Sunday, July 27, 2025
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भारतीय राजनीति के अपराधीकरण से महंतीकरण तक !

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ज्वलंत/जयराम शुक्ल

मध्यप्रदेश के दिग्गज राजनेता श्री निवास तिवारी ने एक बार कहा था- चुनावी लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक पहले एक वोटर है, इसके पश्चात ही अपराधी या हरिश्चंद्र का औतार। एक बड़े पत्रकार ने उनसे पूछा था कि आप पर अपराधियों को प्रश्रय देने के आरोप क्यों लगते हैं? तिवारी जी ने जवाब दिया- मैं अपने वोटर को प्रश्रय देता हूँ, हो सकता है वह आपको अपराधी लगे। और हाँ जिन्हें आप अपराधी कहते हैं जिसदिन उनका मताधिकार छिन जाएगा उस दिन से मैं उनकी ओर देखूंगा भी नहीं। उन्होंने उस पत्रकार से पलटकर पूछा- वोट की संख्या में आप क्या यह विभेद कर सकते हैं, कि इतने वोट अपराधियों के हैं और इतने ईमानदारों के..? उस पत्रकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था, मेरे पास भी नहीं.. और शायद आपके पास भी नहीं होगा ऐसा मेरा मानना है। राजनीति के अपराधीकरण को समझने के लिए इससे बेहतर प्रश्न और उत्तर नहीं हो सकते।

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श्रीनिवास तिवारी साफगो नेता थे, खरी-खरी तार्किक बातें करने वाले। वे जो अँधेरे में थे वही उजाले में, आज के प्रायः नेताओं की भाँति कंबल ओढ़कर घी/दारू पीने वालों से अलग जमात के नेता ।
राजनीति के अपराधीकरण/ महंतीकरण को हाल ही की कुछेक घटनाओं के बरक्स विवेचना करने की कोशिश करते हैं, कि चुनावी लोकतंत्र में यह नासूर कितने गहरे तक है।

चलिए हम रीवा की ही वह चर्चित घटना लेते हैं जिसमें एक युवा महंत ने राजनिवास (विन्ध्यप्रदेश के समय का गवर्नर हाउस) में झाँसा देकर बुलाई गई एक तरुणी के साथ दुष्कर्म किया। उसे प्रश्रय देने के आरोप में गंभीर आपराधिक इतिहास वाले एक बाहुबली को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और उसका काम्प्लेक्स ढहाया गया।

महंत और उसके आश्रयदाता से जुड़े मसलों को देखें तो दोनों ही राजनीति में अंदर तक धँसे थे। महंत एक ऐसे महामंडलेश्वर के संरक्षण में धर्मध्वजा फहरा रहा था जो रामजन्मभूमि आंदोलन के बड़े नेताओं में से एक थे और दो बार निर्वाचित होकर लोकसभा जा चुके हैं। दुष्कर्म के आरोपी युवा महंत की जो तस्वीरें आईं उनमें एक में वे प्रदेश के गृहमंत्री का रामचरित मानस व शाल श्रीफल और पुष्पहार से अभिनंदन कर रहे थे। दूसरी तस्वीर में वे प्रदेश के स्पीकर पर आशीर्वाद वर्षा रहे थे।

दुष्कर्मी युवा महंत के कृपा पात्रों में कुछ आईएएस, आईपीएस भी थे जिनकी तस्वीरें सामने आईं। आप कह सकते हैं कि इन महापुरुषों को यह नहीं मालूम था कि महंत के वेश वाले इस युवा की असलियत का जल्दी ही कालिनेम की भाँति पर्दाफाश होने वाला है।

लेकिन इस बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं कि हमारे नेता अपने पुरुषार्थ की बजाय साधू-संतों के और तांत्रिक चमत्कारों पर ज्यादा विश्वास करते हैं। इन्हें अपनी राजनीति के उत्थान में सहायक मानते हैं। इनके लिए जनता-जनार्दन बस महज एक नारा है, असली जनार्दन यही ढ़ोंगी और पाखंडी लोग हैं।

अभी जब पंजाब में चुनाव चल रहे थे, उसी बीच अखबार में एक खबर पढ़ी, कि रामरहीम को जेल से कुछ दिनों के लिए पेरोल पर रिहा किया गया है। पेरोल की टाइमिंग इसलिए मायने रखती है क्योंकि रामरहीम का डेरा सच्चा सौदा अभी भी अस्तित्व में है, उनके शिष्यमंडली की संख्या ज्यादा कम नहीं हुई है।

जेल जाने के पहले तक हरियाणा और पंजाब की कई विधानसभा सीटों की हार-जीत का निपटारा डेरे के फरमान से होता था। यह फरमान लगभग वैसे ही होता था जैसे कि जामा मस्जिद से, देवबंद या बरेली से फतवे जारी होते हैं। रामरहीम के मामले में आप कह सकते हैं कि राजनीति में ‘मरा हाँथी भी सवा लाख’ का होता है।
चुनाव में ये ‘सवा लाख’ भुनाने के लिए ही शायद पैरोल दी गई हो। फिलहाल जेल में बंद संत रामपाल का भी कुछ ऐसा ही मायाजाल रहा है।

आसाराम तो राजनीतिक आशीर्वाद और श्राप देने के मामले में सबसे आगे थे। वे प्रवचनों में ज्यादातर राजनीतिक उपदेश ही देते थे। भक्तों की विशाल संख्या ने उन्हें स्वयंभू नीतिनियंता बना दिया। उनके सफेदझक पंडालों में आशीर्वाद प्राप्त करने वालों में आडवाणी जी जैसे भाजपा के आदिपुरुष तो थे ही नरेन्द्र मोदी जी भी थे। इस संदर्भ के वीडियो जब-तब वायरल होते ही रहते हैं।

आसाराम जेल में हैं पर उनके आश्रमों की अधोसंरचना पर बुलडोजर नहीं चल पाया सो इसलिए कि ये भी अपनी जाति-बिरादरी और अंधभक्तों में रामरहीम की भाँति ‘मरा हाँथी सवा लाख’ का मूल्य रखते हैं।

योगगुरू रामदेव यद्यपि अब तक लपेटे में नहीं आ पाए लेकिन मैंने इन्हें जब से जाना तब से योग प्राणायाम के साथ राजनीतिक उपदेश ही झाड़ते देखा।

जब यूपीए की सरकार थी तब ये एक एक्टिविस्ट की भाँति सरकार के खिलाफ आग उगला करते थे। मँहगाई, कालाधन और भ्रष्टाचार के एजेन्डे को लेकर जब चाहे तब एक अर्थशास्त्री की भाँति प्रेस कान्फ्रेंस करते दिख जाते थे।

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व मे एनडीए सरकार बनने के बाद एक प्रवचन में इनकी जीभ बहक गई और बोल बैठे- ‘चाहता तो मैं भी प्रधानमंत्री बन जाता’..। फिर क्या इनकी ऐसी मुश्के कस दी गईं कि पेट्रोल के सौ पार होने पर भी वये सरकार की पैरवी करते देखे जा रहे हैं। जबकि यूपीए के समय हाथ उठवाकर पेट्रोल की बढ़ी कीमतों पर जनमत लेते और तत्कालीन सरकार को धरासाई करने का संकल्प दिलाया करते थे।

रामदेव ऐसे वीरव्रती हैं कि एक बार मंच से लुगाई का भेष बनाकर निकल भागे और उधर भक्त पुलिस के डंडों से पिटते रहे।

रामदेव ऊपर वालों के मुकाबले ज्यादा चालक निकले और खुद को अपनी कंपनी पतंजलि के ब्रांड एम्बेसडर तक ही सीमित कर लिया। मीडिया इनके विग्यापनों से पलता है और संभव है कि पतंजलि के मुनाफे का हिस्सा नेताओं तक पहुँचता हो वरना अब तक इनका भी अंत उघर चुका होता।

