
Jairam Shukla Ke Facebook Wall Se
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दो मसले मुझे हमेशा बहुत परेशान करते हैं। एक डॉक्टरों की पर्ची और दूसरी बड़ी अदालतों के फैसलों की इबारत। मैं अंग्रेजी माध्यम से विज्ञान का स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधिधारी हूं जब मैं असहज और परेशान हो जाता हूं तो उन लोगों की क्या कहिए जिन्हें पढ़ाई के समय एबीसीडी सुनते ही बुखार आ जाता था।
◆ये फलां डॉक्टर का पर्चा है,इसकी दवाएं ढिकां मेडिकल पर मिलेंगी
कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो डॉक्टर लोग अपनी पर्ची में न जाने किस कूटलिपि से अंग्रेजी में दवाइयों के नाम लिखते हैं इस रहस्य को सिर्फ वो मेडिकल की दुकानवाला जानता है जिसके यहां से दवाई खरीदने की सिफारिश की जाती है। एक बार मैंने अपनी सहूलियत के हिसाब से मेडिकल स्टोर बदल दिया। दुकानदार ईमानदार निकला। औने-पौने कोई दवा थमाने की बजाय बता दिया कि ये फलाँ डाक्टर की पर्ची है इसमें लिखी दवाएं ढिकां मेडिकल स्टोर में मिलेंगी। वैसे ये दुकानवाला मुझे कोई भी दवा थमा सकता था, पर्ची में यही लिखी हैं बता कर। मैं उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि मैं मेडिकली निरक्षर हूं।
◆आम मरीज जीते जी जान नहीं पाता, उसका ड्रग ट्रायल हो रहा है या इलाज
फलां डॉक्टर, ढिकां मेडिकल स्टोर या लैब में ही क्यों भेजता है ये रहस्य अब रहस्य नहीं रहा। दो साल पहले इंदौर में ड्रग ट्रायल काण्ड के बाद यह अच्छे से उजागर हो गया। दवाइयां बनाने वाली कंपनियां ये सब प्रपंच रचती हैं। आम भारतीय मरीज अपने जीते जी जान ही नहीं पाता कि उसका ड्रग ट्रायल चल रहा होता है कि इलाज। बहरहाल मैं डॉक्टर्स की उस गूढ़ मेडिकल पर्ची के बारे में बात कर रहा था। मरीजों की लंबी कतार और कैश कलेक्शन पर ज्यादा नजर रखने वाला डॉक्टर मरीज को आनन-फानन बता जाता है कि इसे खाना है, इसे लगाना है। ये तीन बार के लिए,ये दोबार के लिए, इसे तब खाना जब तकलीफ हद से गुजर जाए।
◆एक तिहाई मरीज धनाभाव में बिना जांच,दवा खरीदे लौट जाते हैं
मरीज और उसका अटेंडेंट दोनों का दिमाग चकरघिन्नी की तरह घूमने लगता है क्योंकि उसके दिमाग में पैथोलॉजी की सत्रह जाँच और दस दवाइयों का लेखा सामने आ रहता है। वह बटुए टटोलने लगता है कि रुपया पुज जाएगा कि नहीं। यकीन मानिए डाक्टर तक पहुंचकर, फीस अदाकर पर्ची बनवाने वालों में से एक तिहाई मरीज धनाभाव में बिना जाँच कराए व दवा खरीदे लौट जाते हैं। उनमें से कुछ कर्ज लेकर दूसरे तीसरे दिन लौटते हैं। शेष यह कहते हुए खुद को भगवान के हवाले कर देते हैं कि एक न एक दिन तो सबै को मरना है..चाहे दवा खाएं या न खाएं।
◆देश की चिकित्सा व्यवस्था अराजक दौर की शिकार है
प्रायः हर गांव या मोहल्ले में ऐसे कई केस मिल जाएंगे जिसमें गलत दवा खाने या लगाने से कोई मर गया या स्थाई विकलांग हो गया। इतने ही केस ऐसे भी होते हैं कि मर्ज कुछ और था लेकिन डॉक्टर ने दवाई किसी दूसरे मर्ज की कर दी। ऐसे मामलों में मरने वालों की संख्या सामान्य बीमारियों से मरने वालों की संख्या से कम नहीं होती। पर न तो इनकी कोई सांख्यिकी बनती और न ही कोई प्रकरण दर्ज होता। अपने देश की चिकित्सा व्यवस्था इसी अराजक दौर की शिकार है।
◆ डॉक्टर पर्चे में लिखने लगे हैं, ये कानूनी कार्रवाई के लिए मान्य नहीं
आजकल तो चिकित्सक अपनी दवा पर्ची में मोटे हर्फों में यह लिखवाने लगे हैं कि..यह पर्ची किसी भी कानूनी कार्रवाई के लिए मान्य नहीं..। कमाल देखिए कि यह साफ सुथरी हिन्दी में लिखा होता है ताकि साक्षर मरीज इसे अच्छे से पढ़ ले कि डॉक्टर साहबान की दवा खाने से यदि तुम्हारी आँख भी फूट गई तो कोई कार्रवाई नहीं कर सकते क्योंकि पर्चे में पहले से ही लिखा। हाँ डाक्टर साहब इस बात के लिए बाध्य नहीं हैं कि वे मर्ज और दवाई का नाम तथा इस्तेमाल करने का तरीका साफ-साफ लिखें ताकि मरीज और उसका अटेंडेंट समझ जाए।
◆अंग्रेजी की ताकत और ग्लैमर तभी तक है जब तक उसे समझ न पाएं
अंग्रेजी की ताकत और उसका ग्लैमर तभी तक है जब तक कि सामने वाला उसे समझ न पाए। जिस दिन ये अँग्रेजी आम लोगों को समझ में आने लगेगी उसी दिन से इसका तिलस्म खत्म। और इसके साथ ही उन बड़े वकीलों और डॉक्टरों का धंधा भी, जिनकी दुकानें सिर्फ और सिर्फ अँग्रेजी के नाम से सजी हैं। क्या मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया को इन स्थितियों से इत्तेफाक नहीं है.? है, पिछले कुछ सालों से दवाओं के नाम हिंदी में भी लिखे जाने लगे हैं। हो सकता है कि देश की अन्य भाषाओं के लिए भी निर्देश हो। जैसे कि केरल में बिकने वाली दवा में अँग्रेजी के साथ मलयाली में भी लिखा जाता हो। लेकिन यह कहाँ किस कोने में लिखा जाता है इसके लिए आपको मैग्नीफाइंग ग्लास की जरूरत पड़ेगी।
◆सेवा क्षेत्र के सबसे संवेदनशील मामले में सबसे ज्यादा बेरहमी क्यों..?
