे पस्त हो जाती है और हमारे अंग संक्रमित होने लगते हैं। यह संक्रमण मिट्टी- हवा- पानी- भोजन के माध्यम से शरीर तक पहुँचता है।
हम मनुष्य प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए बड़े अस्पतालों में जाते हैं, सर्जरी कराते हैं, दवाइयाँ खाते हैं। हमारी धरती माता इलाज के लिए कहाँ किस अस्पताल में जाए। उसकी कराह कौन सुने? बस हम खुदगर्ज लोग खुदी को बुलंद करने में जिंदगी भर लगे रहते हैं।

धरती माता ने हमें पाला और हम उसे अनाथ असहाय छोड़कर आगे निकल लिए। उसके लिए ईश्वर ने किसी अनाथालय का भी तो इंतजाम नहीं किया।

धरती माता हर युग में संत्रस्त होती आई है। त्रेता में भी ..भूमि विचारी गो तनु धारी गई विरंचि के पासा..। मानस में ये स्तुति आती है..जय जय सुरनायक जनसुख दायक। ब्रह्मा उसकी अर्जी विष्णु के पास रखते हैं। विष्णु जी इसे स्वीकार करते हैं ..तब भै प्रकट कृपाला दीनदयाला बनकर आते हैं।

हमारे पौराणिक आख्यानों के संकेतों को समझिए। बहुत कुछ है उसमें। रामायण को पर्यावरणीय दृष्टि से पढ़िए, समझिए। चित्रकूट के सरभंग आश्रम में जब राम राक्षसों के कुकृत्यों को अपनी आँखों से देखते हैं तभी प्रण करते हैं- निशिचर हीन करहु महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह। धरतीमाता को निशचरों से मुक्ति का संकल्प लेते हैं। और अगस्त्य के आमंत्रण पर इस चुनौती को स्वीकार करते हुए दंडकारण्य की ओर चल पड़ते हैं।

हर चुनौती खतरों से भरी होती है। राम चाहते तो मजे से 14 वर्ष सुरक्षित चित्रकूट में बिता सकते थे। पर उन्हें खरदूषण और त्रिसरा से निपटना था। ये खरदूषण और त्रिसरा कौन..? साम्राज्यवादी रावण के एजेंट धरती माता आज भी ऐसे ही एजेंटों से संत्रस्त है। पौराणिक नामों में भी छिपे हुए गूढार्थों को जानिए। खरदूषण और प्रदूषण। खरदूषण प्रदूषण का प्रतीक जो अपने आका रावण के आदेश पर दंडकारण्य के पर्यावरण का नाश करने में जुटा था। राम पहला काम इन्हीं का संहार करके शुरू करते हैं।
सूपनखा भी ऐसी ही एक प्रतिनिधि है। सीता धरतीमाता की पुत्री सूपनखा अपने विशाल नाखूनों से भूमिजा को नोच लेना चाहती है। लक्ष्मण उसे विरूप बना देते हैं। आज खनन कंपनियां सूपनखाओं की भूमिका में हैं। भूमि व भूमिजा दोनों को अपने विशाल मशीनी पंजों से नोंच रही हैं।

पूँजी हमेशा से प्रकृति की दुश्मन रही है। जहाँ पूँजी का बोलबाला हुआ वहां प्रकृति का नाश समझिए। कोई नगर सोने का कैसे हो सकता है। पर सोने की लंका थी। सोने की लंका वस्तुतः पूँजीवाद की प्रतीक है। राम इस व्यवस्था का नाश करते हैं। वे चाहते तो अयोद्धा से भरत की चतुरंगिणी और जनक की पलटन को बुला सकते थे..। लेकिन नहीं.. उन्होंने प्रकृति के आराधकों की ही सेना जोड़ी। केवट, भील, कोल, किरात उनके सेवादार बने। बंदर, भालु, गिद्ध, गिलहरी ये सब उनकी सेना में।
राम ने शोषितों का सशक्तिकरण किया। उनका, जो वास्तव में पीड़ित थे। रावण की सेना से वैसी ही सेना भिड़ा सकते थे लेकिन नहीं, वे चाहते थे कि पूँजी के खिलाफ प्रकृति की विजय हो। सोने की लंका खाक में मिल गई। पूँजी पर प्रकृति की यह महाविजय थी जिसका नेतृत्व राम ने किया।

रामादल प्रकृति का आराधक था, धरती पुत्र था। धरती माता की वेदना को समझता था इसलिए एक साम्राज्यवादी पूँजीपति से हाँथ मिलाने और उसकी आधीनता को स्वीकार करने की बजाय उससे दो-दो हाथ करना ही यथेष्ठ समझा। धरती माता की इज्जत बच गई। लंका के उस माफिया के कब्जे से भूमिजा सीता को छुड़ा लाए।

कभी हम अपने पौराणिक आख्यानों को इस दृष्टिकोण से भी समझने की कोशिश करें, वहां समस्या है तो उसके समाधान के सूत्र भी हैं। हम यहां समस्या के सूत्रधारों के पाले में खड़े होकर समाधान की गुहार लगा रहे हैं। अब कोई राम नहीं आनेवाले जो वानर भालुओं को जोड़कर प्रकृति की अस्मिता बचाने की जंग छेंड़े। पहले हमें ही तय करना होगा कि हम किस पाले में खड़े हैं। अबकी समस्या ज्यादा विकट है.। धरती माता गाय बनकर अब किस अवतार के लिए गुहार लगाए..यहां तो बस कसाइयों की जमात है जिसने गाय की भाँति धरतीमाता को भी दुहकर असहाय छोड़ना जानती है।

प्रकृति को हम जब तक पश्चिम के नजरिए से देखेंगे कोई हल नहीं निकलने वाला। प्रकृति उनके लिए पर्यावरणीय घटकों का समुच्चय हो सकती है, अपने लिए नहीं। प्रकृति के साथ दैवीय भाव तब से रहा है जब से इस सृष्टि की रचना हुई और जीव में चेतन हुआ। प्रकृति के हर घटक हमारे देवता हैं जिंन्हें हम पंच तत्व कहते हैं। यही पश्चिम के लाए पर्यावरण है।

पूरब और पश्चिम के बीच का द्वंद्व ग्यान और विग्यान के बीच का द्वंद्व है। ग्यान सास्वत है, निरपेक्ष और सार्वभौमिक है। पश्चिम ने अपनी सुविधा के हिसाब से ग्यान को विग्यान में बदल दिया। विग्यान सार्वभौमिक, समावेशी नहीं बल्कि स्वार्थी है।
ग्यान प्रकृति के निकट है उसका वास्तविक पुत्र है और विग्यान प्रकृति का दुश्मन। इसे देवता और दैत्य के कथानक से समझ सकते हैं। दोनों कश्यप की संतानें हैं। उनकी एक पत्नी दिति के पुत्र दैत्य और अदिति के देव। इस तरह दैत्य और देव हैं तो सगे भाई पर स्वभाव एक दूसरे के विपरीत। उसी तरह ग्यान और विग्यान के बीच का रिश्ता।