हर कालिनेम का अंत उघरता है। गोस्वामी जी कह गए- उघरे अंत न होंहि निबाहू। कालिनेम जिमि रावन राहू। राजनीति में ज्यादातर इसी तरह के कालिनेमी संतो-महंतों की घुसपैठ है। अंत उघरने के पहले तक इनकी कीमत इसलिए होती है क्योंकि इनमें भेंड़ों के काफिले जोड़ने का हुनर होता है। जिंदगी से परेशान या पाप के डर से मोक्ष की कामना करने वाला इंसान इनके मायाजाल में उसी तरह फँसता है जैसे कि फ्लाइकैचर में मख्खी।

इनके पंडालों में जुटने वाली भीड़ भी वस्तुतः वोट ही होती है। और यही वोट हमारे चुनावी लोकतंत्र का आत्मतत्व है। राजनीतिक सभाओं में भीड़ जुटाना अब टेढ़ीखीर है सो नेताओं को सबसे सुभीता रास्ता महंतों के पंडाल वाला दिखता है।

इसलिए राजनीतिक दल अपने-अपने सुविधानुसार महंतों की प्राणप्रतिष्ठा करने में अब तक लगे हैं और आगे भी लगे रहेंगे। एक के जेल जाने के बाद दूसरे को तबतक पकड़े रहेंगे जबतक कि कालिनेम की भाँति उसका भी अंत नहीं उघरता।

रीवा वाला युवा महंत जरा जल्दबाज और अनाड़ी निकला धैर्य धरे रहता तो चौथेपध तक आसाराम की तरह धर्म का कल्याण कर ही सकता था।

भारतीय राजनीति में धर्म-धुरंधरों का दखल आजादी के बाद पहले चुनाव से ही रहा। करपात्रीजी महाराज ने रामराज परिषद का गठन किया था। शुरूआत के चुनावों में रामराज परिषद एक प्रभावी राजनीतिक दल था। संसद में व विधानसभाओं में बड़ी संख्या में उसके प्रतिनिधि चुनकर गए थे। लेकिन साठ के दशक आते-आते जन्नत की हकीकत का पता चल गया क्योंकि जाति-पाँति, धर्म-पंथ के खाँचे में बँटे भारतीय राजनीति को प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो जैसा नारा चुनावी मैदान में नहीं सुहाता।

1990 में रामंदिर आंदोलन ने साधू-संतों को फिर से राजनीति करने का अवसर दिया। इनमें से कई संसद और विधानसभाओं में गए, मंत्री बने और राजसुख भोगा। इसी भोगविलास ने मंहतों मठाधीशों को राजनीति के लिए लालायित किया। सो अब प्रायः हर दलों में उनके अपने संत-महंत मठाधीश हैं..और इस तरह भारतीय राजनीति का महंतीकरण हो गया।

अब आते है राजनीति के अपराधीकरण के सवाल पर। एक सरसरी नजर डालें एडीआर की रिपोर्ट पर फिर आगे की बात।

पिछले लोकसभा चुनावों के आँकड़ों पर गौर किया जाए तो स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्ति वाले सांसदों की संख्या में वृद्धि ही हुई है। उदाहरण के लिये वर्ष 2004 में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162 और 2014 में 185 और वर्ष 2019 में बढ़कर 233 हो गई। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफाॅर्म (ADR) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, जहाँ एक ओर वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या 76 थी, वहीं 2019 में यह बढ़कर 159 हो गई। इस प्रकार 2009-19 के बीच गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में कुल 109 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली।गंभीर आपराधिक मामलों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध आदि को शामिल किया जाता है।’

अब लौटते हैं उस घटना की ओर..यह बड़ा ही दिलचस्प वाकया था उस दिन कोर्ट का, जब दुष्कर्मी महंत को प्राश्रय देने के आरोपी को पेश किया जा रहा था। उसने भाजपा जिंदाबाद, शिवराज सिंह जिंदाबाद के नारे लगाए।

लोग हतप्रभ थे कि उन्हीं शिवराजसिंह की सरकार हथकड़ी लगाकर जेल भेज रही और उनके बुलडोजर कांप्लेक्स ढ़हा रहे जिनके बारे में आरोपी दावा कर रहा था कि वह शिवराजसिंह के साथ आठ साल से है।

यह दावा गलत नहीं। नेताओं के साथ की तस्वीरें हैं, चुनावी सभाओं के साझे दृश्य हैं। वह सबकुछ है जो यह साबित करता है कि ये महानुभाव वाकय राजनीति में अबतक नेताओं के बगलगीर रहे हैं।

दरअसल राजनीति में अपराधियों की दो श्रेणी होती है। पहली वह जिसमें अपराधी स्वयं चुनाव लड़कर पदप्रतिष्ठा हाँसिल कर लेता है यहाँ तक कि सरकार का नियामक होता है जैसा कि हरियाणा में हुआ था। गोपाल कांडा नाम के अव्वल दर्जे के अपराधी और दुष्कर्म के आरोपी ने स्वयं और अपने साथी विधायकों के साथ सरकार बनाने में समर्थन की पेशकश भाजपा से की थी।

उत्तरप्रदेश और बिहार में तथा दक्षिण के प्रदेशों में अपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की अपनी पार्टी है जो गाढ़े समय में मुख्य राजनीतिक दलों के खेवनहार बन जाते हैं। एडीआर और इलेक्शन वाच ने अपनी रिपोर्ट में इन्हीं का उल्लेख किया है।

दूसरे कोटि के अपराधी वे होते हैं जो अपना गोरखधंधा नेताओं के संरक्षण में चलाते हैं और इसके एवज में धनबल और बाहुबल उपलब्ध कराते हैं। प्रत्येक राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को ऐसे लोगों की जरूरत होती है। क्योंकि एक अपराधी न सिर्फ वोट देता और दिलवाता है अपितु प्रतिद्वंद्वी के वोट को रोकने का भी काम करता है। सो ऐसे अपराधी दोगुने काम के होते हैं।.

लेकिन जब ये अपराधी राजनीति में बिंध जाते हैं तब इनका हश्र अवश्य ‘मारीचि’ सा होता है। रावण का हुक्म माना तो राम के हाथों मरना तय और नहीं माना तो रावण तलवार लिए खड़ा ही है, मौत दोनों ओर।

हमारे भारतीय राजनीति के चुनावी लोक तंत्र में कालिनेमी महंत और अपराधी मारीचों की भूमिका तब तक अपरिहार्य रहेगी जब तक कि अपराधी पृष्ठभूमि के माननीय संसद और विधानसभाओं में..खम ठोककर संविधान की शपथ लेते रहेंगे और ‘हम भारत के लोग’ इस दृश्य पर ताली पीटते रहेंगे।

कांग्रेस की नई – धर्म आधारित राजनीति

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सुधीर पाण्डे

भोपाल: पूरे देश में लुप्त हो रही कांग्रेस अपनी दुर्दशा को सुधारने के लिए अब सीधे तौर पर हनुमान चालीसा का सहारा लेने को बाध्य हो गई है। राजनीति के लिए किसी प्रभावकारी जनहित, आधारहित योजना को बना न पाने के कारण कांग्रेस भी उस रास्ते पर चल पड़ी है जिस रास्ते को भाजपा ने तैयार किया था और उस पर चलकर ही आम आदमी पार्टी ने दो राज्य में सत्ता प्राप्त करने में सक्षम रही। कांग्रेस को भी वही मार्ग सरल और प्रभावकारी नज़र आया और कांग्रेस ने अपने सभी कार्यकार्ताओं के हाथों में युद्ध के बिगुल के स्थान पर धर्म का कमंडल थमा दिया।