दवाओं के कम्पोजीशन और साइडइफेक्ट्स की नसीहतें छह से चार प्वाइंट्स के अक्षर में लिखी जाती हैं। अब इसे पढ़कर आँखें फोड़िए और नया मर्ज पालिए। जहाँ तक मुझे जानकारी है मेडिकल कौंसिल ने डाक्टरों को यह भी निर्देश दे रखे हैं कि वे दवाओं का नाम साफ-साफ अक्षरों में लिखें व उसके प्रयोग को भी विधिवत उल्लेखित करें। दवाओं के कम्पोजीशन का भी जिक्र करें क्योंकि एक ही दवा को विभिन्न कंपनियां अपने अपने ब्रैंडनेम से बेंचती हैं। दवा की कीमतों में भी बड़ा फर्जीवाड़ा है। हर शहर में दवाओं के अलग-अलग दाम हैं। कहीं- कहीं तो दवा के दामों में सत्तर प्रतिशत तक का अंतर है। कहीं कोई देखने वाला नहीं। कोई चेक एन्ड बैलेंस नहीं। सेवा क्षेत्र के सबसे संवेदनशील मामले में सबसे ज्यादा बेरहमी।
◆सिस्टम को हांकने वालों का ही भरोसा सिस्टम में नहीं ?
पिछले पंद्रह साल से मैंने यह नहीं सुना जाना कि कोई बड़ा जनप्रतिनिधि, हाकिम, अफसर किसी जिला अस्पताल या मेडिकल कालेज में भर्ती होकर अपना इलाज या आपरेशन करवाया हो। जब सिस्टम को हाँकने वालों का ही भरोसा सिस्टम में नहीं तो क्या कहिए। निजी अस्पतालों में तो इलाज भी नीलाम होता है। ऊँचा दाम ऊँची चिकित्सा। जितना दाम उतना इलाज। देश की साक्षरता विश्व की औसत साक्षरता से 10 प्रतिशत कम 75 प्रतिशत है। जो साक्षर हैं उनमें महज 10 प्रतिशत लोगों को ही पढ़ा लिखा समझिए शेष को सिर्फ उतना अक्षर ज्ञान है जो कंपनियों के प्रोडक्ट और सरकार की उपलब्धियों के विज्ञापन की भाषा पढ़ सकें।
जब डॉक्टरों की कूटभाषा ये 10 प्रतिशत पढ़े लोग ही ढंग से नहीं समझ पाते, बाकी लोग तो इस अभिजात्य बिरादरी के लिए ढोर डंगर से ज्यादा नहीं।
◆और अंत में
डॉक्टर शपथ का दसांश भी अमल करें तो विश्व का कल्याण हो जाए। हर डॉक्टर की दवा की पर्ची में ऊपर Rx जैसा कुछ लिखा रहता है। यह डॉक्टरों को अपने पेशे के लिए ली गई हिप्पोक्रेटिक शपथ की याद दिलाता रहता है। हिप्पोक्रेट ग्रीक के महान दार्शनिक हैं जिन्हें आधुनिक चिकित्सा का प्रवर्तक माना जाता है। डॉक्टर इस शपथ का दसांश भी अमल करने लगें तो समूचे विश्व का कल्याण हो जाए। सरकारों को अलग से कोई कानून बनाने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ेगी इस शपथ का तथ्य-कथ्य आपको गूगल गुरू बता देंगे, इस लेख को पढ़ने के बाद हिप्पोक्रेटिक ओथ को सर्च कर पढ़िएगा जरूर।
हमारी सनातनी सांस्कृतिक परपंरा में सृष्टि के आदि वैद्य (डॉक्टर) धनवंतरि को भगवान विष्णुजी का स्वरूप बताया गया है..इसलिए युगों से डाक्टर के प्रति ईश्वरीय आस्था रही है-
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतरये
अमृतकलशहस्ताय सर्वभयविनाशाय सर्वरोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्रीमहाविष्णुस्वरूपाय
श्रीधन्वंतरीस्वरूपाय श्रीश्रीश्री औषधचक्राय नारायणाय नमः॥
लेकिन जब डॉक्टर-वैद्य उपरोक्त मानदंडों पर खरे नहीं उतरे तब मनीषियों को कहना पड़ा कि-
वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर।
यमस्तु हरति प्राणान् वैद्यो प्राणान् धनानि च ॥
(हे वैद्यराज, यम के भाई, मैं आपको प्रणाम करता हूं यम तो सिर्फ प्राण हरते हैं पर आप धन और प्राण दोनों हर लेते हो !!)