ग्यान कहता है प्रकृति माँ है वह अन्न देती है, हवा पानी आश्रय देती है, इसके कुशल-क्षेम में ही हमारा भला है। विग्यान कहता है यह वस्तु है, इसकी कोख की संपदा हमारी है, इसका तिल-तिल भोगनीय है। कल की कल देखेंगे आज हमारा है हम आज को भोगें। ग्यान भूत से सबक लेता है, वर्तमान को धन्य मानता है, भविष्य की चिंता करता है। पर आज विग्यान लंकाधिपतियों के पास है और ग्यान अनाथालय में।
प्रकृति के मर्म को ग्यानचक्षु से देखेंगे तो सब समझ में आएगा….लेकिन ग्यानचक्षु में तो भौतिकता का मोतियाबिंद हो गया है। विग्यानचक्षु को धरतीमाता की बुखार और उसकी तड़प वैसे ही महसूस नहीं होगी जैसे रावण को लंका और समूचे कुल के महानाश के संकेत।

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आगामी विधानसभा चुनाव के लिए – शक्ति परिक्षण जारी

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भोपाल: वर्ष 2023 के लिए मध्यप्रदेश में चुनावी सरगर्मी बढ़नी शुरू हो गई है। नये परिसीमन के आदेश के बाद जहां नई पंचायतों का गठन हो रहा है वहीं पंचायत और ग्रामीण स्तर तक राजनैतिक सक्रियता क्रमशः बढ़ती जा रही है। महसूस होता है कि भाजपा इन चुनावों में नये चेहरों का प्रयोग करेगी। संभावना तो यही है कि भाजपा की और से राज्य के नेतृत्व के लिए अनु. जाति, जनजाति का चेहरा भविष्य के लिए प्राथमिकता के आधार पर होगा। दूसरी और कांग्रेस में पुराने चेहरों पर ही चुनाव का दम आधारित कर दिया है। कमलनाथ और दिग्गिविजय सिंह की जोड़ी क्रमशः इस चुनाव में भी कांग्रेस के भाग्य का निर्धारण करेगी। तीसरी उम्मीद आम आदमी पार्टी से है, जो आने वाले चुनाव में प्रदेश भर के सभी राजनैतिक समीकरणों को परिवर्तित करने की कोशिश कर सकती है।

Capture 37मध्यप्रदेश में भाजपा हर स्तर पर राज्य के अंतिम मतदाता तक पहुंचने के लिए शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व पर आतुर है। जितना श्रम सत्ता कर रही है उतना ही श्रम संगठन की और से भी नजर आ रहा है। यदि भाजपा भविष्य के चुनाव में अनु. जाति या जनजाति के किसी उम्मीदवार को सामने रखकर चुनाव लड़ती है तो उसका प्रभाव कही अधिक होगा। भाजपा के पास वरिष्ठ स्तर के नेताओं की कमी नहीं है, जो वर्षो से संगठन के प्रति आस्थावान रहे है। भाजपा इन चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को सामने रखकर भी खेल सकती है। सिंधिया का प्रभाव व्यवहारिक रूप में सिमित है और उन्हें भाजपा का परम्परागत कार्यकर्ता अभी भी पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाया है। परंतु सिंधिया का आभा मंडल और एक आधुनिक युवा होने की छवि भाजपा के विकास की परिभाषा को बल देती है।
दूसरी और कांग्रेस अपने टूटे-फूटे संगठन को सुधारने में लगी है। पिछड़ा वर्ग सम्मेलन के माध्यम से एक नई चेतना लाने की कोशिश की जा रही है। परंतु प्रभावशील नये चेहरे को स्थान देने की जगह इस बार की सक्रियता कमलनाथ की प्रबंधन की राजनीति और दिग्गिविजय सिंह की कूटनीतिक रणनीति को ही मिलना तय माना जा रहा है। कार्यकर्ता आज तक इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया है। देखना है क्या भविष्य मे इसका लाभ कांग्रेस को आम मतदाता के मध्य मिल पाता है।

तीसरी और आम आदमी पार्टी दो राज्यों में सरकार बनाने के बाद अपने कार्यक्रमों के साथ मध्यप्रदेश में पहली बार कदम रखने जा रही है। आम आदमी पार्टी चुनाव जीतेगी नहीं पर मतों के अंतर को कम-ज्यादा करने में उसकी व्यापक भूमिका होगी। दिल्ली और पंजाब के पार्टी के कार्यक्रमों में मध्यप्रदेश के युवाओ के मध्य भी कई प्रश्न खड़े कर लिए है। वस्तुतः आम आदमी पार्टी अब तक राजनीति व्याप्त जमीदारी प्रथा के विरुद्ध जाकर राजनीति का क्षेत्र अति सामान्य युवाओं के लिए खोल रही है। अपने चुनावी घोषणा पत्रों के वायदों पूरा कर रही है, और प्रतिदिन की आम आदमी की परेशानियों से साक्षात्कार कर रही है। आम आदमी पार्टी की राज्य में उपस्थिति कांग्रेस और भाजपा के अब तक चले आ रही समीकरणों को बदलनें में कितनी सफल होती है ये चुनाव परिणाम ही बताएँगे, क्योकि मध्यप्रदेश की जमीन में प्रभावशाली तीसरा राजनैतिक दल पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराने जा रहा है।

मध्यप्रदेश का आगामी चुनाव आम जनता की समस्याओं उम्मीदवारों की लोकप्रियता और युवा, किसान, महिलाओं के प्रतिदिन की परेशानियों पर केन्द्रीत होगा। इस चुनाव के बाद वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव सामने है, इसलिए वर्ष 2023 में होने वाले तीन राज्यों के चुनाव सभी राजनैतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण हो गए है।

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नींबू : कोरोना काल में की सेवा का भगवान ने अच्छा फल दिया

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छोटे से नींबू ने आवश्यकतानुसार अपने को परिवर्तित करके अपने कद को बहुत बड़ा लिया है। पिछले 3 वर्षों में नींबू की बहुत अधिक आवश्यकता थी तब नींबू सहज सुलभ था। नींबू के पेड़ फलों से लदे हुए थे मानो कहना चाह रहे हैं की जहां हमारी आवश्यकता है वहां हम तुरंत उपलब्ध हो जाएं। और जैसे ही आवश्यकता खत्म हो हम अपने आप को समेट लें। करोना काल में की सेवा का भगवान ने बहुत अच्छा फल दिया है। तुम्हारी चर्चा जनसाधारण में हो रही है मीडिया पर भी छा गए हो। नींबू तुम सभी घरों में उछल उछल कर घूम रहे हो पर किसी की हिम्मत नहीं है तुम्हें काटने की।

इन दिनों में तो तुम्हें छील छील पर वस्त्रहीन किया जाता रहा है। रगड़ रगड़ कर तुम्हारा रस निकाल लिया जाता था। आज आम जन की हाथ में लेने की हिम्मत भी नहीं है। विदेशी पेट्रोल देशी नींबू से हारता नजर आ रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि यह चाल है पेट्रोल के दाम से आमजन की नजर हटाने की। तुम्हारे मूल्य के आगे पेट्रोल अपने आप सस्ता लगने लगेगा। वैसे भी देश स्वदेशी पर ध्यान दे रहा है। विदेशी पेट्रोल को देसी नींबू टक्कर दे रहा है यह लोगों को बहुत भा रहा है।

कुछ लोग तुम्हारे पेड़ को घर में नहीं लगाते थे क्योंकि उस में कांटे होते हैं। पड़ोसी की गाली भी सुननी पड़ती थी। आज वही तुम्हें बहुत महत्व दे रहे हैं। जिस घर में नींबू का पेड़ है उस घर को लोग ललचाई नजरों से देख रहे हैं। जिस पड़ोसी के घर तक तुम्हारी डाली गई है। वह तुम्हारी बलैया लेकर तुम्हें बहुत फलने फूलने का आशीर्वाद दे रहा है।
तुम ने सिद्ध कर दिया है जिन्हें हम छोटा समझते हैं उसकी कीमत कब बढ़ जाएगी यह पता नहीं होता। सभी को अपने अपने कर्मों का और सेवा का फल अवश्य मिलता है आज नींबू हम सबको यही समझा रहा है।

नींबू को प्रणाम करते हुए…..