Captureराष्ट्रीय स्तर पर लगभग समाप्त हो चुकी कांग्रेस के बड़े नेता अब भविष्य में होने वाले चुनावों के राज्यों में अपनी गतिविधियों को जनता के बीच में लाने के लिए प्रयासरत है। 15 महीनों तक मध्यप्रदेश में एक निष्प्रभावी सरकार चलाने का अनुभव लेने के बाद तीन राज्यों में सत्ता में वापसी का रास्ता कांग्रेस धार्मिक आडम्बर के माध्यम से प्रशस्त करना चाहती है। मध्यप्रदेश में तो इसके लिए बकायदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा सभी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को एक लिखित पत्र भी भेजा गया है। आने वाले दिनों में राम नवमीं और हनुमान जयंती पर कांग्रेसियों को यह प्रदर्शित करना है कि वे भगवान राम के सच्चे अनुयायी है और हिन्दू धर्म की मान्यताओं और परम्पराओं को मानने वाले वे प्रथम वीर पुरुष है। इस हरकत से कांग्रेस से कुछ भला होगा इसकी सम्भावना न के बराबर है। धर्म के प्रति अनुराग प्रर्दर्शित करना और उस अनुराग का राजनैतिक लाभ लेना एक लम्बी प्रक्रिया है, जिससे आरएसएस जैसी संस्था पिछले सौ वर्षो से लगातार गुजर रही है।

इन सौ वर्षो के दौरान जिस हिन्दू निष्ठा को संघ ने भाजपा की राजनैतिक उपलब्धि बना दिया है, उसे काट पाना कांग्रेस के इस छोटे से प्रयास से संभव नहीं है। इसके बावजूद बयानों और कागजों में कांग्रेस को भविष्य में मिलने वाली संभवित पराजय के कारणों में अपने प्रयास की सत्यता का एक प्रमाण जरूर मिल जायेगा। वैसे भी राजनैतिक रूप से हिन्दू धर्म और उसका दर्शन आज राजनीति के लिए एक फुटबाल की तरह हो गया है। जिन श्रेष्ठ परम्पराओं से हिन्दू धर्म की बुनियाद मजबूत होती थी उन कहानियों प्रार्थनाओं को आज युद्ध के उदघोष के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। मस्जिदों में होने वाले अजान के विरुद्ध लाउडस्पिकर से हनुमान चालीसा का गायन करना उन्हीं में से एक है। दुर्गा क्षति के और विभिन्न वैदिक मंत्रों का सिनेमा हाल में चल रही पिच्चर में सास्वर गायन होना वास्तविक वैदिक परम्पराओं को और मापदण्डों का उल्लंघन है पर ऐसा लगता है कि हिन्दू धर्म की और संस्कृति की सभी पद्यतियों को आज कार्पोरेट कल्चर में शामिल कर लिया गया है।

मध्यप्रदेश कांग्रेस ने एक और प्रयास किया है, जहां भविष्य के संभवित मुख्यमंत्री या वरिष्ठ नेताओं को प्रदेश अध्यक्ष ने एक बैठक में बुलाकर उनसे बदलती राजनीति के संदर्भ में पहली बार चर्चा की है। सामुहिक रूप से एकत्र हुए इन बडे़ नेताओ ने कमलनाथ के आवास पर ही चर्चा की और एक साथ भोजन ग्रहण किया। यह अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं है कि अपने-अपने गुटों को लेकर उपद्रव मचा रहे तमाम राजनेता कुछ मिनिट के लिए ही सही एक बाल्टी मे तो एकत्र हुए और उन्होंने कांग्रेस के हित में किसी विषय पर कोई बातचीत तो की। इस मुलाकात का प्रभाव वास्तव में कुछ नहीं पड़ने वाला यह कुछ ऐसा ही है कि कुश्ती प्रारंभ होने के पहले सभी प्रतियोगी पहलवान आपस में पंजा लड़ाकर एक दूसरे की मास-पेशियों की ताकत का अंदाज लगा रह है। दूसरे अर्थो में समझा जाए तो एकत्र हुए सभी आधारहीन महत्वाकांशी बडे़ नेता बैठक के बाद अपनी व्यक्तिगत रणनीति को और तेज धार देने में जुट गये होंगे। बिचारी कांग्रेस मध्यप्रदेश में सहारों के भरोसे अंतिम सांस ले रही है और उसके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कोई स्थायी आधार नहीं नज़र आ रहा है।

हिंदुत्व-राष्ट्रवाद की चमक फीकी, चुनाव जीतने अब नया प्रयोग

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वर्ष 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पूरे देश में सिर्फ 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी। फिर भाजपा ने हिंदुत्व का कार्ड चला और देखते ही देखते उसकी इतनी सीटें आ गईं कि वह केंद्र की सत्ता में काबिज हो गई। फिर दोबारा सत्ता में आने के लिए उसने राष्ट्रवाद का कार्ड चला और 303 सीटों के साथ वह दोबारा केंद्र की सत्ता में आ गई। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हो गया है। महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। सरकार को इन दोनों ही मुद्दों से निपटने sampadkiy 1का कोई कारगर उपाय नहीं मिल रहा है, जिससे लोगों में सरकार के प्रति नाराजगी है। हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की चमक भी फीकी पड़ती जा रही है, इसलिए भाजपा सरकारें अब विभिन्न योजनाओं में लोगों के खातों में नकद राशि भेजकर वोटों को साधने में जुट गई हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बकायदा इसका प्रयोग किया जा रहा है। सरकार यदि इस प्रयोग में सफल होती है, तो अन्य राज्यों में भी यह प्रयोग दोहराया जाएगा। हालांकि भाजपा की राज्य सरकारों ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है और इसका प्रचार-प्रसार भी शुरू हो गया है।

MP-Election-2023

शिवराज सरकार ने सबसे पहले चुनाव में किसानों को साधने के लिए उनके खातों में राहत राशि भेजना शुरू किया है। सरकार ने 22 महीने में एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए किसानों के खाते में डाल चुकी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शनिवार को ही बैतूल से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में करीब 49 लाख किसानों के खातों में 7618 रुपए का मुआवजा ट्रांसफर किया। उन्होंने मंच से 22 महीने का पूरा हिसाब भी दिया और नाथ सरकार के समय किसानों की उपेक्षा का ब्योरा भी किसानों के बीच परोसा। जल्द ही सरकार ओला पीडि़त करीब एक लाख 72 हजार किसानों को 277 करोड़ रुपए की राहत राशि बांटेगी। हाल में सीएम शिवराज ने महिला स्व सहायता समूहों को 300 करोड़ रुपए का ऋण वितरित किया था। किसानों के साथ ही सरकार का फोकस गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों पर है। विभिन्न योजनाओं में इनके खातों में केंद्र सरकार नकद राशि ट्रांसफर कर रही है। कोरोना काल में केंद्र सरकार ने महिलाओं के खाते में अच्छी खासी राशि ट्रांसफर की। इन सबसे ज्यादा मध्यमवर्गीय लोग परेशान हैं। उनका मानना है कि हम टैक्स चुका रहे हैं और हर तरह की सुविधा बीपीएल कार्डधारकों को दी जा रही है। मध्य प्रदेश में जैसे-जैसे चुनाव का वक्त नजदीक आएगा, हितग्राहियों के खातों में विभिन्न योजनाओं में और ज्यादा राशि ट्रांसफर की जाएगी।