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जयराम शुक्ल
पंचायत सरकार एक जुलाई तक चुन ली जाएगी। विधायकों और सांसदों ने अपने पट्ठे ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक उतारे हुए हैं। भाजपा के एक बड़े नेता अपने बेटे के वोट के लिए जिस तरह उत्तेजना में विफरते हुए दिखे उससे अंदाजा लगा सकते हैं कि ये चुनाव क्या मायने रखने वाले हैं। बहरहाल मूल मुद्दा यह कि क्या पंचायतों के चुनाव में गाँव के असल मुद्दे है कि ये बस यूँ ही दारू-दक्कड़ और नोट के जरिए निपट जाएंगे।किसी भी बड़े राजनीतिक दल ने पंचायत चुनावों को केन्द्र पर रखकर कोई घोषणापत्र या एजेंडा जारी किया हो यह भी पढ़ने सुनने को नहीं मिला।
संभवतः बिना दलीय चिन्ह के चुनाव हो रहे हैं इसलिए किसी ने घोषणापत्र जैसे कर्मकांड की जरूरत नहीं समझी। सही बात तो यह कि आजादी के बाद से गाँव तबीयत से छले गए।
अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान के साथ एक और महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी ‘आदर्श ग्राम योजना’ ये दोनों योजनाएं महात्मा गांधी को समर्पित थीं।
इस योजना के साथ सांसदों को भी जोड़ा और सभी को अपने संसदीय क्षेत्र के एक गांव का कायाकल्प करने का आग्रह किया।
बाद में इस योजना को मोदी जी ही भूल गए और सांसदों का कहना ही क्या..।
दरअसल महात्मा गांधी ने गांवों की संरचना वहां के सामाजिक ताने-बाने को जितनी संजीदगी से समझा, उतनी समझ आज तक के आर्थिक सर्वेक्षणों व अनुसंधानों के बाद भी विकसित नहीं हुई। योजनाकारों ने कभी गांवों में दिन नहीं बिताए।
और जिन सांसदों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह अपेक्षा पाले बैठे रहे कि वे गांव का कायाकल्प कर देंगे उनमें से नब्बे फीसदी सिर्फ वोट मांगने गांवों में जाते हैं, कांच बंद वातानुकूलित गाड़ियों में बैठकर।
गांवों की बुनियादी जरूरतों की समझ तभी विकसित हो सकती है जब वे गांवों में रहे, समझें और ग्रामीण जीवन जिएं। महात्मा गांधी ने जो कुछ कहा वो पहले किया, उसे भोगा, वर्धा, चंपारण, साबरमती के आश्रमों में रहकर, इसलिए उनमें ग्राम स्वराज की बुनियादी समझ थी।
गांधी का स्वच्छता अभियान वातावरण की पवित्रता से तो जुड़ा ही था लेकिन उससे ज्यादा गहरे उसके सामाजिक मायने थे।
सफाई का काम जो वर्ग करता था और आज भी कर रहा है उसे इसलिए अछूत माना जाता था कि वह वह गंदगी साफ करता है। मल व विष्ठा ढोता है। गांधी जीवन भर चाहते थे कि अपने हिस्से का यह काम हर कोई करे। यह किसी जात व वर्ग के साथ न जोड़ा जाए। हर हाथ में झाडू हो, हर व्यक्ति अपना शौचालय साफ करने लगे तो अपने आप अछूतोद्धार हो जाए।
दुर्भाग्य से ये न हुआ और न होगा। आजादी हासिल करने से ज्यादा गांधी गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के पक्ष में थे। छोटे-छोटे कुटीर उद्योग धंधों को विकसित करने के पक्ष में।
जिन गांवों का इतिहास 100 वर्ष से पुराना है वहां आप पाएंगे कि वृत्तिगत जातियों की अच्छी बसाहट थी। बढ़ई, लोहार, चर्मकार, पटवा, रंगरेज, धोबी, भुंजवा, तमेर, सोनार, नाई, बारी, काछी। गांव अपने आप में एक सम्पूर्ण आर्थिक इकाई था। जो अन्न उपजाते थे उनकी उपज में उपरोक्त वर्ग के लोगों का हिस्सा होता था।
मेरी जानकारी में गावों में मुद्रा विनिमय ने 60 के दशक के बाद जोर पकड़ा। गांवों में हर वर्ग के बीच एक ऐसा ताना-बाना था कि समूचा गांव एक जाजम में सोता एक ही चादर को ओढ़ता।
वोट की राजनीति करने वालों से देखा नहीं गया। उन्होंने जाति में बांट दिया जिनकी साझेदारी से गांवों की अर्थव्यवस्था चलती थी वे दलित-पिछड़े अगड़े हो गए। वे आरक्षरण की खैरात की लाइन में लग गए इधर टाटा ने लुहारी छीन ली और बाटा ने चर्मकारी। सब के उद्यम एक-एक करके छिन गए।
आज गांवों में मल्टीनेशनल की घुसपैठ हो गई। रंगरेज, पटवा, सोनार, तमेर सबके धंधे हड़प लिए गए। ये सब अब नौकरी व मजदूरी की कतार में खड़े बैठें है। और दूसरी बात पिछले तीन दशकों में गांव का पलायन शहर की ओर बहुत तेजी से बड़ा है। इसकी वजह रोजगार के साथ जरूरी संसाधनों की कमी है।
जैसे गांवों में अच्छे स्कूल नहीं हैं, जो हैं वो अव्यवस्थित और सरकारी हैं। जो सरकारी स्कूल हैं वह सिर्फ वजीफा बांटने या दोपहर का भोजन खिलाने मात्र के हैं। उनकी कोई मानीटरिंग नहीं की गई और आधुनिक आवश्यकताओं से नहीं जोड़ा गया। इस दृष्टि से गांव के लोग भारी तादात में शहर की ओर भागे।
गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं। बिजली जो आज की जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है, वह नहीं है। देश का दुर्भाग्य देखिए कि दूर दराज के गांवों तक मोबाइल और इंटरनेट पहुंच गया लेकिन जिन सुविधाओं की वजह से एक भारतीय गांव, गांव कहलाता है वे सुविधाएं वहां पर दूर दूर तक दिखाई नहीं देतीं हैं। टेलीविजन के मायारूप से प्रभावित होकर भी बहुत बड़ा पलायन गांव से शहर की ओर हुआ है।
अब जरूरी ये है कि गांव का चयन करते वक्त उस गांव की पृष्ठभूमि का एक सामाजिक आर्थिक अध्ययन हो और जो वर्ग वृत्तियों से जुड़े थे कभी, उनके पुराने कौशल को वापस लाने के लिए योजनाएं बनें।
एक संपूर्ण गांव, जिस गांव की बात महात्मा गांधी किया करते थे, वो गांव संपूर्ण गांव तब बनेगा जब उसकी अपनी अर्थ व्यवस्था होगी। इस अर्थ व्यवस्था का जो मूल घटक है वह पुराने परांपरकि लोग हैं, जो कृषि का काम करते हैं। रंगरेजी, दर्जी, पटवा, लुहार, करीगरी आदि का काम करते हैं।
आज इनको जातीय चश्मे से अलग देखने की आवश्यकता है और उनकी सदियों से चली आ रही परंपराओं को नए आधुनिक संदर्भ में, आधुनिक अर्थ व्यवस्था के तहत सहेजने और विकसित करने की जरूरत है।
नरेन्द्र मोदी ने मॉडल तो गांधी का लिया पर यह नहीं समझा कि गंगा में पानी बहुत बह चुका है। गांव में विभाजन की रेखा गहरी हो चली है। विषमता की खाई चौड़ी हो चुकी है।
