Monday, August 4, 2025
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कर्मचारियों को तारीख नहीं पदोन्नति चाहिए सरकार

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मध्य प्रदेश में पिछले साढ़े पांच साल से सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों के प्रमोशन पर रोक लगी है और रोक की वजह भी शिवराज सरकार ही है। जबलपुर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ न सरकार सुप्रीम कोर्ट जाती और न ही कर्मचारियों का प्रमोशन रुकता। पदोन्नति पर लगी रोक से कर्मचारियों की नारागजी को देखते हुए सरकार ने बीच का रास्ता निकालने की तैयारी की और तकरीबन साल भर पहले उन्हें पात्रतानुसार पदोन्नति देने का फैसला कर लिया। कर्मचारियों को पात्रतानुसार पदोन्नति देने की रणनीति तैयार करने गत सितंबर में मंत्री समूह का गठन किया गया, लेकिन मंत्री समूह भी sampadkiy 1इस बारे में कोई फैसला नहीं कर पा रहा है। गठन के बाद पांच महीने में मंत्री समूह एक दर्जन बैठकें कर चुका है, लेकिन हर बार नतीजा सिफर रहा। इस बारे में फैसला अगली बैठक में करने की बात कहकर मंत्री समूह बैठक की अगली तारीख तय कर देता है। इस सिलसिले में मंत्री समूह 8 फरवरी को अगली बैठक करेगा। मंत्री समूह में गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा, जल संसाधन मंत्री तुलसीराम सिलावट, वन मंत्री विजय शाह, सहकारिता मंत्री अरविंद भदौरिया और स्कूल शिक्षा राज्य मंत्री इंदर सिंह परमार शामिल हैं।

साढ़े पांच साल से पदोन्नति पर लगी है रोक

साढ़े पांच साल से पदोन्नति पर रोक लगी होने से प्रदेश भर के कर्मचारियों में निराशा का माहौल तो है ही, उनमें सरकार के प्रति नाराजगी भी है। पदोन्नति में रोक लगी होने से हर महीने कर्मचारी बगैर प्रमोशन के सेवानिवृत्त हो रहे हैं। सरकार की ओर से बनाए गए मंत्री समूह से कर्मचारियों को बड़ी उम्मीद थी। जब-जब मंत्री समूह की बैठकें होती हैं, तो कर्मचारियों को आस बंधती है कि पदोन्नति को लेकर कोई निर्णय लिया जाएगा, लेकिन अब मंत्री समूह से भी उनका भरोसा उठता जा रहा है। हालांकि पदोन्नति पर लगी रोक से कर्मचारियों की नाराजगी से सरकार अच्छे से वाकिफ है, लेकिन कर्मचारियों को पात्रतानुसार पदोन्नति कैसे दी जाए, मंत्री समूह इसका कोई फार्मूला तैयार नहीं कर पा रहा है। यही वजह है कि हर बार बैठकें टाल दी जाती है। अब मंत्री समूह अजाक्स और सपाक्स के प्रतिनिधियों से चर्चा करने की बात कह रहा है, जबकि इससे पहले भी मंत्री समूह सपाक्स और अजाक्स के प्रतिनिधियों को दो बैठकों में बुलाकर उनकी राय ले चुका है।  कर्मचारियों को पात्रतानुसार पदोन्नति कब तक मिलेगी, यह सरकार के अलावा कोई नहीं जानता।

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अधिकारी-कर्मचारी पदोन्नति के बिना ही सेवानिवृत्त

दरअसल, मप्र हाईकोर्ट की मुख्य पीठ जबलपुर ने 30 अप्रैल, 2016 को मप्र लोक सेवा (पदोन्नति) अधिनियम-2002 खारिज कर दिया था। इस कानून में अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान है। राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। हाईकोर्ट के फैसले के बाद से प्रदेश में कर्मचारियों की पदोन्नति पर रोक लगी है। तब से अब तक 55 हजार से ज्यादा अधिकारी-कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इनमें कई ऐसे अधिकारी-कर्मचारी हैं, जो पदोन्नति के बिना ही सेवानिवृत्त हो गए। तभी से कर्मचारी संगठन सरकार से पदोन्नति देने की मांग कर रहे हैं।

सरकार ने अधिकारी-कर्मचारियों को उच्च पद का प्रभार देकर पदनाम दिए जाने को लेकर दिसंबर, 2020 में उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। कमेटी ने कर्मचारियों को उच्च पद का प्रभार देने के संबंध में जनवरी, 2021 में शासन को अनुशंसा संबंधी रिपोर्ट सौंप दी थी। इसके बाद अब तक सरकार कर्मचारियों को उच्च पदों का प्रभार सौंपे जाने के संबंध में फैसला नहीं कर पाई है।

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नाकाम हो रही शिवराज सरकार, चुनाव में जाति-धर्म बनेगा हथियार?

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इस समय पूरे देश में उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव की चर्चा है, राजनीति में रुचि रखने वालों की सबसे ज्यादा रुचि उत्तरप्रदेश चुनाव में है। भाजपा अपनी रणनीति के तहत उप्र चुनाव को 'हिंदू-मुस्लिम' करने की  पुरजोर कोशिश कर रही है। वह इसमें कितनी सफल हो पाएगी, यह आने वाले वक्त में पता चलेगा। मध्यप्रदेश की बात करें, तो यहां सामान्यत: चुनाव जाति, धर्म का फैक्टर काम नहीं करता, लेकिन लगता है कि मप्र के आगामी विधानसभा चुनाव में धर्म sampadkiy 1को मुद्दा बना सकती है। सरकार के कुछ फैसलों और भाजपा नेताओं के बयानों से इस बात को भली-भांति समझा जा सकता है। कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त कर 'बैक डोर' के जरिए सत्ता में आई भाजपा का यह कार्यकाल अब तक नीरस रहा है। या यूं कहें कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने चौथे कार्यकाल में निष्प्रभावी होते नजर आ रहे हैं। इस कार्यकाल में वे बड़ी-बड़ी बातों के अलावा एक भी ऐसा काम नहीं कर पाए, जिसे वे प्रदेश की जनता के समक्ष उपलब्धि के रूप में पेश कर सकें। मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद उनका आधा समय और आधी ऊर्जा कोरोना से निपटने में लग गई है।

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'स्वर्णिम मध्यप्रदेश' से 'आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश'