UP-Election-2022

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की केमिस्ट्री

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के घोषणा पत्र ज‍िसे बीजेपी संकल्प पत्र कहती है. इस बार बीजेपी का संकल्प पत्र 16 पन्नों का है, यह 2017 में 32 पन्नों का था. सिर्फ पन्नों में ही नहीं बल्कि वादों में भी कमी हुई है. 2017 में करीब 200 से ज्यादा वादे किए गए थे. इस बार करीब 130 वादे किए गए हैं. बीजेपी के घोषणा पत्र में इस बार हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की झलक दिखी। कुछ खास वादे…

–  बीजेपी लव जिहाद के मुद्दे पर आक्रामक रही है. इस बार बीजेपी ने वादा किया है कि सरकार बनने पर लव जिहाद करने वाले को 10 साल की कैद और 1 लाख रुपये के जुर्माने की सजा का प्रावधान किया जाएगा।

– बीजेपी के घोषणापत्र में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का वादा हमेशा रहता था. पिछली बार भी था. लेकिन अब चूंकि ये वादा पूरा हो गया है, इसलिए पार्टी ने इस बार अयोध्या और भगवान राम से जुड़ा नया वादा किया है। बीजेपी ने अयोध्या में रामायण विश्वविद्यालय बनाने का वादा किया है।

– बुजुर्ग संत, पुजारियों और पुरोहितों से जुड़ी कल्याण की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एक विशेष बोर्ड बनाया जाएगा. मां सकुंभरी देवी के नाम का विश्वविद्यालय बनेगा. वाराणसी, मिर्जापुर और चित्रकूट में रोप-वे बनेगा. इसके अलावा मथुरा में सूरदास ब्रजभाषा अकादमी की स्थापना होगी साथ ही गोस्वामी तुलसीदास अवधी अकादमी भी स्थापित की जाएगी।

– बीजेपी अक्सर दूसरी पार्टियों पर महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाती रही है. इस बार बीजेपी ने घोषणा पत्र में वादा किया है कि अगर सरकार बनी तो सभी महापुरुषों और स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियों को पढ़ाई में शामिल किया जाएगा।

राज्य और जनता के बारे में भी सोचें पार्टियां

देखा जाए तो किसी भी राज्य के चुनावों में सबसे अहम किरदार उस राज्य की जनता का होता है। राज्य की जनता ही अपने राजनेता को वोट के माध्यम से चुनकर सत्ता पर काबिज करती है। लेकिन राजनीतिक पार्टियों का यह प्राथमिक कर्तव्य होता है कि वो जनता के हितों को ध्यान में रखकर कार्य करें, योजनाएं बनाएं और उन पर क्रियान्वयन करें। इससे न सिर्फ राज्य का बल्कि वहां रहने वाली जनता का भला तो होगा ही, साथ ही राजनेताओं के प्रति जनता का विश्वास और मजबूत होगा। क्योंकि अभी तक पूरे राज्य में आलम यह है कि राजनेता वोट तो मांग रहे हैं लेकिन उनकी इस मांग के पीछे जनता से जुड़े लाभ और उनके हित तो दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। इसलिए बेहतर है राजनेता राज्य और राज्य की जनता के बारे में जरूर सोचें।

हिजाब विवाद: समानता की पाठशाला में असमानता का हिजाब क्यों?

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कर्नाटक के उडुपी से स्कूलों में हिजाब पहनने के सवाल पर शुरू हुआ विवाद सियासी रंग लेता जा रहा है। कई राज्यों में स्कूल और कॉलेजों में ड्रेस कोड की बात भी उठ रही है। हिजाब के विरोध और हिजाब के समर्थन में राष्ट्र स्तर पर बहस चालू हो गई है। वैसे देखा जाए तो खानपान और पहनावा हर व्यक्ति नितांत व्यक्तिगत मामला है। किसी भी इनसान sampadkiy 1को क्या पहनना है, क्या खाना यह उसकी खुद की पसंद, नापसंद पर निर्भर है, इसमें बाहरी लोग हस्तक्षेप नहीं कर सकते, लेकिन जब बात स्कूल और कॉलेजों की आती है, तो एकरूपता, एकसमानता से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। आखिर स्कूल-कॉलेजों में यूनिफॉर्म की संकल्पना क्यों लाई गई? इसकी क्या वजह थी। बच्चे अपनी मर्जी से कपड़े, जूते पहनकर स्कूल जा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

स्कूल-कॉलेजों में एकरूपता से कतई समझौता नहीं किया जा सकता

प्राचीनकाल में गुरुकुलों में राजा का बच्चा हो या रंक का, सभी को एकसमान पहनावा अनिवार्य था। आखिर शिक्षा संस्थानों में अलग-अलग पहनावे को स्वीकार कर जाति, धर्म, आस्था के प्रतीक चिन्ह को अनुमति कैसे दी जा सकती है? हमारा देश समानता की बुनियाद पर खड़ा है। स्कूल-कॉलेजों में अगर बच्चों को मर्जी से कपड़े पहनने की  छूट दी गई, तो शिक्षा के इन संस्थानों में जाति, धर्म, अमीरी, गरीबी के बीच गहरी खाई बन जाएगी। अमीरों के बच्चे महंगे कपड़े, महंगे जूते, महंगी घडिय़ां पहनकर स्कूल जाएंगे, जबकि गरीबों के बच्चे ऐसा नहीं कर पाएंगे। इससे उनके मन में एक-दूसरे के प्रति असमानता का भाव पैदा होगा। गरीबों के बच्चों में निराशा का भाव आएगा। बच्चों के मन में समानता का भाव बना रहे, इसलिए स्कूलों में यूनिफॉर्म लागू की गई। अमीर का बच्चा हो या गरीब का, सभी एक समान यूनिफॉर्म पहनकर स्कूल जाएं। उनमें किसी तरह का भेदभाव न रहे। यही वजह है कि स्कूल और कॉलेज के लिए यूनिफॉर्म का निर्धारण हमेशा से होता रहा है। आज भी कॉन्वेंट स्कूल हों या बड़े-बड़े प्रायवेट स्कूल, उनमें यूनिफॉर्म लागू है। उसे सभी पंथ, मजहब और आस्थाओं के लोग स्वीकार भी करते हैं। फिर सरकारी स्कूलों में ड्रेस कोड के खिलाफ बवाल क्यों? स्कूल सबके लिए समान हैं। ऐसे में एक धर्म विशेष के लोगों को मनमर्जी करने की छूट नहीं दी जा सकती। निजी स्तर पर हिजाब पहनने पर न तो कोई सरकार रोक लगा सकती है और न लगाना चाहिए।

लड़कियों को पीछे रखने का षड्यंत्र तो नहीं

आधुनिक समय में हर चीज़ लगातार अपडेट हो रही है। ऐसे में समय के साथ मान्यताओं, प्रथाओं को भी अद्यतन किया जाना जरूरी है। महिलाएं बराबरी के साथ पढ़ाई, लिखाई और तरक्की करना चाहती हैं। धार्मिक विश्वास के नाम पर हिजाब की संस्कृति लड़कियों को पीछे रखने का षड्यंत्र तो नहीं है। ऐसा लगता है यह विवाद अनावश्यक है और इसे जानबूझकर बढ़ाया जा रहा है। आज लड़कियों में आगे बढऩे की हिम्मत और हौसला बढ़ाने की जरूरत है, न कि ऐसे सवाल उठाकर उन्हें पीछे धकेलने की जरूरत है। दुनिया में पढ़ी लिखी मुस्लिम महिलाएं बुर्के और हिजाब के खिलाफ़ मुहिम चला रही हैं. इस मुहिम को बड़े पमाने पर मुस्लिम पुरुषों का भी समर्थन मिल रहा है। भारतीय मुस्लिम समाज में पर्दे को लकर काफी खुलापन आया है। मुस्लिम लड़किया बुर्का या हिजाब पहने या नहीं ये उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए. ये उनका संवैधानिक अधिकार भी है। स्कूलों में ड्रेस कोड के नाम पर बुर्के या हिजाब के खिलाफ प्रोपगंडा चलाना उचित नहीं है।