ज्यादातर गांवों की स्थिति यह है कि सत्तरफीसदी जोत की जमीन पांच फीसदी लोगों के हाथ में है। गांव के सत्तर फीसदी लोग इन पांच फीसदी लोगों के यहां काम करें या शहरों में जाकर मजदूरी करें, स्लम में जिएं।
आजादी के बाद सीलिंग एक्ट आया। निर्धारित किया गया कि एक परिवार के पास अधिकतम इतनी भूमि होनी चाहिए। सीलिंग एक्ट के कानून पर रत्ती मात्र अमल नहीं हुआ।
पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने जो इतने लंबे दिनों तक शासन किया वो सीलिंग एक्ट को कड़ाई से पालन करवा के ही किया। भूमि का समान वितरण करके। अब सीलिंग एक्ट की कोई बात नहीं करता। क्योंकि नौकरशाह और नेता दोनों ही जमीदार हैं। ये क्यों अपनी जमीन छिनने देंगे।
कोई भी गांव तभी आदर्श बन पाएगा जब वहां के लोगों में जीविका के साधन विकसित किए जाएं। जीविका का साधन खेती है और जोत की जमीन पर मुट्ठीभर के लोगों का कब्जा।
जिन वृत्तियों से गांव की अर्थव्यवस्था चलती थी उन्हें फिर से स्थापित करना होगा। यानी की कुटीर उद्योगों को। इसके लिए सरकार जोर दे। आधुनिक तकनीक गांवों तक पहुंचाए- लुहारी, बढ़ईगिरी, दर्जी के काम जैसे बुनियादी उद्योगों को बढ़ाए।
आज गांव में सिर्फ दो प्रजाति ही रहती है। एक जमीदार और दूसरे मजदूर। जमीदारों के पास खेती के ऐसे आधुनिक साधन आ गए कि मजदूरों की जरूरत ही नहीं बची। जब गांव-गांव के रूप में बचेंगे तब न उन्हें आदर्श बनाया जाएगा।
पहले जरूरी है ऐसी समेकित व समावेशी योजनाओं के बनाने का जो गांवों को उनकी पुरानी पारंपरिक अर्थव्यवस्था में जान फूँके। वृत्तिगत कौशल को लौटाए।
विषमतामूलक समाज वाले गांवों को आदर्श बनाने की बात कागजी ही रहेगी, क्योंकि गांधी के बाद किसी भी राजपुरुष ने गांवों के अंतस में झांकने की चेष्ठा ही नहीं की।
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संपर्कः8225812813
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सुधीर पाण्डे
पिछले आठ सालों में इस देश को ऐसा क्या मिला, जो आज़ादी के बाद के सात दशक के इतिहास में हासिल न हो सका। स्वतंत्रता के बाद भारत को विकास की ओर ले जाने वाला बुनियादी ढांचा कितना सही था और कितना गलत, इसकी समीक्षा 70 सालों के दौरान कभी नहीं कि गई। यह मान लिया गया कि भारत के नवनिर्माण की जो राह बनी थी, उसे ही विकास की धारा मानकर निरन्तर मजबूत बनाये रखना है।
पिछले आठ सालों के दौरान इन पुरानी अवधारणाओं को तोड़ा गया, इनकी समीक्षा की गई और विकास को अवरूद्ध न करते हुए नई तकनिकी और प्रयोगों के दम पर तेजी से आगे ले जाने की कोशिश की गई। आठ वर्ष का समय किसी भी बिगड़ी हुई धारा को सुधारने के लिए प्रयाप्त नहीं कहा जा सकता। इन परिस्थितियों में जब पुरानी धारा के आवेग को बिना रोके उनमें सुधार और नई धाराओं का प्रादुलभाव किया जा सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आठ वर्ष पूर्व जिन प्रयोगों को भारत में प्रारंभ किया वे प्रथम दृष्टि में स्वीकार्य नहीं माने गये। यही कारण था कि इन प्रयोगों के दीर्घकालीक की समीक्षा के स्थान पर इन्हें घातक करार दे दिया गया।
समय के साथ स्थितियों में परिवर्तन आया है, जो भारत आठ वर्ष पूर्व विश्व के सामने एक अपरिचित अभिव्यक्ति था। उसे ना सिर्फ पहचान मिली बल्कि नये पंखों के भरोसे उसने उड़ान भरना भी सीख लिया।
आठ वर्ष की अवधि में यदि मोदी सरकार की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि पर गौर न किया जाए तो वह बैमानी होगा। अंग्रेजों के शासनकाल की पूर्व अवधि से क्रमशः भारत में अपनी पहचान खो दी थी, आत्मविश्वास के स्तर पर हम विश्व में सांप और बंदर नचाने वाले देशों के रूप में अपनी पहचान रखते थे। विश्व का कोई भी देश इतनी बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद हमारी आर्थिक अर्थ व्यवस्था को महत्व नहीं देता था। दूसरे अर्थो में कहे तो समूचा विश्व भारत का उपयोग करता था, पर भारत को अपने समकक्ष पहुंचने देना नहीं चाहता था। नागरिक चेतना केवल अपने स्वार्थपूर्ती पर आकर ठहर जाती थी, और राष्ट्रहित नागरिक के व्यक्तिगतहित के साथ जुड़ जाता था। परिणाम यह होता था कि कोई राजनैतिक दल गरीबी हटाओं का नारा देकर देश में अपनी सरकार दशकों तक चलाने में सक्षम हो जाता था।
आठ वर्ष पूर्व चंद नाम ही ऐसे होते थे, जिन्हें इस देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले नेताओं के रूप में जाना जाता था। यह कैसे भूला जा सकता है कि क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद की मां अपने पूरे जीवन काल में आज़ादी के बाद भी डकैत की मां के रूप में अपने जीवन यापन के लिए निम्नतम स्तर का संघर्ष करती रही। देश में इन चंद जमीदारों को आज़ादी के लिए नेता मान कर उनकी महिमा मंडित की गई। पर उन अज्ञात और ज्ञात संघर्षशील व्यक्तियों को स्वाधीनता के युद्ध में एक सेनानी तक की जगह नहीं दी गई। यह बात अलग है कि स्वाधीनता संग्राम सेनानी को आजीवन पेंशन के नाम पर राशि ताम्र पत्र के साथ दी गई थी। पिछले आठ वर्षो में समाज के विभिन्न वर्गो से आज़ादी के संघर्ष की वास्तविक गाधा को निकाला गया, तो वर्षो से चला आ रहा एक बड़ा झूठ समूचे भारत के सामने आकर खड़ा हो गया, कि चंद लोगों ने नहीं समूचे भारत ने अलग-अलग प्रेरणाओं को माध्यम से दो सौ वर्ष की आज़ादी के संघर्ष को अपना सब कुछ खो कर जिया था।
आठ वर्षो में भारत को स्वाभिमान दिया है, अपने गुजरे हुए कल की वास्तविक पहचान दी है और भविष्य में इस विश्व में अपनी पताखा फैलाने के लिए एक मजबूत आधार दिया है। नई राह पर भारत क्रमशः एक नई इबारत लिखेगा इसमे संदेह नहीं होना चाहिए।
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!….खत्म होता चौथा स्तम्भ ?