आमगांव महाराष्ट्र: सुनीता महेश मल्ल 

दिग्गिविजय की चाल भारी पड़ी – कांग्रेस को

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सुधीर पाण्डे

भोपाल: मध्यप्रदेश में वर्षो से निष्क्रिय पड़ी हुई कांग्रेस के हाथ अपने आप अचानक एक मुद्दा खरगोन की हिंसक वारदात और उस भाजपा सरकार द्वारा चलाए गये बुल्डोजर के रूप में हाथ में आ गया है। कांग्रेस को स्वयं उम्मीद नहीं थी कि 20 सालों से सत्ता में बैठी भाजपा कानूनी दांव-पेचों और जिनेवा प्रावधानों से इनती अपरिचित होगी, कुछ क्षण के लिए कांग्रेस स्वयं ठहर गई। विपक्षी दल होने के नाते उसे पूरे राज्य में एक आंदोलन खड़ा करना था, पर फिर एक बार कांग्रेस के विरिष्ठ नेता दिग्गिविजय सिंह ने एक फर्जी फोटो लगाकर एक ट्वीट कर दिया। जिसने समूचे मामले को कांग्रेस के पक्ष से समाप्त कर दिया। अब बारी भाजपा की थी सो उसने निष्क्रिय कांग्रेस और उसके नेताओं पर गहरे आघात करने शुरू कर दिये। चर्चा यह चल निकली की दिग्गिविजय द्वारा किया गया ट्वीट कोई गलती थी या जानबूझकर कांग्रेस को मुद्दा विहीन रखने का एक षडयंत्र।

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मध्यप्रदेश में कांग्रेस को कांग्रेस ही हरायेगी, भाजपा की कोई जरूरत है ही नहीं। कितना भी प्रयास कर लिया जाए कांग्रेस संगठन की नासमझी और मुर्खतापूर्ण हरकते मध्यप्रदेश में प्रत्येक दिन कांग्रेस को पीछे ढकेल रही है। खरगोन घटना पर एक समुदाय विशेष की दूकान और मकान तोड़े जाने के बाद यह लग रहा था कि कांग्रेस साम्प्रदायिक एकता को बनाये रखते हुए अपनी वास्तिविक नीतियों को जनता के सामने प्रभावी ढंग से रखेगी और साम्प्रदायिकता के एक नये खेल को उजागर करेगी। परंतु हुआ उसका उल्टा, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्गिविजय सिंह जिन्हें मध्यप्रदेश का चाणक्य कहा जाता है ने खरगोन घटना को लेकर एक ट्वीट किया। जिसमें तथ्य खरगोन के थे और फोटो किसी अन्य राज्य में हुए साम्प्रदायिक उत्पात की थी। इस ट्वीट का आना था और भाजपा ने इसे लपक लिया। वैसे भी दिग्गिविजय सिंह की छवि राज्य में अब जनता से जुडे़ करिश्माई नेता की नहीं है। कांग्रेस का प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि उनकी राजनीति एक निश्चित लक्ष्य को लेकर हो रही है, जिसके लिए उन्हें अभी लम्बे समय तक कांग्रेस को विपक्ष में बनाये रखना है।
क्या यह संभव था कि उड़ती चिड़िया के पर गिन लेने वाले दिग्गिविजय सिंह इतनी बड़ी राजनीति भूक कर बैठे है प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस के हाथ बमुश्किल आया हुआ एक मौका इस तरह निकल जाने देते। इसके पूर्व भी कई बार दिग्गिविजय सिंह ने राजनीतिक घटना को अचानक मोड़ दिया है। इसके लिए उन्होंने कभी आंदोलन का सहारा लिया, कभी बयानों का तो कभी कार्यकताओं के मध्य अपनी बेबाक टिप्पणी का। कमलनाथ सर के बल खड़े हो जाये तो कांग्रेस के दिग्गिविजय सिंह रूपी राजनैतिक संकट से बाहर नहीं निकल सकते। वैसे भी कांग्रेस बहुसंख्यक नेताओं और कार्यकर्ताओं का मानने है कि बिना दिग्गिविजय के कमलनाथ का एक-एक पैर बढ़ा पाना भी नामुमकिन है। इसलिए कमलनाथ को दिग्गिविजय सिंह की सार्वजनिक उपेक्षा झेलनी पडे़ तो भी उन्हें मंजूर है। कांगे्रस इस संकट को एक स्वभाविक रूप दे रही है, परंतु वास्तविकता यह है मध्यप्रदेश में भविष्य की हार की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह तैयार हो रही है कि सिमित ओवर के मैच में पहले ही ओवर में हाथ में आया हुआ कैच दिग्गिविजय सिंह ने अपने हाथों से उझाल कर सीमारेखा के पार छक्के रूप में परिवर्तित कर दिया है। टूटे हुए मनोबल के सहारे कांग्रेस कार्यकर्ता भाजपा के प्रत्येक नेताओं की समीक्षा को सुन और समझ रहा है। उसे यह ज्ञात है कि मैदान में निष्क्रिय रह कर यदि भाग्य के भरोसे पेड़ से कोई फल कांग्रेस के पक्ष में गिर भी पडे तो उसे वरिष्ठ नेता ही कुचल डालेंगे। मुद्दो के अभाव में भटक रही कांग्रेस पिछले दिनों हुए इस घटना क्रम से बूरी तरह परेशान है। कार्यकर्ता को आश्वासन देने के नाम पर और निहित स्वार्थ की इस राजनीति को छिपाने के लिए अलग-अलग विषयों पर कुछ समितियों तक के गठन की घोषणा हुई है परंतु उसका कोई व्यापक प्रभाव राज्य की राजनीति में नहीं पड़ रहा। सही बात तो यह है कि कांग्रेस के पास वर्तमान में एक सक्षम विद्वान और जागरूर प्रवक्ता तक नहीं है जो प्रचार माघ्यमों में छपने वाले या प्रसारित होने वाले तथ्यों को कांग्रेस के पक्ष मे प्रगट कर सके।

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यही होते है राज नेता……

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किसी नगर में में एक बनिया रहता था।वो एक ढाबा चलता था।वहां वह भर पेट भोजन की थाली 30 रूपये में देता था।भोजन बड़ा स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के कारण उसका ढाबा बहुत चलता था। दूर दूर से लोग उसके ढाबे में भोजन करने आते थे। धीरे धीरे चीजों और खाद्य पदार्थों के मूल्य बढ़ने से अब उसे एक थाली 30 रूपये में देना असंभव सा लगने लगा। वह सोचने लगा कि अगर थाली के दाम नही बढ़ाए तो ढाबा नुकसान में चलने लगेगा।वह एक थाली 40 रूपये में बेचना चाह रहा था।परंतु उस नगर के राजा की आज्ञा बिना कोई भी व्यापारी अपनी वस्तुओं की कीमत नही बढ़ा सकता था। इस लिए वो एक दिन समय निकाल कर राजा से इस बाबत मिलने गया।उसने राज दरबार में राजा से मिलने की अनुमति मांगी।राजा की अनुमति मिलने पर वह राजा के समक्ष उपस्थित हो कर उसने राजा को हाथ जोड़ कर और सिर झुका कर नमस्कार किया।राजा ने उसके अभिवादन का उत्तर देते हुए कहा कहिए क्या परेशानी है?