कुरान में हिजाब का उल्लेख नहीं

कुरान में हिजाब का उल्लेख नहीं बल्कि खिमार का उल्लेख किया गया है। हिजाब और खिमार दोनों तरीकों से महिलाओं अपना शरीर ढक सकतीं है। हालांकि इन दोनों तरीकों से शरीर को ढकने के तरीके में थोड़ा सा अंतर है। सूरह अल-अहजाब की आयत 59 में कहा गया है-ऐ पैगम्बर, अपनी पत्नियों, बेटियों और ईमान वालों की महिलाओं से कहा कि वे अपने बाहरी वस्त्रों को अपने ऊपर ले लें। यह ज्यादा उपयुक्त है। न उन्हें पहचाना जाएगा और न उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाएगा। अल्लाह सदैव क्षमाशील और दयावान है।

बिकनी पर विवाद में फंस गईं प्रियंका

कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी मंझे हुए राजनेता की तरह सधे हुए बयान देती हैं, जिससे वे कभी विवादों में नहीं फंसती, लेकिन हिजाब वाले मामले में वे विवादों में घिर गई। हिजाब के समर्थन में उतरीं प्रियंका गांधी ने ट्वीट कर कहा कि चाहे वह बिकिनी हो, घूंघट हो, जींस की जोड़ी हो या हिजाब; यह तय करना एक महिला का अधिकार है कि वह क्या पहनना चाहती है। यह अधिकार भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत है। महिलाओं को प्रताडि़त करना बंद करो। इस ट्वीट के बाद वे जमकर ट्रोल हुर्ईं। एक यूजर ने लिखा कि प्रियंका गांधीजी, कोई एक लड़की बताओ, जो बिकिनी, घूंघट या सिर्फ अकेली जींस में स्कूल जाती है! कृपया तथ्यों पर बात करें। मुद्दा स्कूल यूनिफॉर्म का है और कुछ नहीं।

पत्रकारों को बिकाऊ कहने से पहले समाज अपना गिरेबान टटोले तो बेहतर होगा 

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पत्रकार वो है जो समाज मे देखता है , अनुभव करता है अपने ज्ञान के आधार पर उसका विश्लेषण करता है , फिर उसे सार्वजनिक मंच पर लाता है इस प्रकिया में जन उपयोगी मुद्दो को उभारने में उसकी सक्रीय भूमिका होनी चाहिये । गण और तंत्र के बीच सवांद की कड़ी है पत्रकार । लेकिन इस प्रक्रिया मे उसे रोचकता लानी पड़ती है और ये रोचकता वैध तरीके से नही आती है क्योकि इसके लिये पर्याप्त रचनात्मकता चाहिये जो अधिक मेहनत और कुशल लेखको का काम है, लेकिन कुकरमुत्तो की तरह उग आई 'पत्रकारिता की डिग्रियो की दुकाने " किसी को भी डिग्री तो दे दे्ती है लेकिन उसे पत्रकार नही बनाती ' ये डिग्रीधारी पढा लिखा आदमी समाज और व्यवस्था की समझ भी विकसित नही कर पाता ना उसे लेखन और साहित्य की समझ होती है।

समाज में अब हर काम के लिये शार्टकट तरीके ' अपनाने का चलन है, फिर चाहे वो अनुचित ही क्यो ना हो। अब मौलिक लेखन /साहित्य आदि के प्रति जनरुझान न के बराबर होता है फिर  खब मे रोचकता लाने के लिये आसान विकल्प अपनाया जाता है , आटे मे नमक के तौर पर हास्य/ग्लैमर /सनसनी का प्रयोग किया जाता है , धीरे धीरे ये 'नमक' का स्वाद ' नमकीन' होकर लोगो को इतना भाता है कि मूल खबर लापता हो जाती है , फिर खबर के ये  ' सह उत्पाद' ही ' मूल उत्पाद' की शक्ल लेने लगते है , और वर्तमान में यही हो रहा है।

लोगो को 'सनसनी' पसन्द है तो पत्रकार उसे ही परोसने दौड़ता है क्योकि अगर पत्रकार दिन भर ये दिखाता रहे ' देखो ये हो रहा है" यहां गलत हुआ है , अपराध हुआ है सरकार को ऐसा करना चाहिये " किसान गरीब /मजदूर / आदिवासी पर जुल्म , हिंसा /अपराध/ बलात्कार फलां फला तो आप उठकर टीवी बन्द कर दोगे और अखबार फेंक दोगे क्योकि आपको दर्द हुआ , बैचेनी हुई समाज में ये क्या हो रहा है , आप झुझलाहट से भर जाते है , फिर आपको 'मजा' चाहिये , खबर में भी 'आनन्द चाहिये ' आप खबर ग्लैमर/हास्य/सनसनी वाले 'सह उत्पाद' को ही 'मूल उत्पाद' बना देते हो ।

इन्हे ही बेचकर पत्रकार और मीडिया हाउस इन्हे ही बेचकर पैसे कमाने लग जाते है, इस प्रक्रिया मे लोग भी खुश और मीडिया भी खुश। क्योकि खबर अब समाज में विचार करने का प्रश्न नही 'रोचकता ' और' मनोरजंन की विषय वस्तु हो गई है।
एक बड़ा कारण प्रचार माध्यमों को 'खबरे दिखाने के अतिरिक्त' विभिन्न कम्पनियो और मनोरजंन के 'उत्पाद' का भी विज्ञापन करना होता है।
ये 'आनन्ददायक' विज्ञापन ' खबरो की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित करते है।

पत्रकार क्यो अपने पेशे भटक जाता है:…

" ये दुनिया बड़ी जालिम है सत्य का तलबगार नही कोई " शुरुआत में सब सत्य लिखते है कोशिश करते है समाज के अप्रिय सत्य को उजागर करने की परन्तु जड़ समाज और संवेदनहीन तंत्र का तीव्र प्रतिकार होता है। आय के जरिये सीमित हो जाते है , ऐसे में टिके रहना अक्सर मुश्किल होता है । फिर ' मीडिया मुगलो' की गुलामी और 'मनसबदारी" का लालच।
कुल मिलाकर हम ये कह सकते है कि ' पत्रकारों को बिकाऊ कहने से पहले समाज अपना गिरेबान टटोले तो बेहतर होगा कि क्यो पत्रकारिता के मूल्य समझने वाला ईमानदार पत्रकार दर दर मारा फिरता है "

क्या योगी आदित्यनाथ दोबारा संभालेंगे सत्ता की बागडोर?