दायित्व, कृतव्य, नैतिक मूल्य यह अब किताबी बातें रह गयी है। आजादी के पहले जब पत्रकारिता की नींव डली तो देश के प्रति कृतव्यनिष्ठता अपने दायित्व और नैतिक मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की जाती थी। पत्रकारिता का यह स्वर्णिम युग था जिसने बिना किसी अधिकारों के भी पत्रकारों को चौथा स्तम्भ माना गया। देश आजाद हुआ तो पत्रकारिता भी सत्ता के साथ चलकर देश की प्रगति का हिस्सा बनने लगी। सत्ता में दखलंदाजी किसी को नही सुहाती और अंततः तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को इमरजेंसी लगा दी। इमरजेंसी के दौर में जो भी छापना होता था पहले दिखाना पड़ता था फिर कांट छांट कर प्रकाशन करना पड़ता था।
इस दौर के बाद पत्रकारिता पर अंकुश लगता गया। इस अंकुश से पत्रकारिता में निखार आया और लोग पत्रकारों पर सत्ता से अधिक विश्वास करने लगे। यह वह दौर था जब एक चार लाइन के समाचार में कलेक्टर तक कि कुर्सी हिलने लगती थी। लेकिन 90 के दशक के बाद कारपोरेट सेक्टर हावी होने लगा और पत्रकारिता का व्यवसायीकरण होता गया। साल 2010 तक यही चलता रहा। इस दौरान भी संपादक नैतिक मूल्यों का ध्यान रखते थे। लेकिन 2010 के बाद निचले स्तर पर जिला स्तरों पर भी पत्रकारिता को कमाई के जरिये के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। यहीं से पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों का हनन होने लगा और आज चंद लोगों के कारण पत्रकारिता को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। आलम यह है कि पत्रकारिता में चापलूसी बढ़ने लगी। बात कड़वी जरूर है पर आज के दौर में पत्रकार देश हित जनहित की पत्रकारिता को नही खुद को बचाने की पत्रकारिता करने लगे है।
संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करने वाली धारा 19 का प्रयोग करने वाला हर व्यक्ति पत्रकार है। इसके लिए किसी के अधिकार पत्र द्वारा प्रमाणित करने की जरूरत नही है। संविधान का पालन करते हुए ईमानदारी से सत्ता को आईना दिखाना पत्रकारिता है। लेकिन क्या हुआ। आप राजगढ़ जिला ही देखें 18 अप्रैल को मैने कलेक्ट्रेट से फेसबुक लाइव दिखाया। हजारों लोगों ने देखा । सब जानते है लाइव में जो होता है वही दिखता है। लेकिन 4 मई को मेरी शिकायत की गई। मेरे द्वारा सीएम हेल्पलाइन का उपयोग किया गया और शपथपत्र एवं आवेदन से जांच की मांग की गई। मुझ पर ब्लैकमेलिंग के आरोप लगाए गए। में आज भी कहता हूं भृष्टाचार देख देख 2 सालों से कलेक्ट्रेट जाना ही बंद कर दिया था। 17 सितंबर 2021 को एक आवेदन भेजने के बाद में अहमदबाद चला गया था। 1 नवम्बर 2021 से पुनः कलेक्ट्रेट जाना शुरू किया। कलेक्ट्रेट में कैमरे लगे हुए है 1 नवम्बर से 4 अप्रैल 30 अप्रैल 2022 तक कि हर टेबल की रिकार्डिंग की जांच होना चाहिए। 4 मई को मेरे खिलाप झूठा आवेदन बाबुओं ने दिया। में गारंटी देता हूँ मेरे खिलाप एक भी बाबू एक छोटा सा भी सबूत पेश कर दे तो में उसी समय देह त्याग कर दूंगा। लेकिन मेरे द्वारा उजागर किए गए भृष्टाचार की फाइलों से घबराकर षड्यंत्र किया गया। में षड्यंत्रों से दूर रहना चाहता हूं। और उसी हथियार का इस्तेमाल किया गया। मैने उसी दिन से कलेक्ट्रेट ही नही राजगढ़ जाना भी छोड़ दिया।
आज हिंदी पत्रकारिता दिवस पर में पत्रकारिता को त्यागकर आरटीआई एक्टिविस्ट की भूमिका में इंदौर से नया जीवन जीना शुरू करूँगा। एक साधारण मानव के लिए संविधान में दिए अधिकारों का उपयोग करते हुए भृष्टाचारियो की पोल खोलने में किसी संस्था का ठप्पा या पत्रकार होना जरूरी नही है। हर बात को न्यायालय की शरण मे ले जाइए न्यायालय हमेशा संविधान की रक्षा करता आया है। मेरी कर्मभूमि राजगढ़ जिले से दूर रहकर भी वही करूँगा जो नीति नियम नैतिकता कहती है।
माखन विजयवर्गीय की कलम से……
ना काहू से बैर/राघवेंद्र सिंह
देश में सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहे पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस के दामों में जो आग लगी थी उस पर वित्त मंत्री ने पिछले दिनों राहत की जो बौछार की उससे सभी ने ठंडक महसूस की है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के सस्ता ईंधन करने के ऐलान को प्रधानमंत्री मोदी का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है। ऐसा लगा मानो ईंधन के दाम घटने पर मानसून भी प्रसन्न हो गया और आसमान पर बादल छाए और राहत की बारिश करने लगे। लेकिन इसे केंद्र सरकार की तरफ से राहत की बेमौसम बारिश भी माना जा रहा है। क्योंकि अभी किसी राज्य में कोई चुनाव नही हैं। लेकिन महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में अलबत्ता सर्वोच्च अदालत के आदेश पर जून में पंचायत व नगरीय निकायों के चुनाव होने वाले हैं। मगर बिना किसी जन आंदोलन के ईंधन के सस्ता करने पर राजनीतिक हलकों में हैरत जरूर हो रही है। इस बीच एक अफवाह यह भी चली कि मप्र सरकार ने भी डीजल पेट्रोल पर टैक्स घटाया है। जब पड़ताल की गई तो वह फर्जी साबित हुई। लेकिन लोगों का ख्याल है कि ओबीसी आरक्षण और पंचायत व नगर सरकारों के चुनाव के चलते शायद मुख्यमंत्री मामा शिवराज भी सबके ख्याली पुलाव को सही साबित कर दें।