सरकार की नाकामी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह अपने सबसे बड़े किसान वोट बैंक को पर्याप्त खाद तक उपलब्ध नहीं करा पाई है। आज भी किसान यूरिया के लिए परेशान हैं। सत्ता में आने के बाद शिवराज 'आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश' बनाने की बातें कर रहे हैं, अफसरों पर दबाव बना रहे हैं, लेकित अब तक इस दिशा में सरकार कोई खास कार्य नहीं कर पाई है। अपने पिछले कार्यकाल में  शिवराज प्रदेश को 'स्वर्णिम मध्यप्रदेश' बनाने की जिद ठाने हुए थे, लेकिन जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया था और उनका प्रदेश को स्वर्णिम बनाने का सपना पूरा नहीं हो पाया। अपने इसी सपने को उन्होंने चौथे कार्यकाल में आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश का नाम दिया है।

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बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और रिश्वत

बेरोजगारी की वजह से युवा सरकार से बेहद खफा हैं। प्रदेश में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 35 लाख हो गई है। कोरोनाकाल में देश और प्रदेश के व्यापारियों की क्या हालत है, यह सभी जानते हैं। मुख्यमंत्री आए दिन भ्रष्ट अधिकारियों को चेतावनी दे रहे हैं, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेंगे। भ्रष्टाचार करने वालों को मैं नौकरी करने लायक नहीं छोड़ूगा। इसके बाद भी आए दिन लोकायुक्त संगठन और आर्थिक अपराध ब्यूरो की छापे की कार्रवाई में अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेते पकड़े जा रहे हैं और उनकी काली कमाई करोड़ों में है।

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क्‍या करें…. क्‍या न करें….

चूंकि इस कार्यकाल में  मुख्यमंत्री की चमक फीकी पड़ रही है, इसलिए भाजपा अगले चुनाव को जाति और धर्म की ओर मोडऩे की तैयारी में जुट गई है। इसी कड़ी में उत्तरप्रदेश की तर्ज पर मध्यप्रदेश में भी उन शहरों, स्थानों के नाम बदले जा रहे हैं, जो मुस्लिमों के नाम पर हैं। भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन और मिंटो हॉल का नाम बदलने के बाद अब होशंगाबाद और बाबई का नाम बदल दिया गया है। आने वाले दिनों में कुछ और शहरों के नाम बदले जाने के आसार हैं। उत्तरप्रदेश के काशी विश्वनाथ कॉरीडोर की तर्ज पर उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर को विकसित करने की तैयारी मप्र सरकार ने शुरू कर दी है। ऐसे ही मुख्यमंत्री से लेकर अन्य भाजपा नेता महात्मा गांधी से लेकर अन्य पुराने कांग्रेस नेताओं पर निशाना बनाया जा रहा है।

गणतंत्र दिवस पर दिए गए संदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि हमें कहते हुए कभी-कभी तकलीफ होती है कि स्वतंत्रता के बाद हमें आजादी का इतिहास तक गलत पढ़ाया गया। देश को बताया गया कि हिंदुस्तान को आजादी महात्मा गांधी, नेहरूजी, इंदिराजी ने दिलाई। आजादी की क्रांतिकारी धारा को भुला दिया गया, एक नहीं कई अमर शहीद क्रांतिकारियों की स्मृति को संजोकर नहीं रखा गया। ऐसे ही सरकार आगामी चुनाव में आदिवासी, दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग को साधने के लिए अभी से तैयारियां कर रही है। कुल मिलाकर आगामी विधानसभा चुनाव में सरकार अपनी नाकामियां छुपाने के लिए जाति-धर्म को हथियार बनाकर मैदान में उतरेगी।

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दो साल से दस लाख कर्मचारियों को भरमा रही है शिवराज सरकार

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मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार पिछले दो साल से प्रदेश के 10 लाख कर्मचारियों को भरमा रही है। कर्मचारियों की समस्याओं के निराकरण के लिए कमलनाथ सरकार के समय बनाया गया कर्मचारी आयोग दो साल पहले भंग हो चुका है। आयोग में न अध्यक्ष है और न ही सदस्य हैं। इसके बाद भी सरकार आयोग का कार्यकाल बढ़ाती जा रही है। बिना sampadkiy 1अध्यक्ष और सदस्यों वाला आयोग कर्मचारियों की कितना भला कर पाएगा, यह तो सरकार ही जाने। कर्मचारियों को केंद्र के समान महंगाई भत्ता मिलने, साढ़े पांच साल से प्रमोशन पर लगी रोक हटने, संविदा कर्मचारियों को नियमितीकरण का बेसब्री से इंतजार है।

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कमलनाथ सरकार ने किया था कर्मचारी आयोग का गठन

दरअसल, कमलनाथ सरकार ने अपने वचन पत्र में किया गया वादा निभाते हुए 12 दिसंबर, 2019 को कर्मचारी आयोग का गठन किया था। सेवानिवृत्त आईएएस अजय नाथ को आयोग का चैयरमैन और वित्त विभाग के सेवानिवृत्त उप सचिव मिलिंद वाईकर को आयोग का सचिव बनाया गया था। इसके अलावा कर्मचारी नेता वीरेंद्र खोंगल, सेवािनवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश योगेश कुमार सोनगरिया, राच्य योजना आयोग के तत्कालीन सलाहकार अखिलेश अग्रवाल, जीएडी और वित्त विभाग के सचिव को सदस्य बनाया गया था। आयोग का कार्यकाल एक वर्ष रखा गया था। आयोग के दायरे में राज्य सरकार के अधिकारी-कर्मचारियों, निगम-मंडलों, अर्ध सरकारी संस्थाओं के मुलाजिमों के साथ संविदा कर्मचारी, अंशकालिक और पूर्णकालिक वेतन पाने वाले करीब 10 लाख कर्मचारियों को रखा गया था। आयोग के गठन का मकसद कर्मचारियों की वेतन विसंगतियों समेत अन्य समस्याओं का अध्ययन कर आवश्यक सुझाव सरकार को देना था। आयोग ने गठन के बाद विभिन्न मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त कर्मचारी संगठनों के पदाधिकारियों के साथ बैठकें कर उनकी समस्याएं सुनकर प्रतिवेदन तैयार किया था। यह सिफारिशें राज्य शासन को सौंपने से पूर्व ही आयोग का कार्यकाल पूरा हो गया और सिफारिशें ठंडे बस्ते में चली गईं। सरकार ने पहली बार दिसंबर, 2020 में आयोग का कार्यकाल एक साल बढ़ाने के संबंध में आदेश जारी किए, लेकिन आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों का कार्यकाल 11 दिसंबर, 2020 तक ही रखा गया और उस समय कहा गया था कि आयोग के पुनर्गठन और अध्यक्ष व सदस्यों के नए मनोनयन की कार्रवाई अलग से की जाएगी। साल भर से ज्यादा बीत जाने के बाद भी सरकार आयोग का पुनर्गठन नहीं कर पाई, जबकि हाल में सरकार ने फिर से आदेश जारी कर आयोग का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया है। अब आयोग का कार्यकाल 11 दिसंबर, 2022 को पूरा होगा।