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उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में पहले चरण के लिए वोटिंग का वक्त नजदीक आ गया है। तमाम राजनीतिक दलों ने चुनाव में जीत हासिल करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। चुनाव में वोट की खातिर जाति, धर्म, किसान, महंगाई, बेरोजगारी…जैसे मुद्दे उछाले जा रहे हैं। भाजपा भी दोबारा सत्ता में आने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है। भाजपा दोबारा सत्ता में आएगी या नहीं, यह तो आगामी 10 मार्च को पता चलेगा, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यदि भाजपा सत्ता में वापसी करती है, तो क्या योगी आदित्यनाथ दोबारा मुख्यमंत्री बनेंगे? राजनीति के जानकार कहते हैं, दिल्ली की सत्ता sampadkiy 1का रास्ता लखनऊ से होकर गुजरता है और लखनऊ को जीते बिना दिल्ली को जीतना मुमकिन नहीं है। ऐसे में समाजवादी पार्टी हो, बसपा हो या कांग्रेस हो, इनका सत्ता में आना तभी संभव है, जब ये चुनाव में एकतरफा जीत हासिल करें। यदि भाजपा और अन्य किसी विपक्षी दल के बीच हार-जीत का अंतर कम रहता है, तो भाजपा आसानी से सत्ता नहीं छोड़ेगी। वह वोट काउंटिंग में खेल करके या अन्य दलों में तोड़-फोड़ करके हर हाल में सत्ता पर काबिज करने की कोशिश करेगी, क्योंकि उसे सवा दो साल बाद दिल्ली में भी वापसी करना है।

लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के लिए सेमी-फायनल

भाजपा यह भलीभांति जानती है कि उत्तरप्रदेश हाथ से जाता है, तो आने वाले समय में गुजरात, मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों में जहां विधानसभा चुनाव होना है, उसके लिए मुश्किल खड़ी होगी और इसका सीधा असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। कुल मिलाकर उत्तरप्रदेश चुनाव आगामी लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा के लिए सेमी-फायनल कह तरह है। जिस तरह सपा मुखिया अखिलेश यादव ने चुनावी बिसात बिछाई है, उससे पार पाना भाजपा के लिए आसान नहीं है। यदि भाजपा सत्ता में आती है, तो उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के बाद भाजपा पहली पार्टी होगी, जो पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी करेगी।

योगी आदित्यनाथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली पसंद

बहस का मुद्दा यह भी है कि क्या सत्ता में आने पर भाजपा योगी आदित्यनाथ के हाथ में फिर से उत्तरप्रदेश की कमान सौंपेगी या फिर उन्हें गोरखपुर में बैठाकर लोकसभा चुनाव के मद्देनजर किसी ओबीसी नेता को राज्य की बागडोर सौंपेगी। योगी आदित्यनाथ पर आरोप लगते रहे हैं कि वे ठाकुरों की राजनीति करते हैं, इसलिए उनसे ब्राम्हण, ओबीसी और दलित वर्ग के लोग नाराज हैं। देश में योगी आदित्यनाथ हिंदुत्व का बड़ा चेहरा बनकर उभरे हैं, मुख्यमंत्री रहते हुए वे जिस बेबाकी से हिंदुओं के समर्थन में और मुस्लिम विरोधी बयान देते रहे हैं, इससे उनकी छवि कट््टर हिंदू नेता की बन गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अन्य कोई भाजपा नेता मुख्यमंत्री रहते योगी की तरह दमदारी से हिंदुत्व का खुला समर्थन नहीं कर पाया। यही वजह है कि योगी आदित्यनाथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली पसंद बन गए हैं।

प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार

यदि योगी दोबारा मुख्यमंत्री बनते हैं, तो प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार हो जाएंगे। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह नहीं चाहेंगे कि योगी आदित्यनाथ को दूसरी बार सत्ता की कमान सौंपी जाए, लेकिन योगी भी कम नहीं हैं। पिछली बार भी भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं था, लेकिन योगी की जिद और आरएसएस के दबाव में आकर आनन-फानन में योगी को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया गया था। गौर करने वाली बात यह है कि योगी आदित्यनाथ ने भी मुख्यमंत्री रहते तमाम फैसले अपनी मर्जी से और दमदारी से लिए। कभी भी ऐसा नहीं लगा कि वे प्रधानमंत्री मोदी के दबाव में हों या उनके आगे झुके हों। ऐसे में यदि भाजपा चुनाव में बहुमत हासिल करती है, तो योगी को किनारे करना आसान नहीं होगा। और यदि भाजपा ऐसा करती है, तो पार्टी के अंदर 'महाभारत' छिड़ सकती है। वर्ष 2017 में जब योगी पहली बार सीएम बने थे, तब वे सिर्फ सांसद थे। इसके बाद भी बड़ी संख्या में उन्हें भाजपा विधायकों का समर्थन था। चूंकि अब वे पांच साल मुख्यमंत्री रहे हैं, इसलिए इस बात को सहज ही समझा जा सकता है कि बहुत से विधायक ऐसे होंगे, जो आंख मूंदकर योगी का समर्थन करेंगे। भाजपा के सत्ता में आने पर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं, यह आने वाला वक्त बताएगा।

नवजोत सिंह सिद्धू के अरमानों पर फिरा पानी, अब क्या गुल खिलाएंगे?

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पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू को जिस बात का डर था, वही हुआ। पार्टी ने सिद्धू के अरमानों पर पानी फेर दिया। वे पार्टी नेतृत्व पर लगातार दबाव बना रहे थे कि वह पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर दे। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने रविवार को सिद्धू की इच्छा पूरी कर दी। उन्होंने चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए सीएम चेहरा घोषित कर सिद्धू को जोर का झटका दे दिया। सिद्धू लगातार सीएम चेहरे पर दावा ठोक रहे थे। हाल में अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटवाने में सिद्धू की महत्वपूर्ण भूमिका थी। तब सिद्धू को उम्मीद थी कि इसके बदले में पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री पद की सौगात देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अमरिंदर सिंह sampadkiy 1के इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री के पद पर दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी की ताजपोशी कर दी गई। सिद्धू ने खुले तौर पर तो इसका विरोध नहीं किया, लेकिन उस वक्त भी उनके क्रियाकलापों को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता था कि वे पार्टी के इस फैसले से खुश नहीं हैं। उन्होंने कई मौकों पर सार्वजनिक रूप से चन्नी को कमतर बताने की कोशिश की, लेकिन चन्नी शांत रहे। सिद्धू चन्नी को अनाड़ी समझ रहे थे, लेकिन वे सियासत के मंझे हुए खिलाड़ी निकले। मुख्यमंत्री के छोटे से कार्यकाल में उनके द्वारा जनता के हित में किए गए फैसलों से पंजाब में उनकी लोकप्रियता बढ़ गई। वे कहीं भी काफिला रोककर जनता के बीच पहुंच जाते, जिससे उनकी इमेज आम आदमी के मुख्यमंत्री की बन गई। पार्टी हाईकमान को भी चन्नी की सियासत का यह अंदाज खूब रास आया। चन्नी की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर घबराए बड़बोले सिद्धू ने पार्टी हाईकमान को इस्तीफा भेज दिया, लेकिन पार्टी हाईकमान ने उन्हें मना लिया। तब सिद्धू ने दिल पर पत्थर रख लिया। उन्हें आस थी कि विधानसभा चुनाव के बाद तो पार्टी उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाएगी, लेकिन जब पार्टी ने सीएम चेहरा घोषित नहीं किया, तो सिद्धू की बेचैनी बढऩे लगी। सिद्धू अति महत्वाकांक्षी हैं और मुख्यमंत्री बनने का सपना लेकर ही भाजपा जैसी बड़ी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आए थे, लेकिन पार्टी ने चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम चेहरा घोषित कर सिद्धू के अरमानों पर पानी फेर दिया है। सिद्धू का बड़बोलापन ही उनकी कमजोरी बन गया है, जबकि चन्नी सधा हुए बोलते हैं। कांगे्रस सिद्धू की अति महत्वाकांक्षा से परिचित है और यह भी जानती है कि भविष्य में वे कभी भी पार्टी को झटका दे सकते हैं। कांग्रेस को चन्नी को सीएम चेहरा घोषित करने का सबसे बड़ा फायदा दलित वोट के रूप में मिलने की संभावना है। पंजाब में दलितों के लिए 34 सीटें आरक्षित हैं। इसके अलावा कई डेरे भी चन्नी का समर्थन कर रहे हैं। यही वजह है कि कांग्रेस ने सिद्धू के स्थान पर चन्नी पर दांव लगाया है। हालांकि कांग्रेस पार्टी अच्छे से जानती है कि सिद्धू चुप रहने वाले नहीं हैं। चूंकि अभी वे मंझधार में हैं, इसलिए भले शांत रहें, लेकिन विधानसभा चुनाव में यदि कांग्रेस को बहुमत मिलता है, तो सिद्धू चन्नी के सीएम बनने की राह में बाधा जरूर बनेंगे। अब सबकी नजर इस बात पर है कि सिद्धू इसके बाद क्या कहते हैं और कौन सा कदम उठाते हैं।