वैसे यूक्रेन – रूस युद्ध के चलते आशंका यह थी कि अभी ईंधन के दाम नहीं घटेंगे। असमय – बिना की वजह के ईंधन को सस्ता कर मोदी सरकार ने एक नई लाइन खींचने की भी कोशिश की है। बहुत संभव है सरकार को या खबर लगी हो क्विड डीजल पेट्रोल के मुद्दे पर विपक्ष देश में बड़े आंदोलन की तैयारी कर रहा है इसलिए सरकार के खिलाफ माहौल बनाने वाले गुब्बारे की दाम घटाकर मोदी ने पहली हवा निकाल दी उसके पहले मुख्यमंत्रियों से बातचीत में प्रधानमंत्री ने कहा था कि राज्य सरकार अपने हिस्से के टैक्स में कमी कर डीजल पेट्रोल सस्ता कर सकते हैं । मगर इस पर किसी भी राज्य भी ने दाम नहीं घटाएं। पहले से आर्थिक तंगी से दो चार हो रहे भाजपा शासित राज्यों ने भी टैक्स में कोई कटौती नही की। इंतजार के बाद केंद्र सरकार ने अचानक दाम घटाकर सबको इसके पीछे कारण खोजने के लिए एक मुद्दा दे दिया। बहरहाल प्रतिबंध झेल रहे रूस से सस्ता तेल लेकर मोदी सरकार अपनी जनता की थोड़ी मुश्किल कम करती जरूर दिख रही है।
योगी की धमक और मामा की बमक…
भाजपा शासित राज्य के दो मुख्यमंत्री खूब चर्चाओं में है। गुंडे बदमाशों की कमर तोड़ने के लिए अवैधानिक कारोबारियों को 24 घंटे में काबू में करने का उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी का अल्टीमेटम खूब सुर्खियां बटोर रहा है उन्होंने कहा कि जो गुंडे बदमाश शहरों से लेकर कस्बों तक गैर कानूनी तरीके से स्कूटर कार स्टंट और यात्री वाहनों का संचालन करते हैं उन पर कठोर कार्रवाई की जाए आर्थिक वितरण की कमर तोड़ दी जाए ताकि समाज विरोधी गतिविधियां बाबू में लाई जा सके साथ ही जिन अपात्र लोगों के पास मुफ्त और सस्ते राशन पाने के कार्ड बने हुए हैं वह अपने राशन कार्ड जमा करा दें अन्यथा उनके खिलाफ कठोर कार्यवाही की जाएगी इसमें उनके खिलाफ बाजार दर से राशन की कीमत वसूलने की बात की गई इसका असर यह हुआ इस सरकारी दफ्तरों में अपात्र राशन कार्ड धारियों की जमा करने के लिए कतारें लग गई यह देख कर आम लोगों को अच्छा लगा उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जबरदस्त धमक है ।
मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री मामा शिवराज सिंह अपने प्रशासन को जगाने और सक्रिय करने के लिए सुबह 6:30 बजे मुख्यमंत्री निवास में बैठक कर कलेक्टर एसपी और वरिष्ठ अधिकारियों से वीडियो कॉलिंग कर जनता की दिक्कत कम करने के लगातार निर्देश दे रहे हैं। एक तरह से यह उन्होंने सोते हुए अफसरों को मुस्तेद करने का नवाचार शुरू किया है। जनता की नब्ज पकड़ने वाले मुख्यमंत्री के रूप में जान शिवराज सिंह की अलग पहचान है। अब जनता उम्मीद कर रही है कि मामा जिस तरह से अधिकारियों क्लास लेकर काम करने के लिए विवश कर रहे हैं उससे लगता है कानून व्यवस्था बेहतर होगी और भ्रष्टाचार में कमी आएगी।
कांग्रेस को कमल का डर दिखा रहे हैं नाथ…
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ साफगोई के लिए मशहूर है पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस के एक बैठक में अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने के लिए भाजपा और उसके संगठन की खासियत बताई।उन्होंने कहा कांग्रेस को भाजपा से नहीं बल्कि उसके संगठन से खतरा है। लब्बोलुआब है था कि हमें भाजपा का संगठन ही हरा सकता है। इसलिए मंडल स्तर पर कार्यकर्ता और जनता से संपर्क व संवाद करने की जरूरत है। जनता के हित में संघर्ष करने में कांग्रेस आगे आती है तो फिर जीतने से कोई नहीं रोक सकता। उनकी ये नसीहत अच्छी तो है लेकिन इस पर अमल करने की शुरुआत खुद कमलनाथ और प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेताओं से करने की जरूरत है। कार्यकर्ताओं को प्रतीक्षा है कि कौन नेता अपने भाषाओं पर सबसे ज्यादा अमल करके बताता है।
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जयराम शुक्ल
‘पिछड़ा पावै सौ में साठ’ का नारा देने वाले सोशलिस्ट नेता डाक्टर राममनोहर लोहिया ने कहा था ‘लोग मेरी बात सुनेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद’ आज लोहिया का यह नारा राजनीतिक दलों और नेताओं के सिर पर चढ़कर बोल रहा है।
उत्तरप्रदेश और बिहार के बाद अब मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग की राजनीति परवान पर है। फौरी सबब है नगरीय निकाय और पंचायत के चुनाव का। कांग्रेस और भाजपा बढ़चढ़कर ऐसे पैरवी कर रही हैं कि यदि उनका बस चले तो समूचा आरक्षण ही ओबीसी के चरणों में रख दें।
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश सरकार से 27% ओबीसी आरक्षण देने का तार्किक आधार माँगा था, जो सरकार देने में विफल रही। सुप्रीमकोर्ट के अंतरिम आदेश के अनुसार कहा गया जितना आरक्षण देना हो दीजिए लेकिन यह सीमा 50% पार नहीं होना चाहिए। भाजपा ढोल बजाकर नाच रही है- हम जीत गए, हम जीत गए।
लेकिन हकीकत यह कि चुनाव में पिछड़ों के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण बहाल हो गया जो पहले से था। यह जानते हुए भी कि सुप्रीम कोर्ट को 27 प्रतिशत पिछड़ावर्ग आरक्षण स्वीकार्य नहीं होगा लेकिन कमलनाथ की अल्पकालिक सरकार ने यह रायता फैलाया। इसके बाद दोनों पार्टियों के नेताओं ने झूठ पर झूठ बोलकर समाज को भ्रम के कुहासे में धकेल दिया।
पिछडों के हितैषी दिखने की राजनीति सिरपर चढकर झूठ पर महाझूठ इसी तरह बोलती रहेगी और यही 2023 के विधानसभा व लोकसभा का आधार भी बनने वाला है।
पिछड़ों की यह राजनीति आजादी मिलने के कुछ बरस बाद से ही शुरू हो गई। डाक्टर राममनोहर लोहिया आजादी मिलने के एक वर्ष पूर्व ही पंडित नेहरू से राजनीतिक मतभेदों के चलते अलग हो गए। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अशोक मेहता, आचार्य नरेन्द्र देव के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी बना ली।
डाक्टर लोहिया जातितोड़ों का आंदोलन जरूर चलाते थे पर उनका मानना था कि यह प्रवृति तभी खत्म होगी जब पिछड़ेवर्ग लोग सामाजिक और राजनीतिक रूप से बराबरी पर आ जाएंगे।