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कर्मचारियों को भ्रम में रखे हुए है सरकार

कर्मचारियों का कहना है कि सरकार कर्मचारी आयोग का कार्यकाल बढ़ाकर कर्मचारियों को भ्रम में रखे हुए हैं, क्योंकि बिना अध्यक्ष और सदस्यों के कर्मचारी आयोग औचित्यहीन है। सरकार को आयोग का तत्काल पुनर्गठन कर आयोग की ओर से तैयार किए गए प्रतिवेदन पर कार्रवाई करना चाहिए। कर्मचारी आयोग के पूर्व सदस्य  वीरेंद्र खोगल का कहना है कि आयोग ने करीब 80 मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त कर्मचारियों की समस्याएं सुनकर प्रतिवेदन तैयार किया था। कर्मचारियों की समस्याओं के निराकरण संबंधी सिफारिशें सरकार को सौंपने से पहले ही आयोग का कार्यकाल समाप्त हो गया। राज्य कर्मचारी कल्याण समिति के पूर्व सदस्य शिवपाल सिंह का कहना है कि विभिन्न विभाग कर्मचारियों की समस्याओं संबंधी रिपोर्ट कर्मचारी आयोग को भेज चुके हैं, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। आयोग का पुनर्गठन किए बगैर उसका कार्यकाल बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है। सरकार आयोग का पुनर्गठन जल्द करे, ताकि कर्मचारियों की समस्याओं का निराकरण हो सके।

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भाजपा की राह चली कांग्रेस…

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मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव  भले ही 18 महीने दूर हों, लेकिन भाजपा और कांग्रेस ने जमीन पर इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं। भाजपा संगठन तो हालांकि साल भर कोई न कोई कार्यक्रम आयोजित कर पार्टी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को सांस लेने का मौका नहीं देती, लेकिन आमतौर पर कांग्रेस चुनाव के चंद महीने पहले ही सक्रिय होती है। हालांकि कांग्रेस में इस बार हालात बदले बदले नजर आ रहे हैं। भाजपा गत 20 जनवरी से बूथ विस्तारक अभियान के जरिए हर बूथ पर जाकर मतदाताओं से संपर्क कर रही है, वहीं कांग्रेस भी इसके जबाव में 1 फरवरी से घर चलो, घर-घर चलो अभियान शुरू कर रही है। इस अभियान की रूपरेखा खुद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की देखरेख में तैयार हुई है। विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस के इस अभियान बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसमें sampadkiy 1कोई संदेह नहीं की संगठनात्मक रूप से भाजपा प्रदेश में कांग्रेस से ज्यादा सक्रिय रहती है। इसका बड़ा कारण उनका कैडर भी है, जो निरंतर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के फीडबैक पर संगठन विस्तार के लिए अभियान चलाता रहता है। कांग्रेस ने भी पिछले कुछ वर्षों से भाजपा की तर्ज पर संगठन को मजबूत करने का अभियान शुरू किया है। कमलनाथ ने पिछले विधानसभा चुनाव के पहले इसकी शुरुआत की थी। लीडरबेस कांग्रेस में जिस तरह संगठन की बारीकियों पर अब ध्यान दिया जा रहा है, इससे पहले शायद कभी नहीं दिया गया। मंडलम्, सेक्टर का गठन इसका बड़ा उदाहरण है।

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बूथ विस्तारक के जवाब में घर-घर चलो

घर चलो घर-घर चलो अभियान के तहत पांच से सात लोगों की टोली बनाई जा रही हैं। ये टोलियां अपने साथ मतदाता सूची लेकर चलेंगी। जिस घर में यह टोली जाएगी, वहां उस घर के व्यक्तियों का नाम मतदाता सूचियों से मिलाया जाएगा, अगर किसी का नाम नहीं है, तो उससे मतदाता सूची में नाम जुड़वाने का निवेदन किया जाएगा। इसके अलावा पार्टी कार्यकर्ता एक और पेपर अपने हाथ में रखेंगे। इसमें केन्द्र और राज्य सरकार की विफलताओं का लेखा-जोखा होगा। कांग्रेस कार्यकर्ता लोगों को बताएंगे कि पिछले कुछ सालों में देश और प्रदेश में महंगाई किस तेजी से बढ़ी है। इसके अलावा वे प्रदेश सरकार की अन्य विफलताओं को भी लोगों के बीच रखेंगे। कांग्रेस इस अभियान के महत्व को समझते हुए इसकी सतत् निगरानी करेगी, इसके लिए छह सदस्यों की कमेटी का गठन किया गया है। यह कमेटी देखेगी की किस जिले में, ब्लॉक में, मंडलम् में, सेक्टर में अभियान कितनी गंभीरता से चलाया जा रहा है या खानापूर्ति की जा रही है। अभियान औपचारिक बनकर न रह जाए, इसलिए पार्टी ने एक मॉनीटरिंग कमेटी का गठन किया है। यह कमेटी पूरे समय अभियान की निगरानी करेगी। अभियान के दौरान सदस्यता पर भी फोकस रहेगा। आगामी विधानसभा चुनाव में संगठन के स्तर पर कांग्रेस भाजपा का कितना मुकाबला कर पाएगी, यह आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन कांग्रेस ने कम से कम कोशिश तो शुरू की है, कई बार कोशिशें कामयाब हो जाती हैं।

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उत्तरप्रदेश चुनाव: अखिलेश के सियासी चक्रव्यूह में उलझी भाजपा