कर्मचारियों को तारीख नहीं पदोन्नति चाहिए सरकार

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मध्य प्रदेश में पिछले साढ़े पांच साल से सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों के प्रमोशन पर रोक लगी है और रोक की वजह भी शिवराज सरकार ही है। जबलपुर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ न सरकार सुप्रीम कोर्ट जाती और न ही कर्मचारियों का प्रमोशन रुकता। पदोन्नति पर लगी रोक से कर्मचारियों की नारागजी को देखते हुए सरकार ने बीच का रास्ता निकालने की तैयारी की और तकरीबन साल भर पहले उन्हें पात्रतानुसार पदोन्नति देने का फैसला कर लिया। कर्मचारियों को पात्रतानुसार पदोन्नति देने की रणनीति तैयार करने गत सितंबर में मंत्री समूह का गठन किया गया, लेकिन मंत्री समूह भी sampadkiy 1इस बारे में कोई फैसला नहीं कर पा रहा है। गठन के बाद पांच महीने में मंत्री समूह एक दर्जन बैठकें कर चुका है, लेकिन हर बार नतीजा सिफर रहा। इस बारे में फैसला अगली बैठक में करने की बात कहकर मंत्री समूह बैठक की अगली तारीख तय कर देता है। इस सिलसिले में मंत्री समूह 8 फरवरी को अगली बैठक करेगा। मंत्री समूह में गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा, जल संसाधन मंत्री तुलसीराम सिलावट, वन मंत्री विजय शाह, सहकारिता मंत्री अरविंद भदौरिया और स्कूल शिक्षा राज्य मंत्री इंदर सिंह परमार शामिल हैं।

साढ़े पांच साल से पदोन्नति पर लगी है रोक

साढ़े पांच साल से पदोन्नति पर रोक लगी होने से प्रदेश भर के कर्मचारियों में निराशा का माहौल तो है ही, उनमें सरकार के प्रति नाराजगी भी है। पदोन्नति में रोक लगी होने से हर महीने कर्मचारी बगैर प्रमोशन के सेवानिवृत्त हो रहे हैं। सरकार की ओर से बनाए गए मंत्री समूह से कर्मचारियों को बड़ी उम्मीद थी। जब-जब मंत्री समूह की बैठकें होती हैं, तो कर्मचारियों को आस बंधती है कि पदोन्नति को लेकर कोई निर्णय लिया जाएगा, लेकिन अब मंत्री समूह से भी उनका भरोसा उठता जा रहा है। हालांकि पदोन्नति पर लगी रोक से कर्मचारियों की नाराजगी से सरकार अच्छे से वाकिफ है, लेकिन कर्मचारियों को पात्रतानुसार पदोन्नति कैसे दी जाए, मंत्री समूह इसका कोई फार्मूला तैयार नहीं कर पा रहा है। यही वजह है कि हर बार बैठकें टाल दी जाती है। अब मंत्री समूह अजाक्स और सपाक्स के प्रतिनिधियों से चर्चा करने की बात कह रहा है, जबकि इससे पहले भी मंत्री समूह सपाक्स और अजाक्स के प्रतिनिधियों को दो बैठकों में बुलाकर उनकी राय ले चुका है।  कर्मचारियों को पात्रतानुसार पदोन्नति कब तक मिलेगी, यह सरकार के अलावा कोई नहीं जानता।

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अधिकारी-कर्मचारी पदोन्नति के बिना ही सेवानिवृत्त

दरअसल, मप्र हाईकोर्ट की मुख्य पीठ जबलपुर ने 30 अप्रैल, 2016 को मप्र लोक सेवा (पदोन्नति) अधिनियम-2002 खारिज कर दिया था। इस कानून में अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान है। राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। हाईकोर्ट के फैसले के बाद से प्रदेश में कर्मचारियों की पदोन्नति पर रोक लगी है। तब से अब तक 55 हजार से ज्यादा अधिकारी-कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इनमें कई ऐसे अधिकारी-कर्मचारी हैं, जो पदोन्नति के बिना ही सेवानिवृत्त हो गए। तभी से कर्मचारी संगठन सरकार से पदोन्नति देने की मांग कर रहे हैं।

सरकार ने अधिकारी-कर्मचारियों को उच्च पद का प्रभार देकर पदनाम दिए जाने को लेकर दिसंबर, 2020 में उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। कमेटी ने कर्मचारियों को उच्च पद का प्रभार देने के संबंध में जनवरी, 2021 में शासन को अनुशंसा संबंधी रिपोर्ट सौंप दी थी। इसके बाद अब तक सरकार कर्मचारियों को उच्च पदों का प्रभार सौंपे जाने के संबंध में फैसला नहीं कर पाई है।

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नाकाम हो रही शिवराज सरकार, चुनाव में जाति-धर्म बनेगा हथियार?

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इस समय पूरे देश में उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव की चर्चा है, राजनीति में रुचि रखने वालों की सबसे ज्यादा रुचि उत्तरप्रदेश चुनाव में है। भाजपा अपनी रणनीति के तहत उप्र चुनाव को 'हिंदू-मुस्लिम' करने की  पुरजोर कोशिश कर रही है। वह इसमें कितनी सफल हो पाएगी, यह आने वाले वक्त में पता चलेगा। मध्यप्रदेश की बात करें, तो यहां सामान्यत: चुनाव जाति, धर्म का फैक्टर काम नहीं करता, लेकिन लगता है कि मप्र के आगामी विधानसभा चुनाव में धर्म sampadkiy 1को मुद्दा बना सकती है। सरकार के कुछ फैसलों और भाजपा नेताओं के बयानों से इस बात को भली-भांति समझा जा सकता है। कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त कर 'बैक डोर' के जरिए सत्ता में आई भाजपा का यह कार्यकाल अब तक नीरस रहा है। या यूं कहें कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने चौथे कार्यकाल में निष्प्रभावी होते नजर आ रहे हैं। इस कार्यकाल में वे बड़ी-बड़ी बातों के अलावा एक भी ऐसा काम नहीं कर पाए, जिसे वे प्रदेश की जनता के समक्ष उपलब्धि के रूप में पेश कर सकें। मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद उनका आधा समय और आधी ऊर्जा कोरोना से निपटने में लग गई है।

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'स्वर्णिम मध्यप्रदेश' से 'आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश'

सरकार की नाकामी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह अपने सबसे बड़े किसान वोट बैंक को पर्याप्त खाद तक उपलब्ध नहीं करा पाई है। आज भी किसान यूरिया के लिए परेशान हैं। सत्ता में आने के बाद शिवराज 'आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश' बनाने की बातें कर रहे हैं, अफसरों पर दबाव बना रहे हैं, लेकित अब तक इस दिशा में सरकार कोई खास कार्य नहीं कर पाई है। अपने पिछले कार्यकाल में  शिवराज प्रदेश को 'स्वर्णिम मध्यप्रदेश' बनाने की जिद ठाने हुए थे, लेकिन जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया था और उनका प्रदेश को स्वर्णिम बनाने का सपना पूरा नहीं हो पाया। अपने इसी सपने को उन्होंने चौथे कार्यकाल में आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश का नाम दिया है।

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बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और रिश्वत

बेरोजगारी की वजह से युवा सरकार से बेहद खफा हैं। प्रदेश में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 35 लाख हो गई है। कोरोनाकाल में देश और प्रदेश के व्यापारियों की क्या हालत है, यह सभी जानते हैं। मुख्यमंत्री आए दिन भ्रष्ट अधिकारियों को चेतावनी दे रहे हैं, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेंगे। भ्रष्टाचार करने वालों को मैं नौकरी करने लायक नहीं छोड़ूगा। इसके बाद भी आए दिन लोकायुक्त संगठन और आर्थिक अपराध ब्यूरो की छापे की कार्रवाई में अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेते पकड़े जा रहे हैं और उनकी काली कमाई करोड़ों में है।

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क्‍या करें…. क्‍या न करें….