लोहिया के पिछड़े लोगों में जाति नहीं थी बल्कि वंचित समुदाय था जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं। लोहिया की परिभाषा में दलित कोई जाति नहीं वरन् वे लोग थे जिन्हें सदियों से दबाया और कुचला गया था, जो शोषित थे। इसी परंपरा को यमुना प्रसाद शास्त्री ने शोषितोदय कहकर आगे बढ़ाया।
63 में वे फरुख्खाबाद से उप चुनाव में जीतकर लोकसभा पहुँचे। वे मानते थे कि कांग्रेस वोट तो दलितों और पिछड़ों से लेती है पर उसका नेतृत्व कुलीन हाथों में है। वामपंथियों को भी इसी श्रेणी का मानते थे। यद्यपि लोहिया स्वयं कुलीन मारवाड़ी थे।
1965 के आसपास उन्होंने दो नारे दिए पहला नारा था- संसोपा ने बाँधी गाठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ, दूसरा नारा था- मँहगी रोको बाँधों दाम, वरना होगा चक्का जाम। पहले नारे को कांग्रेस के भीतर ही पिछड़ा वर्ग के लोगों ने जाति को आधार बनाकर सूत्रवाक्य बना लिया।
कांग्रेस के भीतर से ही चौधरी चरण सिंह ने लोहिया के इस नारे को बुलंद किया और प्रकारान्तर मेंं उत्तरप्रदेश की चन्द्रभानु गुप्त की सरकार गिरा दी। बिहार में पिछड़े वर्ग के कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। पिछड़ों की यह राजनीति सैलाब की तरह ऐसी बढ़ी कि गैर कांग्रेसवाद के अश्वमेधी घोड़े पर सवार हो गई।
67 तक कांग्रेस की नौ राज्यों की सरकारें बेदखल हो गईं। गैर कांग्रेसवाद के इस नारे को जनसंघ का साथ मिला। पंडित दीनदयाल उपाध्याय लोहिया के साथ हो लिए। वही क्रम 77 में दोहराया गया जब जेपी और नानाजी की जोड़ी बनी।
दरअसल लोहिया पंडित नेहरू से इस बात से भी नाखुश रहे कि 1955 पिछड़ावर्ग के हितों के लिए गठित काका साहब कालोलकर की सिफारिशों को दरकिनार कर दिया गया था।
1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो सबसे बड़ा काम 1978 में बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में आयोग गठित कर दिया जिसे पिछड़े वर्ग के लिए सिफारिशें देनी थी।
मंडल साहब ने जनता पार्टी की सरकार के गिरते -गिरते अपनी सिफारिशें पेश की। 1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार पुनः आ गई। मंडल कमीशन की रिपोर्ट राजीव गाँधी के शासन काल तक दबी रही।
1989 में जब वीपी सिंह की जनमोर्चा सरकार बनी तो मंडल कमीशन फिर याद आया।
मंडल साहब ने 1931 की जातीय जनगणना को आधार मानकर रिपोर्ट दी कि देश में 52 प्रतिशत आबादी पिछड़ों की है। आरक्षण में 50 प्रतिशत की सीमा और जातीय आबादी को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार की ओर से 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का आदेश जारी हुआ।
इस आदेश से देश में भूचाल सा आ गया। सवर्ण युवाओं ने आत्महत्याएं की..। लेकिन पिछड़ा वर्ग की राजनीति का सिक्का चल निकला।
1990 के बाद लालू यादव और मुलायम सिंह का राजनीति में अभ्युदय हुआ। दोनों राज्यों की पिछड़े वर्ग की राजनीति की हवा मध्यप्रदेश आ पहुंची। 1990 के बाद इन तीनों राज्यों में एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना। एक दो अपवाद छोड़ दें तो अदल-बदलकर पिछड़े वर्ग से ही मुख्यमंत्री बनते रहे।
1991 में नरसिंह राव की सरकार आने के बाद सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत का आरक्षण देकर मामले को ठंडे करने की कोशिश की लेकिन पिछड़े वर्ग की राजनीति तबतक धधक चुकी थी।
सभी राज्यों ने मंडल कमीशन के 52 प्रतिशत और केन्द्र के 27 प्रतिशत आरक्षण की बात को पकड़ लिया। जबकि हर राज्यों में जातीय आबादी का प्रतिशत अलग-अलग है। लेकिन फिर भी सभी दलों ने पिछड़ों को लुभाने के लिए आरक्षण का खेल शुरू कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट की वैधानिक चेतावनी के बाद भी तामिलनाडु और राजस्थान ने तो आरक्षण का दायरा 67 तक पहुंचा दिया।
इस बीच 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तब कमलनाथ ने पिछड़े वर्ग की आबादी की दुहाई देते हुए आरक्षण को 14 से 27 प्रतिशत बढ़ा दिया। मध्यप्रदेश में अजाजजा हेतु वैसे भी 36 प्रतिशत का आरक्षण है। इसमें 27 प्रतिशत जोड़ देने से यह दायरा 63 प्रतिशत पहुँच जाता है। जबकि अभी भी संविधान में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत की है।
यह सीमा तब तक रहेगी जबतक कि संविधान में संशोधन न लाया जाए। गुस्से में सुप्रीम कोर्ट यह बात कई बार और बार-बार दुहरा चुका है।
कांग्रेस और भाजपा दोनों इस वास्तविकता को जानती हैं पर पिछड़े वर्ग को अपने पाले में लाने की होड़ के चलते हालात को इस मुकाम तक पहुंचा दिया। आरक्षण की इस अतार्किक लड़ाई में पिछड़े वर्ग के युवा भी वैसे ही फँसकर पिस रहे हैं जैसे कि सामान्य वर्ग के।
गैर कांग्रेसवाद की रौ पर लोहिया ने यह नारा तो उछाल दिया कि ‘पिछड़ा पावै सौ में साठ’ लेकिन उसकी परणति का आँकलन अपने जीते जी नहीं कर पाए। जिस सामाजिक विषमता के खिलाफ जिन्हें लेकर उन्होंने राजनीतिक युद्ध छेड़ा था वही आज जातीय राजनीति के सबसे बड़े झंडा बरदार बन गए। पर वे यह बात सही कह गए- लोग मेरी बात सुनेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद।
◆और अंत में
पंचायत चुनावों में हम ओबीसी को
27% टिकट देंगे: कांग्रेस
और हमने 27% से ज्यादा देना तय कर रखा है: भाजपा
अब आगे…
महाजन आयोग की रिपोर्ट देखेंगे कि वे कितने प्रतिशत की बात कर गए: कांग्रेस
बिसेन आयोग ने अभी-अभी 35% देने की बात की है : भाजपा
हम मंडल आयोग की सिफारिश के अनुसार 52% देने जा रहे हैं: कांग्रेस
लोहिया जी कह गए थे पिछड़ा पावै सौ में साठ सो अब भाजपा ने है बाँधी गाँठ..