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देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनावी रण शुरू हो चुका है। भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस समेत अन्य छोटे-छोटे सियासी दल चुनावी रण में ताल ठोक रहे हैं और अपने-अपने जीत के दावे कर रहे हैं, लेकिन चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा जिस पार्टी की है, वह है समाजवादी पार्टी। जिस खामोशी से सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने चुनावी बिसात बिछाई है, उससे निपटने का विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा को उपाय नहीं सूझ रहा है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जिस जाट वोट बैंक को भाजपा अपना मानकर चल रही है, किसान आंदोलन की वजह से जाट भाजपा से sampadkiy 1छिटकते नजर आ रहे हैं। रही-सही कसर चौधरी चरण सिंह के पोते और अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी ने पूरी कर दी है। जयंत राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख हैं और इस वक्त पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसानों और जाटों में उनका खासा प्रभाव है। अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की पार्टियां गठबंधन कर चुनाव लड़ रही हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल में जाट नेताओं के साथ बैठक कर जाट वोट बैंक में सेंध लगाने की रणनीति तैयार की और जयंत चौधरी को भाजपा में आने का न्योता दिया, लेकिन जयंत चौधरी ने इसे पूरी तरह से ठुकरा दिया। अखिलेश यादव ने जहां पश्चिमी उप्र में भाजपा के गढ़ को भेदने के लिए जयंत चौधरी के साथ गठबंधन किया, वहीं वे हर सभा में तीनों कृषि कानूनों, आंदोलन में शहीद 700 से ज्यादा किसानों और गन्ना के भुगतान में देरी का जिक्र कर रहे हैं। साथ ही सभाओं में मंच से किसानों के कल्याण के लिए अन्न संकल्प ले रहे हैं, जिससे किसानों के बीच सपा और रालोद के प्रति सकारात्मक माहौल बन रहा है। पश्चिमी उप्र में विधानसभा की 136 सीटें हैं।

वहीं पूर्वी उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव ने ऐसा जातिगत चक्रव्यूह रचा है कि भाजपा को उसका तोड़ नहीं मिल रहा है। ओपी राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बड़े जनाधार वाले नेताओं को भाजपा से तोड़कर सपा में शामिल कर अखिेलश यादव पिछड़ा वर्ग के बड़े वोट बैंक को एकजुट कर सपा के पाले में लाने में काफी हद तक सफल नजर आ रहे हैं। अखिलेश यादव योगी राज में पिछड़ों, दलितों पर अत्याचार, बेरोजगारी, किसानों की परेशानी, कोरोना काल में हुई मौतों आदि के मुद्दे उठाकर भाजपा को घेर रहे हैं। दरअसल, भाजपा ने अब से साल भर पहले तक सपा की निष्क्रियता को देखकर मान लिया था कि उसके सामने 2022 में कोई चुनौती नहीं है। उसे राम मंदिर, काशी विश्वनाथ और मथुरा मंदिर के मुद्दे पर चुनाव में ध्रुवीकरण होने की पूरी उम्मीद थी। साथ ही पश्चिमी उप्र में उसे जाटों से आस थी, लेकिन जिस तरह से अखिलेश यादव ने पिछले छह महीने में जिस चतुराई से प्रदेश में चुनावी बिसात बिछाई है, उससे भाजपा सकते में है। अमित शाह से लेकर तमाम भाजपा नेता अब चुनाव को हिंदू-मुस्लिम करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब तक भाजपा को इसमें सफलता नहीं मिली है।

हालांकि यह कहना मुश्किल है कि चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा, लेकिन अखिलेश यादव की चुनावी चालों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक भाजपा के तमाम आला नेताओं की नींद उड़ा रखी है। यह वही भाजपा है, जिसके पास लोकसभा में 300 से ज्यादा सीटें, उप्र विधानसभा में 300 से ज्यादा सीटें, करीब 20 राज्यों में सरकार है, जिसके हाथ में ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स विभाग है, जिसके पास आरएसएस जैसे निष्ठावान कार्यकर्ता हैं, वह भाजपा उस सपा से परेशान है, जिसकी उप्र विधानसभा में 47 सीटें हैं, लोकसभा में 5 सीटें है, किसी राज्य में सरकार नहीं है और जिसके पास एकमात्र अखिलेश यादव नेता हैं। कुल मिलाकर उप्र की चुनावी महाभारत में अखिलेश यादव अभिमन्यु की भूमिका हैं और भाजपा कौरवों की भूमिका में। उप्र का चुनाव परिणाम क्या होगा, यह 10 मार्च को सामने आएगा, लेकिन अखिलेश की सियासी चाल ने चुनाव में रोचक बना दिया है।

क्या गुल खिलाएगी कमलनाथ-दिग्विजय की ‘अदावत’?

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अब से करीब सवा तीन साल पहले जब कांग्रेस 15 साल का वनवास पूरा कर सत्ता में आई थी, तो इसमें तीन किरदारों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरािदत्य सिंधिया। तीनों ने एकजुट होकर विधानसभा चुनाव लड़ा और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन गई। कमलनाथ को प्रदेश की कमान सौंप दी गई। कमलनाथ मुख्यमंत्री थे, लेकिन कहा जाता था कि सरकार का रिमोट कंट्रोल दिग्विजय सिंह के पास है। तमाम की-पोस्ट पर दिग्विजय सिंह के sampadkiy 1विश्वस्त अफसर बैठे थे। सत्ता में आने के करीब 15 महीने बाद ज्योतिरािदत्य सिंधिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ी और कमलनाथ सीधे सत्ता से सड़क पर आ गए। राजनीतिक पंडित मानते हैं कि दिग्विजय सिंह की वजह से सिंधिया कांग्रेस छोडऩे को मजबूर हुए थे। अब कांग्रेस में दो चेहरे बचे हैं-प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह।

कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच 'तल्ख' संवाद

कांग्रेसियों को उम्मीद है कि ये दोनों मिलकर 2023 में फिर से कांग्रेस की सत्ता में वापसी करवाएंगे, लेकिन गत 21 जनवरी को धरने के दौरान सड़क पर जिस तरह कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच 'तल्ख' संवाद हुआ, उससे यह स्पष्ट हो गया कि इन दोनों के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उनके बीच अदावत की इस आहट से कांग्रेसी सदमे में हैं। जिन दो वरिष्ठ नेताओं के भरोसे में पौने दो साल बाद सत्ता में वापसी की बाट जोह रहे हैं, यदि उनके बीच ही रिश्ते मधुर नहीं रहे तो कांग्रेस नेताओं का भविष्य क्या होगा? दरअसल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर मिलने के लिए समय नहीं देने का आरोप लगाते हुए दिग्विजय सिंह 21 जनवरी को सीएम हाउस के नजदीक सड़क पर धरने पर बैठ गए। दिग्विजय जब सड़क पर बैठे थे, तब कमलनाथ भी उनसे मिलने पहुंच गए। वे भी उनके साथ सड़क पर बैठ गए। इसी दौरान उन्होंने दिग्विजय से पूछा कि चार दिन पहले तो मैं यहीं था, मुझे इस कार्यक्रम के बारे में बताया तक नही गया। इस पर बगल में बैठे दिग्विजय ने कहा कि क्या मैं आप से पूछकर मुख्यमंत्री से मिलने का समय लूंगा? इस पर कमलनाथ ने कहा कि देट इज गुड और चंद सेकंड बाद ही वे वहां से उठकर चले गए। उनके बीच सड़क पर हुए इस संवाद का वीडियो जमकर वायरल हो रहा है। बीजेपी भी उन दोनों के बीच हुए इस संवाद को लेकर कांग्रेस पर तंज कसने का मौका नहीं छोड़ रही है। यह भी संयोग है कि जिस समय दिग्विजय धरने पर बैठे थे, ठीक उसी समय कमलनाथ और सीएम शिवराज स्टेट हैंगर पर आपस में बात कर रहे थे। शिवराज से मिलने के बाद ही कमलनाथ दिग्विजय के धरने में पहुंचे थे। कांग्रेस नेताओं का एक बड़ा वर्ग यह मान रहा है कि दिग्विजय सिंह अपनी लाइन बड़ी करना चाहते हैं। यही वजह है कि वे आए दिन बयानबाजी और ट्वीट के जरिए आरएसएस, भाजपा पर हमला करते रहते हैं, जिसका खमियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है।