चूंकि इस कार्यकाल में  मुख्यमंत्री की चमक फीकी पड़ रही है, इसलिए भाजपा अगले चुनाव को जाति और धर्म की ओर मोडऩे की तैयारी में जुट गई है। इसी कड़ी में उत्तरप्रदेश की तर्ज पर मध्यप्रदेश में भी उन शहरों, स्थानों के नाम बदले जा रहे हैं, जो मुस्लिमों के नाम पर हैं। भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन और मिंटो हॉल का नाम बदलने के बाद अब होशंगाबाद और बाबई का नाम बदल दिया गया है। आने वाले दिनों में कुछ और शहरों के नाम बदले जाने के आसार हैं। उत्तरप्रदेश के काशी विश्वनाथ कॉरीडोर की तर्ज पर उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर को विकसित करने की तैयारी मप्र सरकार ने शुरू कर दी है। ऐसे ही मुख्यमंत्री से लेकर अन्य भाजपा नेता महात्मा गांधी से लेकर अन्य पुराने कांग्रेस नेताओं पर निशाना बनाया जा रहा है।

गणतंत्र दिवस पर दिए गए संदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि हमें कहते हुए कभी-कभी तकलीफ होती है कि स्वतंत्रता के बाद हमें आजादी का इतिहास तक गलत पढ़ाया गया। देश को बताया गया कि हिंदुस्तान को आजादी महात्मा गांधी, नेहरूजी, इंदिराजी ने दिलाई। आजादी की क्रांतिकारी धारा को भुला दिया गया, एक नहीं कई अमर शहीद क्रांतिकारियों की स्मृति को संजोकर नहीं रखा गया। ऐसे ही सरकार आगामी चुनाव में आदिवासी, दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग को साधने के लिए अभी से तैयारियां कर रही है। कुल मिलाकर आगामी विधानसभा चुनाव में सरकार अपनी नाकामियां छुपाने के लिए जाति-धर्म को हथियार बनाकर मैदान में उतरेगी।

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दो साल से दस लाख कर्मचारियों को भरमा रही है शिवराज सरकार

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मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार पिछले दो साल से प्रदेश के 10 लाख कर्मचारियों को भरमा रही है। कर्मचारियों की समस्याओं के निराकरण के लिए कमलनाथ सरकार के समय बनाया गया कर्मचारी आयोग दो साल पहले भंग हो चुका है। आयोग में न अध्यक्ष है और न ही सदस्य हैं। इसके बाद भी सरकार आयोग का कार्यकाल बढ़ाती जा रही है। बिना sampadkiy 1अध्यक्ष और सदस्यों वाला आयोग कर्मचारियों की कितना भला कर पाएगा, यह तो सरकार ही जाने। कर्मचारियों को केंद्र के समान महंगाई भत्ता मिलने, साढ़े पांच साल से प्रमोशन पर लगी रोक हटने, संविदा कर्मचारियों को नियमितीकरण का बेसब्री से इंतजार है।

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कमलनाथ सरकार ने किया था कर्मचारी आयोग का गठन

दरअसल, कमलनाथ सरकार ने अपने वचन पत्र में किया गया वादा निभाते हुए 12 दिसंबर, 2019 को कर्मचारी आयोग का गठन किया था। सेवानिवृत्त आईएएस अजय नाथ को आयोग का चैयरमैन और वित्त विभाग के सेवानिवृत्त उप सचिव मिलिंद वाईकर को आयोग का सचिव बनाया गया था। इसके अलावा कर्मचारी नेता वीरेंद्र खोंगल, सेवािनवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश योगेश कुमार सोनगरिया, राच्य योजना आयोग के तत्कालीन सलाहकार अखिलेश अग्रवाल, जीएडी और वित्त विभाग के सचिव को सदस्य बनाया गया था। आयोग का कार्यकाल एक वर्ष रखा गया था। आयोग के दायरे में राज्य सरकार के अधिकारी-कर्मचारियों, निगम-मंडलों, अर्ध सरकारी संस्थाओं के मुलाजिमों के साथ संविदा कर्मचारी, अंशकालिक और पूर्णकालिक वेतन पाने वाले करीब 10 लाख कर्मचारियों को रखा गया था। आयोग के गठन का मकसद कर्मचारियों की वेतन विसंगतियों समेत अन्य समस्याओं का अध्ययन कर आवश्यक सुझाव सरकार को देना था। आयोग ने गठन के बाद विभिन्न मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त कर्मचारी संगठनों के पदाधिकारियों के साथ बैठकें कर उनकी समस्याएं सुनकर प्रतिवेदन तैयार किया था। यह सिफारिशें राज्य शासन को सौंपने से पूर्व ही आयोग का कार्यकाल पूरा हो गया और सिफारिशें ठंडे बस्ते में चली गईं। सरकार ने पहली बार दिसंबर, 2020 में आयोग का कार्यकाल एक साल बढ़ाने के संबंध में आदेश जारी किए, लेकिन आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों का कार्यकाल 11 दिसंबर, 2020 तक ही रखा गया और उस समय कहा गया था कि आयोग के पुनर्गठन और अध्यक्ष व सदस्यों के नए मनोनयन की कार्रवाई अलग से की जाएगी। साल भर से ज्यादा बीत जाने के बाद भी सरकार आयोग का पुनर्गठन नहीं कर पाई, जबकि हाल में सरकार ने फिर से आदेश जारी कर आयोग का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया है। अब आयोग का कार्यकाल 11 दिसंबर, 2022 को पूरा होगा।

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कर्मचारियों को भ्रम में रखे हुए है सरकार

कर्मचारियों का कहना है कि सरकार कर्मचारी आयोग का कार्यकाल बढ़ाकर कर्मचारियों को भ्रम में रखे हुए हैं, क्योंकि बिना अध्यक्ष और सदस्यों के कर्मचारी आयोग औचित्यहीन है। सरकार को आयोग का तत्काल पुनर्गठन कर आयोग की ओर से तैयार किए गए प्रतिवेदन पर कार्रवाई करना चाहिए। कर्मचारी आयोग के पूर्व सदस्य  वीरेंद्र खोगल का कहना है कि आयोग ने करीब 80 मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त कर्मचारियों की समस्याएं सुनकर प्रतिवेदन तैयार किया था। कर्मचारियों की समस्याओं के निराकरण संबंधी सिफारिशें सरकार को सौंपने से पहले ही आयोग का कार्यकाल समाप्त हो गया। राज्य कर्मचारी कल्याण समिति के पूर्व सदस्य शिवपाल सिंह का कहना है कि विभिन्न विभाग कर्मचारियों की समस्याओं संबंधी रिपोर्ट कर्मचारी आयोग को भेज चुके हैं, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। आयोग का पुनर्गठन किए बगैर उसका कार्यकाल बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है। सरकार आयोग का पुनर्गठन जल्द करे, ताकि कर्मचारियों की समस्याओं का निराकरण हो सके।

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