बनिया ने निवेदन किया अन्नदाता में ढाबा चलाता हूं।अन्नदाता की कृपा से अच्छा चल रहा था। परंतु वस्तुओं के महंगे हो जाने से अब एक भोजन की थाली जो में 30 रु में देता था ,वह अब संभव नहीं हो पा रहा।इस लिए भोजन की थाली में अब 40 रु0 की करना चाहता हूं। इसी लिए अन्नदाता के दरबार में उपस्थित हुआ हूं।

राजा ने बनिए से कहा की तुम एक थाली 40 रु0 की नही बल्कि 60 रु0 की करो।बनिया चकित होकर राजा की और देख कर बोला पर महाराज ये तो लोगों के साथ अन्याय होगा सब तरफ हाहाकार मच जाएगा। राजा ने कहा ये काम तुम्हारा नही हमारा है ।हम राजा है।अगर हम हाहाकार रोक नहीं पाए तो हमारा राजा होना बेकार है।तुम वही करो जो हम कह रहे है।बाकी हम पर छोड़ दो।बनिया सिर झुका कर नमन कर के वहां से वापस ढाबे पर आगया। अगले दिन से उसने एक थाली 60 रु0 की कर दी।लोग आश्चर्य में हो कर उससे पूछने लगे अरे एक दम दुगनी कीमत कैसे कर दी? बनिया बोला महंगाई बढ़ गई है अब पहले वाली कीमत में नही पोसाता।नगर में उस ढाबे की चर्चा होने लगी थोड़े ही दिनों में थाली की कीमत को ले कर हाहाकार मच गया।लोग बनिए को गालियां देने लगे।उसे मुनाफाखोर और ना जाने क्या क्या कहने लगे।बनिया राजा की आज्ञा मान सब कुछ सुनता रहा।कुछ दिनों बाद लोग राजा के पास जा कर बनिए की शिकायत करने लगे की कैसे बनिए ने एक थाली की कीमत को दुगना कर दिया।राजा ने क्रोध दिखाते हुए सैनिकों को बनिए को पकड़ कर लाने को कहा।सैनिक बनिए को पकड़ कर राजा के सामने लाए ।राजा ने क्रोध दिखाते हुए बनिए को इतनी कीमत बढ़ने पर फटकारा।और फिर आज्ञा दी की कल से थाली 60रु0की नही 45रु0 की बेचोगे। जनता खुश हो गई।उसने राजा की जय जय कार शुरू कर दी।और सब लोग खुशी खुशी अपने घर चले गए।दरबार में केवल बनिया और राजा ही रह गए।राजा ने कुटिलता पूर्वक मुस्कुराते हुए कहा 2 रूपये प्रतिथली राजकोष में जमा करा के 40 के स्थान मार 43 रु0 प्रति थाली लोगो को दो।

Shyamsundar Samaria Ke Facebook Wall Se

क्या पत्रकारिता वाकई पेन प्रस्टीट्यूट बन गई!

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जयराम शुक्ल-

भारत में पहले अखबार ‘बंगाल गजट’ का निकलना एक दिलचस्प घटना थी। वह 1780 का साल था ईस्ट इंडिया कंपनी वारेन हेस्टिंग के नेतृत्व में मजबूती के साथ विस्तार पा रही थी, तब कलकत्ता उसका मुख्यालय था। कंपनी के ही एक मुलाजिम जेम्स आगस्टस हिक्की ने हिक्कीज बंगाल गजट आर कलकत्ता एडवरटाइजर नाम का अखबार निकाल कर बड़ा धमाका किया। धमाका इसलिए कि उसने पहले ही अंक से वारेन हेस्टिंग्स समेत उन अन्य कंपनी बहादुरों की खबर लेना शुरू कर दी जिनके भ्रष्टाचार, अय्याशी के किस्से कलकत्ता की गलियों में फुसफुसाए जाते थे। हिक्की जल्दी ही कंपनी बहादुरों की आँखों में खटकने लगा पहले उसे जेल में डाला गया फिर जल जहाज में बैठाकर लंदन भेज दिया गया। यह भी कहते हैं कि उसे बीच सफर में ही मारकर समुंदर में फेक दिया गया ताकि कंपनी बहादुरों के काले कारनामे महारानी के दरबार तक न पहुंच सकें।

इस तरह जिस प्रकार एक अँग्रेज एओ ह्यूम ने कांग्रेस गठित करके राजनीतिक चेतना विकसित करने का काम किया, उसी तरह हिक्की ने अखबार निकाल कर उसकी मारकशक्ति से भारतीय बौद्धिकों को परिचित कराया। अखबार निकालने के पीछे यद्यपि हिक्की का ईर्षाजनित क्रोध और चार पैसे कमाने की लालसा थी। समाज को लेकर उसकी न कोई घोषित प्रतिबद्धता थी और न ही पक्षधरता। पर कई काम अनजाने, अनायास ही हो जाया करते है हिक्की गजट के जन्म की यही घटना है। कंपनी का छोटा सा मुलाजिम हिक्की जब अफसरों के ठाट देखता तो जलभुन जाता था(पत्रकारों में कमोबेश वही भाव आज भी जिंदा हैं)। इसलिए गुस्से को पर्चे में लिखकर निकाला। वह होशियार था और इसमें भी कुछ कमा लेने की गुंजाइश देखता था सो बंगाल गजट के साथ उसने शीर्षक में ही ‘कलकत्ता एडवरटाइजर’ जोड़ दिया। यानी कि अखबार के जरिए भयादोहन कर माल कमाने का रास्ता भी भारतीय पत्रकारिता के इस गौरांग मानुष ने ही दिखाया।

लेकिन हिक्की गजट ने एक प्रेरणा तो दी ही कि अखबार के माध्यम से जनजागरण भी किया जा सकता है खासतौर पर उनके खिलाफ जिनसे इस देश व समाज को बचाने के लिए लड़ना है। इसलिए शुरुआती दिनों में ही अखबार और साप्ताहिक समाजसुधार व स्वतन्त्रता की चेतना फैलाने के लिए आवश्यक समझे गए। भारत में इसतरह प्रतिबद्धत पत्रकारिता की शुरुआत हुई। सतीप्रथा व अन्य कुरीतियों के खिलाफ आंदोलन चला रहे राजा राममोहन राय ने ‘बंगाल कौमुदी’ नाम का अखबार निकाला। कांग्रेस तबतक स्वाधीनता आंदोलन के लिए एक मंच बन चुका था और लाल-बाल-पाल यानी की लाला लाजपतराय, बिपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक देश के क्षितिज में धूमकेतु की तरह उदित हो चुके थे। इन तीनों महापुरुषों ने मीडिया की ताकत को समझा और इसे स्वाधीनता की लड़ाई के प्रभावशाली औजार में बदल दिया।