पार्टी में अराजकता

दिग्विजय प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, मुख्यमंत्री और केंद्रीय महासचिव रहे हैं। फिलहाल वे राज्यसभा सदस्य हैं। उन्हें पार्टी के नियमों की भलीभांति जानकारी है। उन्हें यह साफ करना चाहिए कि क्या वे निजी हैसियत से मुख्यमंत्री से मिलना चाहते थे या फिर राच्यसभा सदस्य और पूर्व मुख्यमंत्री की हैसियत से। अगर यह उनका निजी कार्यक्रम था, तो कोई बात नहीं। अगर ऐसा नहीं, तो उन्हें पीसीसी चीफ को इस बारे में सूचित तो करना ही चाहिए था। अगर पार्टी नेता उनका अनुसरण करने लगेंगे, तो फिर पार्टी में अराजकता फैल जाएगी। कोई किसी की न सुनेगा, न मानेगा। कांगे्रसी मानते हैं कि मुख्यमंत्री रहते कमलनाथ भरम में रहे। दिग्विजय को अपना सबसे पुराना और करीबी साथी बताकर उन पर आंख मूंदकर विश्वास जताते रहे। कमलनाथ यह भूल गए थे कि इन्हीं दिग्विजय सिंह ने अपने गुरु अर्जुन सिंह को प्रदेश में राजनीतिक हाशिये पर पहुंचा दिया था। वे उनके सगे कैसे हो सकते हैं। उधर दिग्विजय ने अपना कमाल दिखा दिया। उन्होंने अपने बेटे जयवद्र्धन सिंह की राजनीति चमकाने के लिए ऐसी कुटिल चाल चली कि ज्योतिरादित्य पार्टी छोडऩे पर मजबूर हो गए और कमलनाथ सड़क पर आ गए।

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दरार भरेगी या और गहरी होगी

दिग्विजय की राजनीति पर पिछले चार दशक से गहरी नजर रखने वाले एक पुराने कांग्रेस नेता की राय में-दिग्विजय इन दिनों तडफ़ रहे हैं। दिल्ली उन्हें पूछ नही रही है। जिस उत्तरप्रदेश के प्रभारी रहे हैं, उसमें चुनाव प्रचार का चेहरा भी नही बनाया है। 10 जनपथ और 24 अकबर रोड के कपाट उनके लिए खुल नही रहे हैं, तो फिर वे क्या करें? दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के बीच आई दरार भरेगी या और गहरी होगी और आने वाले विधानसभा चुनाव पर इसका क्या असर पड़ेगा, यह आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की अदावत से फिलहाल कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता परेशान हैं।

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बेरोजगार युवाओं की फौज हो रही तैयार, कहां है सरकार

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मध्यप्रदेश में पंजीकृत बेरोजागारों की संख्या करीब 35 लाख है

सरकार की नीतियां कैसे युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ कर रही हैं, उसकी बानगी आप मध्यप्रदेश में देख सकते हैं। एक तरफ कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र 60 से बढ़ाकर 62 कर दी, यहां तक तो ठीक था, फिर कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के बाद एक्सटेंशन देने के नाम पर संविदा नियुक्ति की परंपरा शुरू हो गई, वहीं प्रदेश में विभिन्न विभागों में एक लाख से ज्यादा नियमित पद खाली हैं, जिन्हें सरकार नहीं भर रही है। सरकार ने पहले नियमित भर्ती के स्थान पर कर्मचारियों की संविदा पोस्टिंग शुरू की और अब संविदा नियुक्ति को समाप्त कर कर्मचारियों की आउटसोर्सिंग की जा sampadkiy 1रही है। आउटसोर्सिंग के जरिए युवाओं का हर तरह से शोषण किया जा रहा है। न उनके काम के घंटे तय हैं, न वेतन फिक्स है और न ही नौकरी की कोई गारंटी है। सेवा से कब 'आउटÓ कर दिया जाए, उन्हें खुद नहीं मालूम। यही वजह है कि युवा आउटसोर्सिंग के जरिए नौकरी से गुरजे करने लगे हैं। सरकारी भर्ती नहीं होने से प्रदेश में बेरोजगार युवाओं की फौज तैयार हो रही है। यहां पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या करीब 35 लाख है, यह आंकड़ा चौंकाने वाला है। दो साल से कोई सरकारी भर्ती नहीं हुई है। इस दरमियान प्रोफेशनल एग्जामिनेशन बोर्ड तीन परीक्षाएं निरस्त कर चुका है। बेरोजगारी का आलम यह है कि भृत्य और ड्रायवर की भर्ती के लिए हजारों आवेदन आ रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव से पहले एक कई बार लाख पदों पर भर्ती प्रक्रिया जल्द शुरू करने और बैकलॉग के पद जल्द भरने की बात कह चुके हैं, लेकिन इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की गई।

नौकरी नहीं दे पा रहे तो स्वरोजगार का झुनझुना

चूंक‍ि सरकार बेरोजगारों को नौकरी नहीं दे पा रही है, इसलिए वह उन्हें स्व-रोजगार से जोडऩे की बात कह रही है। इसके लिए मुख्यमंत्री उद्यम क्रांति सहित कई योजनाएं लागू हैं, लेकिन इन योजनाओं के क्रियान्वयन में बैंक बड़ी बाधा हैं। सरकार की ओर से गारंटी लिए जाने के बाद भी बैंक लोन मंजूर नहीं करते। मुख्यमंत्री के संज्ञान में भी अधिकारी यह बात ला चुके हैं।