मोदी राज में 10% धनी 90% के मालिक हैं सो हम उन 90% वालों को आरक्षण देंगे: कांग्रेस
तन समर्पित मन समर्पित और पिछड़ों के लिए जीवन समर्पित
लो 100% दिया: भाजपा
इसमें 10% प्रवासियों को भी जोड़कर हम 110% आरक्षण देंगे: कांग्रेस
कोई शक……!!!
संपर्कः8225812813
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भोपाल: मध्यप्रदेश में राजनीति के विचार को और चिंतकों का बदलती हुई परिस्थितियों पर गहन परिक्षण चल रहा है। विभिन्न तथ्यों के अन्वेषन के उपरांत दो दलीय शासन प्रणाली पर आधारित मध्यप्रदेश की राजनीति को बारीकी से और तथ्यों के आधार पर परीक्षित किया जा रहा है। अलग-अलग समूहों में राजनीति को लेकर चलने वाली चर्चाओं और भविष्य में पड़ने वाले उनके प्रभावों को भी इतिहास की कसौटी में तोलने की कोशिश की जा रही है।
अब तक हुई चर्चाओं के अनुसार मध्यप्रदेश जैसे राज्य जहां समूचे भारत की विभिदताएं छोटे समूह में उपस्थित है। एतिहासिक तथ्यों और आकड़ों से अलग कोई बड़े परिवर्तन की संभावना नहीं नजर आती है। चर्चाओं के दौरान यह भी पाया गया कि मध्यप्रदेश की सरकारों का गठन या राजनैतिक दलों के बहुमत के निर्धारण के मूल में जिस मतदाता का प्रभाव है वह अस्थिर, दबा और कुचला हुआ या अन्य उपेक्षित जाति समूह का प्रतिनिधि है। भावना प्रधान मतों के संग्रह में वैचारिक अस्थिरता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बहुत कम अवसर ऐसे पाये जाते है जब मध्यप्रदेश का मतदाता नेतृत्व के किसी चेहरे या उसके कृत्यों से प्रभावित होकर मतदान करता है।
सर्वप्रथम कांग्रेस के संदर्भ में देखे तो चिंतन से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान में कांग्रेस के पास इस सहज सरल मतदाता के लिए कोई चेहरा नेतृत्व के रूप में सामने नहीं है। ऐसा कोई चित्र भी नहीं है जिस पर मतदाता भरोसा कर सके। इन स्थितियों में जमीनी कार्यकर्ताओं की सक्रियता और उनका आम जनमानस से जुड़ाव केवल कांग्रेस के पक्ष मे माहोल बना सकता है। कांग्रेस के पास कार्यकर्ता है नहीं और कांग्रेस से अधीक कांग्रेस के नेताओं के जुड़ाव अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धी में है अर्थात कांग्रेस को अहंकार के आकाश से निचे उतर कर जमीन पर आना होगा जो अब उसके लिए संभव नहीं है।
दूसरी और भारतीय जनता पार्टी पिछले लगभग दो दशक से शासन में रहते हुए अब चारित्रिक रूप से शासक बन गई है। ऊंची आवाज में माइक के सामने मुक्के पटक कर दावेदारी करने से इस संवेदनशील मतदाता पर कोई प्रभाव डाला जा सकेगा वह संभव नहीं है। कहावत है फल से लदे हुए वृक्ष का झुकना जरूरी होता है, संभवतः यह प्रकृति द्वारा बनाये गये विनम्रता के सिद्धांत का उदाहरण है। बीस वर्ष की सत्ता के बाद अब भाजपा में मुख्यमंत्री पद के लिए एक दौड़ शुरू हो गई है, जिस पर आने वाले दिनों में न संघ का और नाही संगठन का कोई नियंत्रण रहेगा। इसका प्रमुख कारण विभिन्न नेताओं से जुड़े हुए कल तक अनुशासित रहे कार्यकर्ताओं का महत्वकांशा के कारण अनुशासनहीन हो जाना होगा।
उपरोक्त दोनों ही दल राजनीति की परिभाषा और सिद्धांतों में विश्वास नहीं रखते या यह कहे कि दोनों ही दलों के नेता क्षणिक स्वार्थ पूर्ति के लिए राज्य को पुनः भुलावे की गलत फहमी पाले अपनी भविष्य की योजनाओं को कागजी तौर पर पूरा कर रहे है। कांग्रेस के पास न कोई योजना है और नाही कोई लक्ष्य है तो केवल अहंकारपूर्ण दावे और इन दावों की बुनियान कार्यकर्ताओं के बिना खोखली है। दूसरी और सत्ताधारी भाजपा संघ के सिद्धंतों से अलग हटकर अब राजनीति सेवा के लिए नहीं व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कर रही है। जहां से भी आम मतदाता को और वह विशेष कर मध्यप्रदेश के मतदाता को कुछ भी मिल पाने की संभावना नहीं है। राजनीति का चिंतन लगातार जारी है और यही चिंतन चुनाव के काफी पूर्व भविष्य की धारा का भी निर्धारण कर देगा।
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