लाला लाजपतराय ने 1904 में अँग्रेजी में ‘द पंजाबी’निकाला और एक के बाद एक पुस्तकों की रचना की। बिपिनचंद्र पाल इससे पहले ही परिदर्शक, पब्लिक ओपीनियन, वंदेमातरम, द बंगाली निकाल चुके थे। यानी कि इन्होंने बांग्ला और अँग्रेजी में अखबार निकाला। वंदेमातरम सबसे प्रसिद्ध अखबार था। इधर बाल गंगाधर तिलक ने अँग्रेजी में मराठा और मराठी में केसरी नाम का अखबार निकाला। इन अखबारों का उद्देश्य हिक्की की तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ भंडाफोड करना या एडवरटाइजर बनकर धन जुटाना नहीं था अपितु अँग्रेजों को भारतीयों की भावना से परिचित कराना और भारतीयों को अँग्रेजों की गुलामी के खिलाफ लामबंद करके खड़ा करना था। यह मीडिया की प्रतिबद्धता का उत्कृष्ट नमूना था। इस परंपरा को गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ मदनमोहन मालवीय ने अभ्युदय और हिंदुस्तान, माखनलाल चतुर्वेदी ने कर्मवीर, विष्णु राव पराडकर ने आज, रणभेरी के माध्यम से आगे बढ़ाया। इस पुनर्जागरण काल में देश के हर प्रांतों से विविध भाषाओं में अखबार निकलने शुरू हुए और इन्हें निकालने वाले प्रायः सभी भारतीय महापुरूषों का एक ही उद्देश्य था..स्वाधीनता के लिए जनजागरण या समाज की बुराई के खिलाफ आंदोलन। हिंदी, अँग्रेजी और गुजराती में महात्मा गांधी ने हरिजन नाम का अखबार निकाला जो अछूतोद्धार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को लेकर था।

इसी बीच कलकत्ता से कई ऐसे भी अखबार शुरू हुए जो स्वरूप से थे तो विशुद्ध पेशेवर लेकिन उनका भी उद्देश्य समाज व देश के प्रति प्रतिबद्धता थी। बाबू शिशिर कुमार घोष ने 20 फरवरी 1868 के दिन बांग्ला भाषा में अमृतबाजार पत्रिका का शुभारम्भ कर चुके थे। अँग्रेज अब क्षेत्रीय और भाषाई पत्रकारिता की ताकत को भाँप चुके थे और पहली लगाम कसी 1878 में बर्नाक्युलर प्रेस एक्ट लाकर। इस एक्ट के सीधे निशाने पर शिशिर बाबू की आनंदबाजार पत्रिका थी। अखबार जगत में रातोंरात एक करिश्मा हुआ..बांग्ला की अमृतबाजार पत्रिका अँग्रेजी में बदल चुकी थी। उन दिनों अँग्रेजों ने अपने प्रपोगंडा के लिए अखबार शुरू किए। बेनेटकोलमैन कंपनी का टाइम्स आफ इंडिया, स्टेटसमैन और पायोनियर जैसे अखबार अँग्रेज सल्तनत की पक्षधरता के लिए खड़े कर दिए गए। इस तरह आजादी के पहले अखबारों की दो धाराएं थीं पहली जो समाज और देश के प्रति प्रतिबद्ध थीं जिनका काम स्वाधीनता को लेकर जन जागरण करना था। ऐसे अखबारों की लगाम सेठों के हाँथों में नहीं अपितु स्वतंत्रता संग्रामियों के हाथों थी जो अखबारों को ट्रस्टीशिप में या ग्राहकों के चंदों के संसाधन से निकल रहे थे। भारतीयत भाषाओं के अखबारों के लिए ‘चंदा’शब्द साठ सत्तर के दशक तक चला। तब यह माना जाता था कि यह उत्पाद नहीं बरन् जनता के चंदे के सहयोग से चलने वाला एक सामाजिक सहकार है। बाद में ऐसे ही कई अखबारों को पूँजीपतियों ने खरीद लिए जो आज मीडियाइंडस्ट्री के ध्वजवाहक बने हुए हैं।

तो स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के मुकाबले अँग्रेजों ने अपने अखबार खड़े किए जो ब्रिटिश साम्राज्य का गुणगान करते थे और उनके राज को भारत के लिए वरदान बताते थे। सो इस तरह भारत में मीडिया की प्रतिबद्धता और पक्षधरता दोनों ही समानांतर रूप से विकसित हुई जो आजादी के कुछ वर्षों बाद ही आपस में मिलकर एक हो गईं।

अब मीडिया बाजार का एक हिस्सा है और उसके बाजारू लटके झटकों को देखते हुए ही प्रसिद्ध उपान्यासकार जार्ज ओरवेल ने ‘पेन प्रस्टीट्यूट’ यानी की कलम की पतुरिया कहकर संबोधित किया है। मीडिया के चाल चरित्र और चेहरे को लेकर आज विश्वव्यापी विमर्श चल रहा है। इस विमर्श के केंद्र में प्रेस की स्वतंत्रता भी है, निष्पक्षता, पक्षधरता और प्रतिबद्धता भी। एक बहस मीडिया का बाजार बनाम बाजारू मीडिया को लेकर भी है। इस बीच वैकल्पिक मीडिया का अभ्युदय और सोशलमीडिया के लोकव्यापीकरण की बात भी शुरू हुई है।

जब हम मीडिया के भविष्य की बात करते हैं तब हमारी निगाहें अमेरिका की ओर जाकर टिक जाती हैं। अमेरिका की ओर इसलिए कि यह डेमोक्रेसी का आयकन है और यहां प्रेस की स्वतंत्रता अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में देखी जाती है। उसकी स्पष्ट वजह यह कि अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता को चुनौती नहीं दी जा सकती। भारत में जहां प्रेस की स्वतंत्रता को अलग से परिभाषित न करते हुए नागरिकों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में सन्निहित किया गया है, वहीं अमेरिका में प्रेस की आजादी को संवैधानिक कवच प्राप्त है। इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि भारत में यदि मीडिया कुछ छापता है और अदालत में उसे चुनौती दी जाती है तो बर्डन आफ प्रूफ खबर प्रकाशित करने वाले पर होगा। अमेरिका में इसकी स्थिति उलट है..पीडित व्यक्ति को यह साबित करना होता है कि उसको लेकर जो छापा गया है वह गलत है।

अमेरिका में प्रेस की इस स्वतंत्रता को लेकर पूरी दुनिया में दुहाई दी जाती है। 1787 में अमेरिका का जब संविधान लिखा जा रहा था तब प्रेस को डेमोक्रेसी का वाचडॉग माना गया था। प्रेस की आजादी को लेकर जनप्रतिनिधियों के इस भावाभिव्यक्ति को थामस जफरसन जो कि बाद में राष्ट्रपति भी बने ने कुछ यूँ व्यक्त किया- “अगर मुझपर इसका फैसला छोड़ा जाता सरकार हो मगर अखबार न हों, अखबार हों लेकिन सरकार न हो तो मैं एक झटके से दूसरे विकल्प को चुनता”

अमेरिका के संस्थापकों ने इस बात को महसूस किया था कि प्रेस तटस्थ नहीं भी हो सकता है फिर भी उन्होंने संविधान में प्रेस और पत्रकारों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया था। थामस जेफरसन ने लिखा था कि हमारी हमारी स्वतंत्रता प्रेस की स्वतंत्रता पर निर्भर करती है और उसकी कोई सीमा तय नहीं की जा सकती। जान एडम्स भी मानते थे कि स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए प्रेस की स्वतंत्रता अनिवार्य है। अमेरिका में समय समय पर प्रेस के अकूत अधिकारों को लेकर चुनौतियां दी गईं। 1971 में अमेरिका के सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस- ह्यूगो ब्लैक ने एक मामले में टिप्पणी दी थी कि प्रेस का काम शासित की सेवा करना है न कि सेवक की।