संविदा के नाम पर कर्मचारियों हो रहे उपकृत

नेताओं और उच्च अधिकारियों के चहेतों को उपकृत करने के लिए कई विभागों, निगम, मंडलों में 62 साल की उम्र में सेवानिवृत्त होने के बाद भी कई अधिकारियों-कर्मचारियों को  संविदा पर नियुक्ति दी गई है। इनमें कई कर्मचारी 65 साल की उम्र पूरी करने के बाद भी संविदा पर पदस्थ हैं। इनमें सरकार के चहेते कई क्लास वन और क्लास टू के अधिकारी भी शामिल हैं। इन कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली पेंशन की राशि को मायनस कर वेतन का 85 प्रतिशत भुगतान किया जाता है। वेयरहाउसिंग कॉर्पोरेशन में प्रदेश में करीब 28 कर्मचारी, नागरिक आपूर्ति निगम में 18 कर्मचारी, वन विकास  निगम में 6 कर्मचारी, पाठ्य पुस्तक निगम, ओपन स्कूल आदि में कर्मचारी सेवानिवृत्त होने और त्यागपत्र देने के बाद संविदा पर नियुक्त हैं।

75 फीसदी संविदाकर्मी 15 साल से दे रहे सेवाएं

प्रदेश में 1.20 लाख संविदाकर्मी पदस्थ हैं। ये लगभग सभी विभागों में  सेवाएं दे रहे हैं। कुल संविदाकर्मियों में से 75 फीसदी को सेवा देते हुए 15 वर्ष से अधिक का समय हो चुका है, लेकिन इन्हें नियमित करने की तरफ सरकार का ध्यान नहीं है, इससे इनका भविष्य अधर में लटका है। शिवराज कैबिनेट ने जून, 2018 में संविदाकर्मियों के लिए पॉलिसी मंजूर की थी। इसमें कर्मचारियों के वेतन समेत अन्य सुविधाओं के संबंध में प्रावधान किए गए थे, लेकिन संविदाकर्मियों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है। 

प्रमोशन के इंतजार में 55 हजार कर्मचारी सेवानिवृत्त

प्रमोशन में आरक्षण संबंधी प्रकरण सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन होने के कारण साढ़े पांच साल  से कर्मचारियों की पदोन्नति पर रोक लगी है। इससे कर्मचारियों में भारी निराशा है। इस अवधि में 55 हजार से ज्यादा कर्मचारी बगैर प्रमोशन के सेवानिवृत्त हो चुके हैं। मंत्रालय समेत अन्य कार्यालयों में प्रभारियों के भरोसे काम चल रहा है। लोक निर्माण विभाग में प्रमुख अभियंता जैसा महत्वपूर्ण पद का प्रभार सौंपा गया है। मप्र हाईकोर्ट की मुख्य पीठ जबलपुर ने 30 अप्रैल, 2016 को मप्र लोक सेवा (पदोन्नति) अधिनियम-2002 खारिज कर दिया था। इस कानून में अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने का प्रावधान है। राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। अपर मुख्य सचिव सामान्य प्रशासन विनोद कुमार का कहना है कि अधिकारी-कर्मचारियों को उच्च पद का प्रभार देकर पदनाम दिए जाने के संबंध में रिपोर्ट तैयार कर शासन को सौंप दी गई है। इस मामले में आगे की कार्रवाई सरकार को करना है।

विधानसभा चुनाव: कांग्रेस का फोकस संगठन की मजबूती पर, कड़ा होगा मुकाबला

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मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव को भले ही करीब पौने दो साल बचे हों, लेकिन भाजपा और कांग्रेस अभी से चुनाव मोड में आ गई हैं। भाजपा तो खैर पांचों साल ही चुनाव मोड में रहती है, पर कांग्रेस में यह पहली बार हो रहा है, जब पार्टी चुनाव को लेकर इतने पहले से इतनी सक्रियता दिखा रही है। उसमें भी पार्टी का सबसे ज्यादा फोकस अपने बेहद कमजोर संगठन को मजबूत करने पर है। पूर्व सीएम और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ कई मौकों पर मंच से कह चुके हैं कि हमारा मुकाबला बीजेपी से नहीं, बीजेपी के मजबूत संगठन से है। यही वजह है कि कमलनाथ सभी 230 विधानसभा क्षेत्रों में मंडलम्, सेक्टर और बूथ की कार्यकारिणी के गठन पर जोर दे रहे हैं। हाल में जिला प्रभारियों और कांग्रेस जिलाध्यक्षों की बैठक में करीब 80 विधानसभा क्षेत्रों में बूथ स्तर तक कार्यकारिणी का गठन नहीं होने पर नाराजगी sampadkiy 1जताई और हफ्ते भर में कार्यकारिणी का गठन करने को कहा। पार्टी पूरे प्रदेश में महंगाई के विरोध में जन जागरण अभियान भी चला रही है। मप्र कांगे्रस सदस्यता अभियान भी चला रही है। गत 1 नवंबर से शुरू हुए सदस्यता अभियान में 31 मार्च तक 50 लाख सदस्य बनाने का लाख सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा गया है। खास बात यह है कि इस बार अभियान को लेकर कांग्रेस के नेता ‘लेतलाली’ नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि पार्टी संगठन की तरफ से इसकी सतत् मॉनीटरिंग की जा रही है। संगठन ने प्रदेश कांग्रेस उपाध्यक्ष प्रकाश जैन को अभियान की मॉनीटरिंग की जिम्मेदारी सौंपी है। वे सुबह से शाम तक विधायकों, पूर्व विधायकों, जिलाध्यक्षों और अन्य पदाधिकारियों को फोन लगाकर सदस्यता अभियान का फीडबैक लेते रहते हैं। इसके अलावा कमलनाथ आंतरिक रूप से हर स्तर पर चुनाव की तैयारियां कर रहे हैं। इसके लिए अलग-अलग टीमें काम कर रही हैं। वे संगठन के कामकाज व प्रत्याशी चयन को लेकर सभी विधानसभा क्षेत्रों में प्रायवेट एजेंसियों से सर्वे करा रहे हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस बार विधानसभा चुनाव में मुकाबला कड़ा और रोचक होगा। चूंकि कमलनाथ के पास खोने को कुछ नहीं है।

वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव से ठीक छह महीने पहले उन्हें मप्र कांग्रेस की कमान सौंपी गई थी और उन्होंने इस छोटी सी अवधि में बाजी पलटते हुए 15 साल बाद कांग्रेस की प्रदेश की सत्ता में वापसी करा दी थी। कमलनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, लेकिन 15 महीने बाद ही उनकी सत्ता से विदाई हो गई। यह आसानी से समझा जा सकता है कि उन्हें मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाने का गम किस हद तक साल रहा होगा। कमलनाथ 75 साल के हो चुके हैं, उनके पास यह आखिरी मौका है, जब वे कांग्रेस की सत्ता में वापसी कराकर फिर से मुख्यमंत्री बन सकते हैं। यही वजह है कि कमलनाथ खामोशी रहकर पूरी ताकत से चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। पार्टी आलाकमान भी कमलनाथ पर पूरा भरोसा जता रहा हैं। उन पर पार्टी कार्यकर्ताओं ने नहीं मिलने, प्रदेश में सक्रिय नहीं रहने, पार्टी कार्यकर्ताओं को नहीं पहचानने जैसे आरोपों के बाद भी उन्हें पीसीसी चीफ के साथ ही नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी भी सौंप रखी है। कमलनाथ पार्टी हाईकमान के विश्वास पर कितना खरे उतर पाते हैं, यह विधानसभा चुनाव के बाद पता चलेगा।  

सदस्यता में  ‘हलफनामा’ बन रहा बाधा

कांग्रेस के सदस्यता अभियान में  ‘हलफनामा’ बड़ी बाधा बन रहा है। दरअसल, सदस्यता अभियान को लेकर पार्टी की ओर से जारी किए गए मेंबरशिप फॉर्म में कई बदलाव किए गए हैं। इसके तहत पार्टी द्वारा दस बिंदुओं का उल्लेख किया गया है, जिसमें एक शर्त यह भी है कि सदस्यता लेने वाले व्यक्ति को यह हलफनामा देना होगा कि वह पार्टी की नीतियों व निर्णयों की आलोचना सार्वजनिक तौर पर नहीं करेगा। इसके अलावा यह शर्त भी रखी गई है कि सदस्यता लेने वाला कोई भी व्यक्ति कानूनी सीमा से अधिक संपत्ति नहीं रखेगा। साथ ही वह शराब और मादक पदार्थों (ड्रग्स) से दूरी बनाकर रखेगा और कांग्रेस की नीतियों व कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए फिजिकल एफर्ट और जमीन पर काम करेगा।  इस हलफनामे की वजह से कांग्रेस नेताओं को सदस्य बनाने में मुश्किल आ रही है। यही वजह है कि नेता हलफनामा को दरकिनार कर सदस्य बना रहे हैं, ताकि सदस्यता के लक्ष्य को पूरा किया जा सके।

नई आबकारी नीति: सरकार ने पिछले दरवाजे से दोगुनी कर दीं शराब दुकानें

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20 प्रतिशत सस्ती होगी शराब, एक ही दुकान में बिकेगी देशी-विदेशी शराब

शिवराज सरकार ने शराब के शौकीनों की मन की मुराद पूरी कर दी है। प्रदेश में देशी-विदेशी शराब की कीमत 20 प्रतिशत कम होंगी। दरअसल, सरकार ने वर्ष 2022-23 की आबकारी नीति को मंजूरी दे दी है। इसमें शराब पर ड्यूटी sampadkiy 110 से 15 प्रतिशत कम कर दी गई है। कहा जा रहा है कि शराब की कीमतें कम होने से अवैध शराब का कारोबार पर खत्म होने के साथ ही घटिया क्वालिटी की शराब पीने से होने वाली मौतें रुक जाएंगी। ऐसा हो पाएगा या नहीं, यह तो आना वाला वक्त बताएगा, लेकिन इतना जरूर है कि 1 अप्रैल से प्रदेश में शराब सस्ती बिकने लगेगी।

सरकार ने पिछले दरवाजे से दोगुनी कर दीं शराब दुकानें

नई आबकारी नीति में ऐसी कई खामियां है जिन पर सवाल उठने लगे हैं। नई नीति में सरकार ने प्रत्यक्ष तौर पर भले ही शराब की नई दुकान नहीं खोलने का निर्णय लिया हो, लेकिन विदेशी शराब दुकान में देशी और देशी शराब दुकान में विदेशी शराब बेचे जाने का प्रावधान करके सरकार ने पिछले दरवाजे से शराब दुकानों की संख्या दोगुनी कर दी है। प्रदेश में अभी 2541 देशी और 1070 विदेशी मदिरा दुकानें हैं।

मॉल व सुपर मार्केट में भी वाइन शाप

नीति में होम बार लायसेंस देने का प्रावधान किया गया है। यह स्पष्ट नहीं है कि ड्राई डे यानी गांधी जयंती, होली या चुनाव की स्थिति में होम बार पर नियंत्रण कैसे होगा। होम बार की आड़ में पवित्र नगरों में भी शराबखोरी शुरू हो जाएगी। अब न सिर्फ एयरपोर्ट पर वाइन शाप खुलेगी, बल्कि बड़े शहरों में मॉल व सुपर मार्केट में वाइन शाप के काउंटर खोलने की अनुमति दी जाएगी। घर पर शराब रखने की मात्रा में बढ़ाकर चार गुना कर दी गई है। एक तरफ राज्य सरकार नशा मुक्ति अभियान चलाने की बात कर रही है, वहीं शराब की पहुंच को और आसान बनाया जा रहा है। कांग्रेस ने इसे शिवराज सरकार का शराब प्रेम बताया गया है। कांग्रेस का मानना है कि खपत बढ़ाने के लिए शराब सस्ती की जा रही है, ताकि सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी हो। कांग्रेस ने नई आबकरी नीति को लागू करने से पहले इसमें संशोधन करने की मांग सरकार से की है।

बड़े ठेकेदारों की मोनोपॉली खत्म होगी

नई आबकारी नीति की एक अच्छी बात यह है कि इसमें प्रदेश में शराब के ठेकों को लेकर बड़े ठेकेदारों की मोनोपॉली सिस्टम को खत्म कर दी गई है। अब जिले में सिंगल ग्रुप सिस्टम के स्थान पर छोटे समूह बनाकर शराब दुकानों की नीलामी की जाएगी। एक समूह में अधिकतम पांच दुकानें होंगी। ऐसा करने से छोटे बजट वाले ठेकेदार भी शराब दुकानें ले सकेंगे। वर्तमान में प्रदेश में 2019-20 की आबकारी नीति लागू है। इसमें शराब दुकानें सिंगल ग्रुप सिस्टम में 1 जिले में एक या दो ग्रुप के पास हैं। इसकी वजह से शराब ठेकेदारों में आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं है। छोटे ग्रुप में शराब दुकान ठेके होने से कीमतों पर अंकुश रहेगा। 