तो क्या अमेरिका में प्रेस को लेकर जो चल रहा है वह ठीक है.. जी नहीं, पेन प्रस्टीट्यूट के जिस विश्लेषण से प्रेस को नवाजा गया है वह अमेरिका के संदर्भ में ही है। ट्रंप जब राष्ट्रपति थे तो अमेरिकी प्रेस को लेकर इतने उदिग्न हुए कि असहज सवाल पूछने वाले एक पत्रकार पर ह्वाइट हाउस में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। वे खुले मंचों से अमेरिकी प्रेस को लांछित करते हैं व जनता से अपील करने में भी कोई गुरेज नहीं करते कि प्रेस का बहिष्कार किया जाए। दरअसल अमेरिका में प्रेस की पक्षधरता भी स्पष्ट रूप से सामने आ गई। यह प्रक्रिया कोई तात्कालिक नहीं है। जिन जेफरसन साहब ने प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर ऐसे बड़े बोल बोले थे, जिसे आज भी उद्धृत किया जाता है वही जेफरसन साहब अब अमेरिका के राष्ट्रपति बनकर जब ह्वाइट हाउस पहुँचे तो प्रेस को लेकर उनके स्वर बदल गए। तब उन्होंने कहा-” अखबार में जो छपता है उसपर कुछ भी विश्वास नहीं किया जा सकता, इस प्रदूषित वाहन(मीडिया) में डालभर देने से सत्य संदिग्ध हो जाता है।

दरअसल अमेरिकी प्रशासन अपने दुश्मन देश से ज्यादा अपनी ही मीडिया से डरता है और उसकी वजह यह कि सबके अपने-अपने वाटरगेट हैं और कभी भी उनका पर्दाफाश हो सकता है। अमेरिका में प्रेस की इस अकूत ताकत को देखते हुए उद्योगपतियों और राजनेताओं ने भी इस क्षेत्र में निवेश किए तथा अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता की दो परस्पर विपरीत धाराएं खड़ी कर दीं। आज वहां का मीडिया स्पष्टतौर पर या तो रिपब्लिकन के साथ है या फिर डेमोक्रेट के। ठीक उसी तरह आज की तारीख में भारत में मीडिया या तो नरेन्द्र मोदी के पक्ष में खड़ा है या फिर विरोध में। फिर भी अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर चिंता तो है। वर्ष 2018 में वहां के 146 वर्ष पुराने अखबार ‘बोस्टन ग्लोब’ के नेतृत्व में 300अखबारों ने अमेरिका में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर संपादकीय लिखे।

यूरोप और अमेरिका के अखबार अपने देश के अंदरुनी मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामलों में भले ही कितना करतब दिखाएं लेकिन जब उनके देशों के हितों की बात आ ती है तो वे भीषण राष्ट्रवादी स्वरूप में प्रगट होते हैं। 1982में नई दिल्ली में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलन में नान एलाइड मूवमेंट मीडिया जिसे संक्षेप में ‘नामीडिया’ कहा गया का विचार आया था। तीसरी दुनिया के देशों के नेतृत्वों ने इस बात की गहन चिंता व्यक्त की थी कि पश्चिम का मीडिया उनके साथ पक्षपात करता है और गलत छवि प्रस्तुत करता है। तीसरी दुनिया का एक अलग प्रेसपूल बनाने की बात हुई थी। तब भी और अब भी

दुनिया की सूचना का एकाधिकार रायटर(ब्रिटेन) एसोसियेटेड प्रेस, एपी(अमेरिका) और एएफपी का था। ईराक, अफगानिस्तान, लीबिया को बर्बाद करने से पहले अमेरिकी-यूरोपीय मीडिया ने भूमिका तैयार की थी। आज वही मीडिया नार्थकोरिया और ईरान के पीछे लगी है। क्यूबा और वेनेज़ुएला की दुनिया में एक नकारा छवि पेश करने की कोशिश भी इसी मीडिया की थी। भारत की बालाकोट स्ट्राइक की सत्यता पर पहला सवाल बीबीसी ने उठाया था और याद हो कि लोकसभा चुनाव के पहले टाइम मैगजीन ने नरेन्द्र मोदी को खलनायक स्थापित करने वाली एक कवर स्टोरी छापी थी। तो अमेरिका यूरोप का मीडिया अपने देश के भीतर कितने भी अंतरविरोध में पल रहा हो दूसरे देशों के मामलों में वह अपने देश के हुक्मरानों का प्रपोगंडा इंस्ट्रूमेंट्स बन जाता है। यहां उसकी नग्न पक्षधरता उभरकर सामने आती है।

इंग्लैंड का प्रेस तो ब्रिटेन को सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए बेशर्मी के साथ किसी हद तक जा सकता है। मुझे आज भी याद है 1993 में इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट में प्रवेश के साथ ही जब विनोद कांबली ने 272 रन धुने थे तब ब्रिटेन के प्रायः अखबारों ने कांबली की काबीलियत बताने की बजाय यह बताने में अपना स्पेश जाया किया कि क्रिकेट ने मुंबई की गंदी बस्ती में रहने वाले एक अछूत जाति के छोकरे की कैसे किस्मत बदल दी। इंग्लैण्ड यह सीरीज हारा था, जिसकी सफाई में गार्जियन जैसे अखबारों ने यहां तक लिखा कि कानपुर की गर्मी, मुंबई की उमस और कोलकाता की प्रदूषित झींगा मछली ने हमारे खिलाड़ियों के मनोबल पर विपरीत असर किया। तो यूरोप-अमेरिका के अखबार वैश्विक स्तर पर अपने-अपने देशों के झंडाबरदार बन जाते हैं…जबकि इसके उलट भारत के द हिंदू और टेलीग्राफ जैसे अखबार दुनिया के सामने अपने देश की जांघे उघाड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते।

भारत में मीडिया बड़े ही विचित्र दौर से गुजर रहा है। आजादी के बाद प्रेस से जुड़ी हुई सभी मान्यताएं और शब्दावलियाँ बदलने लगीं..। मेल माल हो गया, प्रेस प्रोडक्ट और पाठक उपभोक्ता। मीडिया का एकाधिकार औद्योगिक घरानों के हाथ आ गया जो प्रत्यक्षतः कारखाने चलाते हैं और परोक्षतः अपने धन से राजनीतिक दल और सरकारें। इस मुफीद धंधे में चिटफंडिये, बिल्डर्स और स्मगलर्स भी आ जुड़े। मीडिया के विस्तार के साथ ही उसके मूल्य भी बिखरते गए। मर्यादाएं टूटती गईं और आज की तारीख में किसी भी मीडिया का कंटेंट देखकर यह तय कर पाना मुश्किल है कि यह एडवर्टोरियल हो कि एडिटोरियल। मीडिया का बाजार भी बना और मीडिया बाजारू भी हो गया। उसकी प्रतिबद्धता और पक्षधरता से आम आदमी और समाज धीरे-धीरे हाशिये पर जाता गया। आज उसकी सबसे बड़ी चिंता अपने उस औद्योगिक साम्राज्य को बचाने की है जिसका वह मुखौटा है..और इसी लिहाज से वह खुद को प्रस्तुत भी करता है…प्रेस को प्राँस कहने वालों के पास इससे भी जघन्य आधार हैं…। प्रेस आज पार्टी में बदल चुके हैं। उनके प्रवक्ताओं की भूमिका में एंकर और रिपोर्टर तो पार्टियों के हक में न्यूजमेकर्स की भूमिका में हैं ही। जो इस प्रवाह में नहीं बहा वह काई जैसे फेंटे में लगा प्रेस की पक्षधरता और प्रतिबद्धता पर विमर्श कर रहा है…।

और अंत में फिर जार्ज ओरवेल का कथन जो उनके उपन्यास 1984 में दर्ज है-

“जो पार्टी आपको ये कहे कि अपनी आँखों और कानों के देखे-सुने सबूतों को मत मानो, यह उनकी तरफ से सबसे अनिवार्य और अंतिम फरमान है।

News Source – bhadas4media

अगले विधानसभा के लिए – भाजपा अभी से तैयार

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सुधीर पाण्डे

भोपाल: शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश में अपनी पांचवी पारी लगातार खेलने का रिकार्ड बनाने जा रही है। चुनाव के 15 महीनें पूर्व से ही मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल की गतिविधियों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वे किसी भी शर्त पर हारने के लिए तैयार नहीं है। जनसम्पर्क के माध्यम से गांव-गांव तक जहां भाजपा का संगठन अपनी पहुंच बना रहा है, वहीं संघ के नियत्रंण वाले अन्य संगठन भी मतदाता के मध्य अपनी गहरी पैठ कायम कर रहे है।

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मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का पूरा ध्यान प्रदेश के सामान्य मतदाता को भाजपा की नीतियों के प्रति व्यवहारिक विश्वास दिलाने पर केन्द्रित हो चुका है। वैसे भी भाजपा को अगले चुनाव में विपक्ष की और से कोई भी चुनौती मिलने की सम्भावना नहीं है। इस बार भाजपा चुनाव को कितनी गंभीरता से ले रही है उसका प्रमाण यह है कि राज्य विभिन्न स्वयं सेवी संगठन के साथ भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सीधे वार्तालाप करके उन्हें रचनात्मक कार्यो से जुड़ने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। किसान, मजदूर, छात्र, महिलाएं सभी वर्गो में लगातार पैठ बनाने का सिलसिला तेजी से जारी है। इस बीच धार्मिक आधार पर मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम और उनका व्यापाक प्रचार निरन्तर किया जा रहा है।

15 महीने पहले से शुरू किए गये इस अभियान का मुख्य आकर्षण यह है कि भाजपा का छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी राज्य में 5वीं बार अपनी सरकार बनते हुए स्पष्ट रूप से महसूस कर रहा है। दल का प्रत्येक कार्यकर्ता राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की योजना का प्रचार-प्रसार जमीनी स्तर पर जा कर करने में संलग्न है। एक संगठित स्वरूप में सत्ता और संगठन दोनों ही राज्य में कार्य करते हुए नजर आ रहे है। इस प्रक्रिया के कारण चुनाव प्रारंभ होने के पूर्व दल पर पड़ने वाले अत्याधिक काम के बोझ से भाजपा कई महीने पहले ही अपने आप को मुक्त कर देना चाहती है। जैसी की उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री के पद को लेकर इस कार्यकाल में ही कुछ असंतोष पैदा होगा यह धारणा क्रमशः गलत प्रमाणित होती जा रही है। भाजपा कार्यकर्ता समूचे प्रदेश में अपने लगभग 20 साल के सुशासन की दुहाई दे रहें है और भविष्य में अन्य सभी योजनाओं के अत्यंत सरलीकरण की बात भी कर रहे है। जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि अगले 5 सालों में भी सत्ता प्राप्त होने के बाद भाजपा की योजना आम व्यक्ति तक सीधे पहुंच बना लेगी।

भाजपा के सामने एक टूटे हुए मनोबल को लिया हुआ विपक्ष है, जिसकी संगठात्मक क्षमता शून्य है और राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने की प्रणाली निहित स्वार्था से जुड़ी हुई है। भाजपा और कांग्रेस के अतिरिक्त इस बार मध्यप्रदेश की राजनीति में आम आदमी पार्टी के दखल से भी भाजपा पूरी तरह सतर्क है। हर स्तर पर यह प्रयत्न किया जा रहा है कि भविष्य के राजनैतिक गणित को वर्तमान में ही इतना संतुलित कर लिया जाए कि हर गली-चैराहे और मकान में भाजपा का एक समर्थक स्वयं-भू होकर प्रगट हो सके। इशारा यह कहता है कि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने विराट स्वरूप में, राज्य में, अस्तित्व में आ सकती है और प्रदेश के विकास को निरन्तर रखते हुए मध्यप्रदेश के इतिहास में एक नई इबारत लिख सकती है।

अभी भी नाटकबाजी में उलझी है – कांग्रेस

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सुधीर पाण्डे

भोपाल : ये कैसी राजनीति है, जिसमें लड़ने के पहले कई सेनापतियों को एक साथ वातानुकूलित कमरें में एक साथ बैठाने के बाद भी एक आम राय न बनाई जा सके। केवल यह निर्णय हो सके कि यदि कांग्रेस जीती तो कमलनाथ ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। राज्य में इन दिनों 16 से अधिक कांग्रेस गुटों के प्रमुख मुख्यमंत्री बनने की चाहत दिल में लिये हुये अपने-अपने तरीके से प्रयास कर रहे है। इस दौड़ में एक दूसरे को लंगड़ी मारने और दूसरे नेताओं के विरुद्ध अवांछनीय गतिविधियों के पुख्ता प्रमाणों को एकत्र करने का काम भी सभी नेताओं के मध्य बराबर जारी है।

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कमलनाथ ने अपने निवास पर कांग्रेसी राजनीति के सभी जमीदारों की एक बैठक आयोजित की, इस बैठक में प्रमुख मुद्दा आपसी मतभेदों को भुलाकर कांग्रेस को मजबूत करने का था। नियत बिलकुल साफ थी पर बैठकर में भाग लेने वाले सभी नेता अपनी-अपनी राजनैतिक संभावनाओं को और अपने गुट के समर्थकों को संरक्षित करने की नियत से एक योजना बनाने के लिए एकत्र हुए थे। इनमें से कुछ वे भी थे जो स्वयं की राजनीति के चुक जाने के बाद अपने बच्चों के भविष्य और सुरक्षित बनाने की कोशिशों में लगें हुए थें। बैठक में जो भी हुआ हो बाहर संदेश यही गया कि कांग्रेस एक हो गई है। सभी जमीदारों ने एक साथ विशिष्ठ भोजन का आनंद लिया और कांग्रेस की प्रति अथाह चिंता रखते हुए अपने-अपने निवास की और नई तरकीब और षड़यंत्र की व्यूह रचना करते हुए रवाना हो गये ।