नई आबकारी नीति एक नजर में

– घर पर 4 गुना शराब रखने की छूट मिलेगी। फिलहाल घर में एक पेटी बीयर व 6 बॉटल शराब रखने की अनुमति है।
– अपसेट प्राइस से 15 प्रतिशत ज्यादा राशि पर अंग्रेजी और 25 प्रतिशत ज्यादा राशि पर देशी शराब दुकान रीन्यू होगी
– भोपाल व इंदौर में माइक्रो बेवरेज खोली जा सकेंगी
– अंगूर के साथ जामुन से भी बन सकेगी वाइन
– एयरपोर्ट पर होगी अंग्रेजी शराब दुकान
– सालाना आय एक करोड़ वाले व्यक्ति होम बार लायसेंस ले सकेंगे
 – भोपाल, इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर में सुपर मार्केट में वाइन की बिक्री की जा सकेगी। इसके लिए लायसेंस लेना अनिवार्य होगा। 
– नई आबकारी नीति में आदिवासियों द्वारा महुआ से बनाई जाने वाली शराब को हेरिटेज शराब का दर्जा दिया गया है। यह शराब टैक्स फ्री होगी।
– नई नीति में हर ठेकेदार को अपने कोटे का 85 प्रतिशत माल उठाना अनिवार्य किया गया है। ऐसा नहीं करने पर ठेकेदार पर पेनल्टी लगाई जाएगी।

UP चुनाव: राष्ट्रीय नेतृत्व ने MP के भाजपा नेताओं पर नहीं जताया भरोसा

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मुख्यमंत्री शिवराज तक को नहीं बनाया स्टार प्रचारक

सियासत के नजरिए से देश के सबसे अहम् राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बच चुकी है। चुनाव की तारीखों को ऐलान होने के साथ ही राजनीतिक दलों ने चुनाव मैदान में पूरी ताकत झोंक दी है। पार्टियों में नेताओं की तोड़-फोड़ जारी है। वैसे तो उत्तर प्रदेश के चुनावों पर पूरे देश की निगाह रहती है, क्योंकि कहते हैं, दिल्ली जीतने के लिए उत्तर प्रदेश जीतना जरूरी है। पड़ोसी राज्य होने के नाते मप्र के लोगों और नेताओं की उत्तर प्रदेश के चुनाव में विशेष रुचि रहती है। खास बात यह है कि इस बार भाजपा संगठन ने उप्र विधानसभा चुनाव में मप्र के भाजपा नेताओं को sampadkiy 1तवज्जो नहीं दी है। हाल में विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए भाजपा ने स्टार प्रचारकों की सूची जारी की है। इस सूची में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत प्रदेश से किसी भी नेता का नाम शामिल नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा को कानपुर क्षेत्र की लगभग 50 सीटों का प्रभारी बनाया गया था। वहीं, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुछ दिन पहले ही बलिया में जन विश्वास यात्रा को हरी झंडी दिखाई थी। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी उप्र के प्रभारी रह चुके हैं, लेकिन पहले चरण के स्टार प्रचारकों की सूची में इन्हें भी स्थान नहीं मिल पाया। यह भी माना जा रहा था कि मध्य प्रदेश के पिछड़ा वर्ग और ब्राह्मण नेताओं को उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार का मौका मिलेगा, ताकि डैमेज कंट्रोल किया जा सके।

क्‍या मप्र के भाजपा नेताओं का कोई सियासी कद नहीं बचा

माना जा रहा है कि उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से ब्राह्मण नाराज हैं और वे उन्हें चुनाव में सबक सिखाने की तैयारी में हैं। पिछड़ा वर्ग नेताओं को सपा प्रमुख अखिलेश यादव पहले ही लामबंद कर चुके हैं। मध्य प्रदेश का भाजपा संगठन ब्राह्मण और अन्य पिछड़ा वर्ग के नेताओं को उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिए भेजने की तैयारी में था। इनमें शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती, प्रहलाद पटेल, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा व गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के नाम प्रमुख हैं। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को तो उत्तर प्रदेश चुनाव में एक बार मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में भी प्रोजेक्ट किया गया था, लेकिन इस बार उन्हें भी स्टार प्रचारक बनने का मौका नहीं मिला है। भाजपा ने संगठन से जुड़े मप्र के कुछ वरिष्ठ नेताओं को उप्र चुनाव में छोटी-मोटी जिम्मेदारी सौंपी है। न तो किसी को विधानसभा सीटों का प्रभार सौंपा है और न ही स्टार प्रचारक बनाया गया है। प्रदेश के एक भी भाजपा नेता को स्टार प्रचारक नहीं बनाए जाने को लेकर विरोधी दल मुखर हैं। वे कह रहे हैं कि राष्ट्रीय नेतृत्व की नजर में मप्र के भाजपा नेताओं का कोई सियासी कद नहीं रह गया है। राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदेश भाजपा के कद्दावर नेता कैलाश विजयवर्गीय को पश्चिम बंगाल चुनाव की कमान सौंपकर इसका हश्र देख चुका है।

कड़ा और रोचक होगा मुकाबला

पिछले विधानसभा चुनाव में उप्र में भाजपा ने एकतरफा जीत दर्ज की थी। विधानसभा की कुल 403 सीटों में से भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने 325 सीटों पर जीत दर्ज की थी, लेकिन इस बार उप्र का चुनावी माहौल अलग है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव जिस तरह से रणनीति बनाकर चुनावी बिसात बिछा रहे हैं, उससे उप्र में चुनावी मुकाबला दिलचस्प और कड़ा हो गया है। उप्र में बीजेपी के लिए चुनाव जीतना आसान नहीं दिख रहा है। सभी सीटों पर कड़ा संघर्ष होने की बात कही जा रही है। यही वजह है कि पार्टी नेतृत्व के फैसले से कई भाजपा नेता खुश हैं। वे कोरोना संक्रमण और कड़े मुकाबले के बीच उप्र जाने से बच रहे थे, क्योंकि सीटें हारने की स्थिति में हार का दाग उनके माथे पर लग जाएगा। उप्र में मुख्यमंत्री योगी सत्ता में फिर वापसी करेंगे या अखिलेश यादव पांच साल बाद सत्ता संभालेंगे, इसका फैसला 10 मार्च को होगा।

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