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कांग्रेस एक हो गई है इसकी कल्पना करना बेकार है, कांग्रेस को नेतृत्व लिए जिस नये खून की जरूरत है वह कहीं नहीं नजर आ रहा। यह तय है कि कमलनाथ की अगवायी में चुनाव लड़ते समय कांग्रेस को पैसों की चिंता नहीं रहेगी। पर वह वास्तविक जनाधार कहां से आयेगा जो आम मतदाता को कांग्रेस के साथ जोड़ सके और कांग्रेस के प्रति उसके अंदर एक स्वयं और विश्वास पैदा कर सकें। इन प्रश्नों के उत्तर कार्याकर्ताओं की ईमानदार गतिविधियों पर निर्भर करता है। जब जमीदार अर्श पर बैठे हुए बड़े नेता कार्यकर्ताओं के साथ फर्श पर चलकर जनमत और जनभावनाओं के अनुसार कुछ करने की कोशिश करते है तो ही पार्टी का जनाधार बनता है। महंगाई के विरुद्ध अपने बंगले के सामने गैस सिलेंडरों को माला पहना देना और देढ़ मिनिट का भाषण देकर और फिर वातानुकूलित कक्ष में चले जाना राजनीति नहीं हो सकती। इसे जनभावनाओं का सम्मान भी नहीं माना जा सकता। जमीन पर चलने वाले पैर जो जनाक्रोश को गति दे सकते है कांग्रेस के पास नहीं है। पिछले 20 सालों तक लगातार सरकार के साथ मिलकर एक व्यवसायी सहयोगी की रूप में काम कर रहे। कांग्रेसी नेताओं को अपनी मंहगी और लगजरी गाड़ियों में डलने वाले महंगे ईंधन की चिंता नहीं है। आज भी उनके बाड़े में पलने वाली भैसों को नहलाने के लिए उसी गैस सिलेण्डर से पानी गर्म किया जाता है, जिसे 6 महीने तक एक आम आदमी अपनी रसोई की जरूरत को पूरा करने के लिए भरवा पाने में अक्षम है। कांग्रेस दर्द की राजनीति को नहीं समझ रही, जमीदारों को महंगा खाना खिला कर और सिलेण्डर को माला पहना कर आम व्यक्ति की भावना तक नहीं पहुंचा जा सकता।

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इस बार कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती भाजपा तो है ही, आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस के सामने आम व्यक्ति की भावनाओं को समझने के लिए बराबरी से उतरेगी। यही संदेह पैदा होता है कि इस दिखावटी राजनीति में कहीं कांग्रेस को पंजाब के परिणामों की पुनारावृर्ती देखने को न मिल जाए। मध्यप्रदेश में चाटुकारों को छोड़कर कुछ ईमानदार और स्पष्ट बोलने वाले नेताओं की जरूरत है जो पीढ़ी समय के साथ कम से कम कांग्रस में तो पूरी तरह समाप्त हो चुकी है।

कांग्रेस की मजबूरी, चुनाव में कमलनाथ हैं जरूरी

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दीपक बिड़ला

भोपाल। मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेताओं के बीच चल रहे मनमुटाव का आखिरकार पटाक्षेप हो गया है। प्रदेश के दिग्गज कांग्रेस नेताओं ने एक सुर में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ पर भरोसा जताते हुए उन्हीं के नेतृत्व में वर्ष 2023 का विधानसभा चुनाव लडऩे की बात कही है। इसके साथ ही इन खबरों को भी विराम लग गया कि कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष में से एक पद छोड़ेंगे।

प्रदेश कांग्रेस में अंतर्कलह, अंतर्विरोध और गुटबाजी

करीब छह महीने पहले खंडवा लोकसभा सीट पर होने जा रहे उपचुनाव में प्रत्याशी का नाम फायनल होने से ठीक पहले पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने चुनाव लडऩे से इनकार कर दिया था। यहीं से कांग्रेस में बिखराव की शुरुआत हुई। अरुण यादव ने पार्टी की गतिविधियों में रुचि लेना कम कर दिया। इसके बाद जनवरी में सीएम हाउस के नजदीक धरने sampadkiy 1के दौरान कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बीच हुए तल्ख संवाद का वीडियो जमकर वायरल हुआ, जिससे तय हो गया कि दोनों नेताओं के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। फिर मार्च में विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण के बहिष्कार के मुद्दे पर नेता प्रतिपक्ष के तौर पर कमलनाथ ने भाजपा का साथ देते हुए जिस तरह कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी को कठघरे में खड़ा कर दिया, उससे भाजपा को पटवारी को घेरने का मौका मिल गया। इसका नजीता यह हुआ कि पटवारी समेत कई युवा विधायकों ने विधानसभा की कार्यवाही में रुचि नहीं ली। सत्र के दौरान पूरा विपक्ष बिखरा-बिखरा नजर आया। मीडिया में रोजाना सामने आ रही प्रदेश कांग्रेस में अंतर्कलह, अंतर्विरोध और गुटबाजी की खबरों से परेशान कमलनाथ ने तीन दिन पहले सभी दिग्गज नेताओं और पूर्व मंत्रियों को डिनर पर बुलाया। इस दौरान सभी नेताओं ने एकजुटता दिखाते हुए कमलनाथ के नेतृत्व में चुनाव लडऩे और उनका हर निर्णय मान्य होने की बात कही।

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लंबे अरसे से केंद्र और प्रदेश की सत्ता से बाहर कांग्रेस में फंड की कमी

बड़ा सवाल यह है कि आखिर क्या कारण है कि पार्टी हाईकमान 76 साल के कमलनाथ पर इतना भरोसा जता रहा है। दरअसल, लंबे अरसे से केंद्र और प्रदेश की सत्ता से बाहर होने के कारण कांग्रेस फंड की कमी से जूझ रही है। विधानसभा चुनाव लडऩे के लिए पार्टी को करोड़ों रुपए चाहिए। कमलनाथ के अलावा प्रदेश में ऐसा कोई नेता नहीं है, जो चुनाव में करोड़ों रुपए फंूक सके। यह बात प्रदेश के सभी नेता अच्छे से जानते हैं। दूसरी बात यह है कि कमलनाथ पार्टी के वरिष्ठतम अनुभवी नेताओं में से एक हैं। उनकी छवि बेदाग है। वे प्रदेश में कांग्रेस के एकमात्र सर्वमान्य नेता है। सभी उनके फैसलों को मानते हैं। भाजपा भी यह अच्छे से जानती है कि कमलनाथ हैं, तो कांग्रेस एक है। यदि पार्टी किसी दूसरे नेता को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपती है, तो चुनाव के ऐन मौके पर कांग्रेस बिखर जाएगी, जिसका फायदा भाजपा को चुनाव में मिलेगा। कांग्रेस हाईकमान को भी कमलनाथ की नेतृत्व क्षमता पर भरोसा है, यही वजह है कि किसी युवा चेहरे की बजाय वह कमलनाथ पर पूरा भरोसा जता रहा है। या यूं कहें की आज के हालात में कमलनाथ पर भरोसा जताना पार्टी हाईकमान की मजबूरी है। पार्टी यह भी जानती है कि चुनाव से 18 महीने पहले नेतृत्व में बदलाव करना ठीक नहीं है। पार्टी पंजाब में विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले मुख्यमंत्री बदलने का हश्र देख चुकी है।

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प्रदेश में सक्रियता बढ़ाएगी कांग्रेस

विधानसभा चुनाव में 18 महीने बचे हैं, ऐसे में कांग्रेस ने प्रदेश में सक्रियता बढ़ाने का निर्णय लिया है। कमलनाथ खुद को प्रदेश का दौरा करेंगे ही, वरिष्ठ नेता भी अलग-अलग क्षेत्रों का दौरा करेंगे। इसके अलावा पूर्व मंत्रियों को भी अपने-अपने जिलो में जनता से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन करने के निर्देश पीसीसी चीफ ने दिए हैं।  कांग्रेस के फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन, मोर्चा, प्रकोष्ठों को भी सरकार की जन विरोधी नीतियों को लेकर सड़क पर उतरने को कहा गया है। इसी कड़ी में युवा कांग्रेस 11 अप्रैल को राजधानी में प्रदेश व्यापी आंदोलन करेगी।

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